भोपाल। इस विश्व के अधिष्ठान दक्षिणामूर्ति कालभैरव (Kaal Bhairav) हैं. उनकी शक्ति ही त्रिपुरभैरवी (Tripur Bhairavi) हैं. जो ललिता या महात्रिपुरसुंदरी की रथवाहिनी हैं. ब्रह्मांडपुराण में इन्हें गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी का रूप बताया गया है. इन्हें त्रिपुर भैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्या भैरवी के नाम से भी जाना जाता है. इंद्रियों पर विजय और सर्वत्र उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु त्रिपुरभैरवी की उपासना का वर्णन शास्त्रों में मिलता है. महाविद्याओं में इनका छठा स्थान है.
पुराणों में वर्णित है की गुप्त नवरात्रि का पूजन देवी मां सहर्ष स्वीकार करती हैं. सृष्टि के प्रारंभ से ही शक्ति आराधना का क्रम जारी है या यूं कहें की शक्ति की आराधना से ही इस सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ है. भारतीय संस्कृति में चित्त की शुद्धि एवं भावों की शुद्धि के लिए तिथि, त्यौहार एवं पर्वों का विधान है. गुप्त नवरात्रि का भी विशेष महत्व है. इसमें पूजा आराधना, दर्शन आदि से चित्त एवं भावों की शुद्धि की जाती है तथा व्रत से शरीर का शोधन किया जाता है. मंत्र, तंत्र और यंत्र तीनों विधियां हैं शक्ति उपासना में.
ऐसी दिखतीं हैं मां (How Tripur Bhairavi Looks)
दुर्गासप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर वध के प्रसंग में हुआ है. इनका रंग लाल है. ये लाल वस्त्र पहनती हैं, गले में मुंडमाला धारण करती हैं और शरीर पर रक्त चंदन का लेप करती हैं. अपने हाथों में जपमाला, पुस्तक तथा वर और अभय मुद्रा धारण करती हैं. कमलासन पर विराजमान हैं ये.
त्रिपुर भैरवी के स्वरूप में छुपा रहस्य (Secret of Maa Swaroop)
भगवती त्रिपुरभैरवी ने ही मधुपान करके महिष का हृदय विदीर्ण किया था. समस्त विपत्तियों को शांत कर देने वाली शक्ति को ही त्रिपुरभैरवी कहा जाता है. इनका अरुणवर्ण विमर्श का प्रतीक है. इनके गले में सुशोभित मुंडमाला ही वर्णमाला है. देवी के रक्तचंदन लिप्त पयोधर रजोगुणसंपन्न सृष्टि प्रक्रिया के प्रतीक हैं. अक्षमाला वर्णमाला की प्रतीक है. पुस्तक ब्रह्मविद्या है, त्रिनेत्र वेदत्रयी हैं. भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का दृढ़ निर्णय लिया था. बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इनकी तपस्या को देखकर दंग रह गए,
इससे सिद्ध होता है कि भगवान शंकर की उपासना में निरत उमा का दृढ निश्चयी स्वरूप ही त्रिपुरभैरवी का परिचालक है. त्रिपुरभैरवी की स्तुति में कहा गया है कि भैरवी सूक्ष्म वाक् तथा जगत में मूल कारण की अधिष्ठात्री हैं.
अनेक हैं नाम (Called With Different Names)
भैरवी के अनेक नाम हैं. इन्हें त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि के नाम से भी पूजा जाता है. त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं.
मां त्रिपुर भैरवी कथा (Tripur Bhairavi Katha)
एक बार जब देवी काली के मन में आया कि वह पुनः अपना गौर वर्ण प्राप्त कर लें तो यह सोचकर देवी अन्तर्धान हो जाती हैं, भगवान शिव जब देवी को को अपने समक्ष नहीं पाते तो व्याकुल हो जाते हैं और उन्हें ढूंढने का प्रयास करते हैं, भगवान शिव महर्षि नारदजी से देवी के विषय में पूछते हैं तब नारद जी उन्हें देवी का बोध कराते हैं. वह कहते हैं कि शक्ति के दर्शन आपको सुमेरु के उत्तर में हो सकते हैं वहीं देवी की प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात संभव हो सकेगी.
तब भोले शंकर की आज्ञानुसार नारदजी देवी को खोजने के लिए वहाँ जाते हैं, महर्षि नारद जी जब वहां पहुँचते हैं तो देवी से शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखते हैं. यह प्रस्ताव सुनकर देवी क्रोद्ध हो जाती हैं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट होता है और इस प्रकार उससे छाया-विग्रह त्रिपुर भैरवी का प्रकाट्य होता है,
पूजा का महत्व (Importance of Tripur Bhairavi Puja)
माँ के हाथ में विद्या तत्व है, माँ त्रिपुर भैरवी की पूजा में लाल रंग का उपयोग किया जाना अति-फलदायक होता है, त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं इनकी उपासना भव-बन्ध-मोचन कही जाती है. माँ भैरवी उपासना से व्यक्ति को सफलता एवं सर्वसंपदा की प्राप्ति होती है. शक्ति-साधना तथा भक्ति-मार्ग में किसी भी रुप में त्रिपुर भैरवी की उपासना फलदायक होती है. साधना द्वारा अहंकार का नाश होता है तब साधक में पूर्ण शिशुत्व का उदय हो जाता है और माता साधक के समक्ष प्रकट होती है. भक्ति-भाव से मन्त्र-जप, पूजा, होम करने से त्रिपुर भैरवी प्रसन्न होती है,
त्रिपुर भैरवी का मंत्र (Tripur Bhairavi Mantra)
मुंगे की माला से पंद्रह माला 'ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:' मंत्र का जाप कर सकते हैं, जाप के नियम किसी जानकार से पूछें,
त्रिपुर भैरवी ध्यान मंत्र (Tripur Bhairavi Dhyan Mantra)
उद्यद्भानु सहस्रकान्तिमरुणा क्षौमां शिरोमालिकां,
रक्तालिप्त पयोधरां जप वटीं विद्यामभीति वरम्,
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्र विलसद्वक्त्रारविन्द श्रियं,
देवीं बद्ध हिमांशु रत्न मुकुटां वन्दे रविन्दस्थिताम्॥