बड़वानी। सपने, हिम्मत, हौसला और आत्मनिर्भर बनने का आत्मविश्वास. इन्हीं के बदौलत बड़वानी के कुष्ठरोगी दिव्यांग रूमा आज दूसरों के लिए एक मिसाल हैं. भले ही रूमा अपने शारीरिक अंगों से दिव्यांग हैं लेकिन उनके मन का हौसला और हिम्मत नहीं. अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बनाकर, रूमा ने साबित कर दिया है कि मन में एक बार कुछ ठान लिया जाए तो कोई भी काम नामुमकिन नहीं होता है.
आत्मनिर्भर होने की शुरूआत सीमित और स्थानीय संसाधनों से होती है. वहीं अक्सर आत्मनिर्भर बनने की चाह में कई दफा ऐसी चीजों की ओर ध्यान जाता है, जो सबके लिए या तो बेवजह होती है या फिर बहुत मुश्किल. ऐसा ही कुछ रूमा के साथ भी हुआ. रूमा के घर के आसपास काफी बड़ी मात्रा में जमीन पड़ी हुई थी, जिसे देख उन्होंने किसानी करने की ठानी. रूमा के हाथ और पैरों में उंगुलियां नहीं हैं. लेकिन उनके हौसले उनकी इस कमी के आगे फीके रहे. रूमा ने कभी भी अपनी शारीरिक कमजोरी को आड़े आने नहीं आने दिया.
सालभर के लिए हो जाती है अनाज की पूर्ति
पिछले करीब 25 सालों से रूमा और उनकी पत्नी पहाड़ी की ढलान पर खेती कर सालभर के लिए खाने-पीने का अनाज पैदा कर लेते हैं. रूमा ने पत्नी के साथ पहाड़ी की ढलाननुमा जमीन पर जमा पत्थर-कंकड़ और घास-फूंस खुद हटाए. जमीन को समतल कर खेती योग्य बनाया. पानी की कमी के कारम रूमा बारिश के मौसम में ही खेती करते हैं. ऐसे में मूंग, मूंगफली और मक्का बोकर वे सालभर के लिए अनाज की पूर्ति कर लेते हैं.
रूमा लहलहाती फसल देख कर बहुत खुश होते हैं. रूमा बताते हैं कि उन्हें किसानी करने में मजा आता है, लेकिन साल भर पानी नहीं मिलने के कारण थोड़ी मायूसी छाई रहती है. फिलहाल वे सिर्फ बारिश के पानी से फसल उगा पा रहे हैं.
ये भी पढ़ें- कोरोना छीन रहा नौकरी, बढ़े शिक्षित बेरोजगार, नौकरी की आस में पौने दो लाख ने कराया पंजीयन
आत्मनिर्भर रूमा की कहानी हर उस शख्स के लिए ऐसी प्रेरणा की कहानी है जो ये सोचता है कि इस अभाव के चलते वह यह काम नहीं कर सकता है. कई लोग अपने हाथों की लकीरों को कोसते नजर आते हैं, लेकिन रूमा के हाथों में तो लकीरें नहीं होने पर भी उन्होंने साबित कर दिया कि मन में ठान लिया जाए तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता.