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वीरान हुआ धोबी घाट, नहीं हो रही कपड़ों की धुलाई, कंगाली की कगार पर धोबी समाज

कोरोना संकट के बाद से ही कई काम धंधे बंद पड़े हैं. कुछ ऐसा ही हालात लॉन्ड्री का काम करने वाले लोगों का है. जहां लॉकडाउन के बाद से ही कपड़े धुलने का काम बंद है. ऐसे में लॉन्ड्री के काम से जुड़े लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा होता जा रहा. देखिए इंदौर के छावनी धोबी घाट से यह खास रिपोर्ट.

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Published : Jul 30, 2020, 4:56 PM IST

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इंदौर न्यूज

इंदौर। कोरोना संकट से वैश्विक मंदी ने जहां अर्थव्यवस्था को संकट में ला दिया है, वही बड़े उद्योगपतियों से लेकर छोटे तबके के पारंपरिक व्यवसाय करने वाले सेक्टर पर भी आर्थिक संकट का खतरा मंडरा रहा है. इनमें सबसे बुरी स्थिति लॉन्ड्री का काम करने वाले लोगों की है. जिन पर संक्रमण की आशंका के चलते ग्राहकों का विश्वास उठ गया. लिहाजा घाटों पर कपड़े धोने का पीढ़ियों पुराना यह धंधा अब बंद होने की कगार पर पहुंच चुका है.

सूने पड़े धोबी घाट
सूने पड़े धोबी घाट

इंदौर का करीब 200 साल पुराना छावनी धोबी घाट इन दिनों अपनी दुर्दशा की गवाही खुद दे रहा है. लॉकडाउन के पहले तक यहां हर समय 300 से 400 धोबी 26 पंक्तियों में दिन भर में हजारों कपड़े धोते थे, लेकिन कोरोना संक्रमण के खतरे की वजह से चार महीनों से यहां इसी तरह सन्नाटा पसरा है. लॉकडाउन खुलने के बाद यहां धोबी रोज आते तो हैं, लेकिन कपड़े धोने नहीं बल्कि अपनी-अपनी मशीनें और सामान की देखभाल के लिए. क्योंकि इन लोगों के पास काम तो बचा नहीं है.

लॉकडाउन से बर्बाद हुआ लॉन्ड्री का काम

कपड़े धुलने का काम फिलहाल बंद है

धोबी घाटों पर शहर के मुख्य व्यवसायिक क्षेत्र सरवटे बस स्टैंड, एमजी रोड, आरएनटी मार्ग, रेलवे स्टेशन और सियागंज समेत अन्य इलाकों के होटलों के कपड़े धुलते थे. इसके अलावा होटल में ठहरने वाले ग्राहक भी धोबियों के मुख्य ग्राहक होते थे. हालांकि अब न केवल शहर के तमाम होटल, बल्कि अन्य व्यवसायिक प्रतिष्ठान भी बंद पड़े हैं. जिससे धोबियों के पास लॉकडाउन खुलने के बाद भी कोई काम नहीं आ रहा है. फिलहाल शहर के कुछ अस्पतालों के इक्का-दुक्का जो भी कपड़े आ रहे हैं, उनसे धोबियों को अपना घर चलाना मुश्किल हो रहा है. लिहाजा इन्हें अपने रोजगार का कोई भी विकल्प नजर नहीं आ रहा.

संक्रमण की आशंका से उठा भरोसा

लॉन्ड्री से जुड़े पारंपरिक मजदूरों की सबसे बड़ी परेशानी ये है कि, जो कपड़े वे घर-घर से धोने के लिए लाते थे, उन घरों का ही भरोसा अब धोबियों पर से उठ चुका है. ग्राहकों का भी सामान्य दृष्टिकोण है कि, घर-घर कपड़े इकट्ठे करने जाने वाले धोबी संक्रमण फैला सकते हैं. लिहाजा धोबियों के घरेलू ग्राहकों ने भी उनसे किनारा कर लिया. इन हालातों में जिन धोबियों ने आधुनिक तरीके से कपड़े धोने और प्रेस आदि करने की मशीनें खरीद रखी थी. उन पर भी अब ताला डल चुका है. जिन लोगों ने इन मशीनों के लिए लोन लिया था, वो अब मशीनों की ईएमआई चुकाने की स्थिति में नहीं हैं.

एक रस्सी पर 10 बार सूखते थे कपड़े
छावनी धोबी घाट के छोटू कनौजिया बताते हैं कि, लॉकडाउन के पहले यहां एक एक रस्सी पर दिन भर में दस- दस कपड़े सूखते थे. जो धोबी सुबह 6 बजे से कपड़े धोने आते थे, उनका काम शाम को सात बजे तक भी खत्म नहीं होता था. दिन भर में हजारों कपड़े धुलते थे और सभी लोग अपने- अपने काम को लेकर खुश थे. लेकिन अब ना कोई कामकाज बचा है, ना ही ग्राहकों का भरोसा.

बिना काम के आ गए हजारों के बिजली बिल
स्थानीय धोबी रंजीत का कहना है कि, काम धंधा बंद होने से घर परिवार का पेट पालना मुश्किल हो गया है. उस पर बिजली के बिलों की दोहरी मार पड़ी है. बीते चार महीने से ना तो मशीनें चली ना कपड़े धोए गए. फिर भी बिजली विभाग ने अनुमानित बिल हजारों के भेज दिए हैं. खाने को ही पैसा नहीं हैं, तो बिजली के बिल भरने का सवाल ही नहीं उठता है. यह स्थिति केवल इंदौर के छावनी धोबी घाट की नहीं है. बल्कि कमोबेश शहर के सभी धोबीघाटों का यही हाल. जहां सुर्ख सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता. लॉकडाउन के बाद चौपट हुए धंधे से धोबीघाटों पर काम करने वाले लोगों की पहले से ही कमर टूट चुकी है. अगर कोरोना का कहर जल्द कम नहीं हुआ, तो हालात और बिगड़ सकते हैं.

इंदौर। कोरोना संकट से वैश्विक मंदी ने जहां अर्थव्यवस्था को संकट में ला दिया है, वही बड़े उद्योगपतियों से लेकर छोटे तबके के पारंपरिक व्यवसाय करने वाले सेक्टर पर भी आर्थिक संकट का खतरा मंडरा रहा है. इनमें सबसे बुरी स्थिति लॉन्ड्री का काम करने वाले लोगों की है. जिन पर संक्रमण की आशंका के चलते ग्राहकों का विश्वास उठ गया. लिहाजा घाटों पर कपड़े धोने का पीढ़ियों पुराना यह धंधा अब बंद होने की कगार पर पहुंच चुका है.

सूने पड़े धोबी घाट
सूने पड़े धोबी घाट

इंदौर का करीब 200 साल पुराना छावनी धोबी घाट इन दिनों अपनी दुर्दशा की गवाही खुद दे रहा है. लॉकडाउन के पहले तक यहां हर समय 300 से 400 धोबी 26 पंक्तियों में दिन भर में हजारों कपड़े धोते थे, लेकिन कोरोना संक्रमण के खतरे की वजह से चार महीनों से यहां इसी तरह सन्नाटा पसरा है. लॉकडाउन खुलने के बाद यहां धोबी रोज आते तो हैं, लेकिन कपड़े धोने नहीं बल्कि अपनी-अपनी मशीनें और सामान की देखभाल के लिए. क्योंकि इन लोगों के पास काम तो बचा नहीं है.

लॉकडाउन से बर्बाद हुआ लॉन्ड्री का काम

कपड़े धुलने का काम फिलहाल बंद है

धोबी घाटों पर शहर के मुख्य व्यवसायिक क्षेत्र सरवटे बस स्टैंड, एमजी रोड, आरएनटी मार्ग, रेलवे स्टेशन और सियागंज समेत अन्य इलाकों के होटलों के कपड़े धुलते थे. इसके अलावा होटल में ठहरने वाले ग्राहक भी धोबियों के मुख्य ग्राहक होते थे. हालांकि अब न केवल शहर के तमाम होटल, बल्कि अन्य व्यवसायिक प्रतिष्ठान भी बंद पड़े हैं. जिससे धोबियों के पास लॉकडाउन खुलने के बाद भी कोई काम नहीं आ रहा है. फिलहाल शहर के कुछ अस्पतालों के इक्का-दुक्का जो भी कपड़े आ रहे हैं, उनसे धोबियों को अपना घर चलाना मुश्किल हो रहा है. लिहाजा इन्हें अपने रोजगार का कोई भी विकल्प नजर नहीं आ रहा.

संक्रमण की आशंका से उठा भरोसा

लॉन्ड्री से जुड़े पारंपरिक मजदूरों की सबसे बड़ी परेशानी ये है कि, जो कपड़े वे घर-घर से धोने के लिए लाते थे, उन घरों का ही भरोसा अब धोबियों पर से उठ चुका है. ग्राहकों का भी सामान्य दृष्टिकोण है कि, घर-घर कपड़े इकट्ठे करने जाने वाले धोबी संक्रमण फैला सकते हैं. लिहाजा धोबियों के घरेलू ग्राहकों ने भी उनसे किनारा कर लिया. इन हालातों में जिन धोबियों ने आधुनिक तरीके से कपड़े धोने और प्रेस आदि करने की मशीनें खरीद रखी थी. उन पर भी अब ताला डल चुका है. जिन लोगों ने इन मशीनों के लिए लोन लिया था, वो अब मशीनों की ईएमआई चुकाने की स्थिति में नहीं हैं.

एक रस्सी पर 10 बार सूखते थे कपड़े
छावनी धोबी घाट के छोटू कनौजिया बताते हैं कि, लॉकडाउन के पहले यहां एक एक रस्सी पर दिन भर में दस- दस कपड़े सूखते थे. जो धोबी सुबह 6 बजे से कपड़े धोने आते थे, उनका काम शाम को सात बजे तक भी खत्म नहीं होता था. दिन भर में हजारों कपड़े धुलते थे और सभी लोग अपने- अपने काम को लेकर खुश थे. लेकिन अब ना कोई कामकाज बचा है, ना ही ग्राहकों का भरोसा.

बिना काम के आ गए हजारों के बिजली बिल
स्थानीय धोबी रंजीत का कहना है कि, काम धंधा बंद होने से घर परिवार का पेट पालना मुश्किल हो गया है. उस पर बिजली के बिलों की दोहरी मार पड़ी है. बीते चार महीने से ना तो मशीनें चली ना कपड़े धोए गए. फिर भी बिजली विभाग ने अनुमानित बिल हजारों के भेज दिए हैं. खाने को ही पैसा नहीं हैं, तो बिजली के बिल भरने का सवाल ही नहीं उठता है. यह स्थिति केवल इंदौर के छावनी धोबी घाट की नहीं है. बल्कि कमोबेश शहर के सभी धोबीघाटों का यही हाल. जहां सुर्ख सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता. लॉकडाउन के बाद चौपट हुए धंधे से धोबीघाटों पर काम करने वाले लोगों की पहले से ही कमर टूट चुकी है. अगर कोरोना का कहर जल्द कम नहीं हुआ, तो हालात और बिगड़ सकते हैं.

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