भोपाल। बकरीद का त्यौहार देश भर में गुरुवार 29 जून को मनाया जाएगा. इसका ऐलान दस दिन पहले 19 जून को ईद उल अजहा के चांद के दीदार के बाद किया गया. बता दें कि ईद उल जुहा या बकरीद, ईद उल फित्र के दो महीने नौ दिन बाद मनाई जाती है. इस्लाम मजहब में बकरीद का खास महत्व है. इस्लामिक कैलेंडर के 12वें महीने जुल-हिज्जा के दसवें दिन बकरीद मनाई जाती है.
कैसे शुरु हुई कुर्बानी: बकरीद की गिनती इस्लाम के मुख्य त्योहारों में की जाती है. इस दिन को बलिदान का प्रतीक माना जाता है. ये परंपरा लंबे समय से चली आ रही है. इस्लाम धर्म के प्रमुख पैगंबरों में से हजरत इब्राहिम एक थे. इन्हीं की वजह से कुर्बानी देने की परंपरा शुरू हुई. माना जाता है कि अल्लाह ने एक बार इनके ख्वाब में आकर इनसे इनकी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करने को कहा. इब्राहिम को अपनी इकलौती औलाद उनका बेटा इस्माइल सबसे अजीज था. हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे. उन्हें बुढ़ापे में जाकर अब्बा बनने की खुशी मिली थी.
कुर्बानी में इब्राहिम के बेटे की जगह निकला बकरा: मगर अल्लाह के हुक्म के आगे वह अपनी खुशी को कुर्बान करने को तैयार हो गए. हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी रख दी. हैरानी की बात ये है कि इस दौरान स्माइल की जगह एक बकरा आ गया. जब हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उनके बेटे इस्माइल सही-सलामत खड़े हुए थे. अल्लाह ने चमत्कार किया और उनके बेटे की जगह दुंबा को लिटा दिया गया था. इस तरह इब्राहिम के बेटे की जान बच गई और दुंबे की कुर्बानी हो गई. तभी से कुर्बानी देने का रिवाज चला आ रहा है. कहा जाता है कि ये महज एक इम्तिहान था और हजरत इब्राहिम अल्लाह के हुकुम पर अपनी वफादारी दिखाने का.
पत्थर मारने की परंपता: हज यात्रा के आखिरी दिन कुर्बानी देने के बाद रमीजमारात पहुंचकर शैतान को पत्थर मारने की भी एक अनोखी परंपरा है. इसे हजरत इब्राहिम से जोड़कर देखा जाता है. माना जाता है कि जब हजरत इब्राहिम अल्लाह अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए चले थे तो रास्ते में शैतान ने उन्हें बहकाने की कोशिश की थी.
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एक हिस्सा ही रखें परिवार के लिए: फलावदा के शहरकाजी मौलाना सलमान कासमी ने बताया कि कुर्बानी के बकरे के तीन हिस्से होते हैं, जिसमें एक हिस्सा अपने पास रखें. दूसरा पड़ोस में उनको बांटे, तीसरा हिस्सा गरीबों में बांट दें. इसी तरह बड़े जानवर के सात हिस्से होते हैं, जिसमें सात लोग हिस्सा ले सकते हैं. उसमें भी प्रत्येक एक हिस्से में से तीन-तीन हिस्से कर एक खुद रखें और दो हिस्से तकसीम कर दें, ताकि समाज के हर तबके के लोगों तक कुर्बानी का हिस्सा पहुंच जाए.