बालाघाट। होलिका दहन से आदिवासियों के साल के पहले पर्व की शुरूआत हो जाती है. आदिवासी प्रकृति पूजा के साथ ही होली के त्योहार की शुरुआत करते हैं. 5 दिवसीय रंगोत्सव पर्व के दूसरे दिन नाच-गाने के साथ आदिवासी समाज ने होली मनाई. परंपरागत रीति रिवाजों और अपनी संस्कृति सभ्यता को जीवंत रखते हुए होली त्योहार के दूसरे दिन विधि विधान से प्रकृति की पूजा के साथ आदिवासी समुदाय के लोगों ने एक दूसरे को रंग-गुलाल लगाकर होली पर्व की शुभकामनाएं दीं. इसी के साथ नव वर्ष की भी शुरुआत कीं. बालाघाट के आदिवासी वनांचल क्षेत्र की तस्वीर आदिवासियों की परंपरा, रीति रिवाज और संस्कृति की झलक दिखलाती है. होली स्पेशल में देखिए "आदिवासी कल्चर" सिर्फ ईटीवी भारत पर.
पूर्वजों की परंपरा से नई पीढ़ी हो रही रूबरू: पूरे भारत में होलिका दहन के साथ ही 2 दिनों तक बड़े हर्षोल्लास के साथ रंगों के त्योहार होली पर्व मनाया जाता है. बालाघाट जिले में भी निवासरत आदिवासी समाज ने होली पर्व के दूसरे दिन अपनी प्राचीन परंपराओं को जीवंत रखते हुए होली मनाई. वे अपनी आने वाली पीढ़ी को पूर्वजों की सालों पुरानी परंपरा से अवगत कराते हुए विधि विधान से प्रकृति की पूजा के बाद होली के त्योहार की शुरूआत की. इसी के साथ वे नए साल की शुरूआत भी करते हैं.
आदिवासी प्रकृति शक्ति की पूजा कर खेलते हैं होली: इस परंपरागत रीति-रिवाज को लेकर जिले के आदिवासी बाहुल्य परसवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के गांव लिंगा के प्रधान कपूरचंद वरकड़े बताते हैं कि, होलिका दहन के दिन प्रकृति शक्ति की पूजा की जाती है. आदिवासी भाई गांव लिंगा के दशहरा मैदान में स्थित देव स्थल पर पहुंचकर पूरे विधि विधान से पतझड़ के बाद प्रकृति के नए रंग में रंगे होने पर अपने प्रकृति-प्रेम को उजागर करते हुए प्रकृति शक्ति की पूजा करते हैं. उनका मानना है कि, पेड़ों के पुराने पत्ते गिरकर नई पत्तियां और फूल आते हैं. पलास, महुआ और सेमर के पेड़ों में फूल लगते हैं तो प्रकृति में नयापन दिखलाई पड़ता है, तब हम हमारे ईष्ट जिसे हम मेघनाद करते हैं उनकी पूजा करते हैं.
होली से जुड़ी खबरें यहां पढ़ें... |
पतझड़ के लिए मेघनाद की करते हैं पूजा: शक्ति पूजा में आदिवासी समाज लकड़ियों के बने देव स्थल पर चढ़कर प्रकृति के देव को नया फल अर्पित करते हैं. इसके बाद एक व्यक्ति एक रस्सी के सहारे देव स्थल के चारों ओर करीब 5 चक्कर लगाकर प्रकृति के देवता की पूजा करते हैं. फिर उक्त उच्च स्थल पर ही श्रीफल आदि अर्जित कर देवता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं. इसके बाद ही पूजा में पहुंचे सभी समाजिक भाई बंधु एक दूसरे को रंग-गुलाल लगाकर होली पर्व मनाते हैं. कपूरचंद बताते हैं कि, हमारे ईष्ट मेघनाद को रामायण के पात्र से नहीं जोड़ना ठीक नहीं हुआ. वे हमारे आदिवासी भाईयों के ईष्ट देव हैं, जिन्हें हम खूट के नाम से भी पुकारते हैं, जिनका हम पूजा करते हैं. इस दौरान हम उनसे प्रर्थना करते हैं कि, जब पतझड़ के बाद घास और चारा हमारे पशुओं को नहीं मिलेगा तो हम ईष्ट देव की आराधना करते हुए पशुओं की रक्षा के लिए उनकी वंदना करते हैं ताकि वे हमारे पशुओं की इस नव वर्ष में रक्षा करें.
युवाओं को संदेश: आदिवासी युवा बसंत तेकाम ने वायु, पानी, पेड़, पौधों आदि को ही प्राकृतिक शक्ति मानते हुए बताया कि, प्रकृति ही हम आदिवासियों के लिए एक पूंजी है. इसके सहारे हम जीवित रह सकते हैं और इसके सहारे ही हम अपना जीवन निर्वाह करते हैं. हमारे पूर्वजों ने हमें प्रकृति से जोड़े रखने के लिए जो परंपरा चलाई है, हमें उसको हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. हमारे पूर्वजों ने जो रीति रिवाज और परंपरा हमें दी है, उसका पालन करना चाहिएॉ. अगर इसे हम भूलते हैं तो हमारा आगे का जीवन बर्बाद हो जाएगा. आज जो यहां पर पूजा हुई है उसे हम "गोंगों" कहते हैं और प्रकृति में उपस्थित सभी पेड़-पौधों को याद करते हुए हमने आज उनकी पूजा की है. इससे युवाओं को भी मैं संदेश देना चाहता हूं कि, प्रकृति से अगर जुड़े रहेंगे तभी आप आगे अच्छे से जीवन निर्वाह कर सकते हैं.