ईटीवी भारत डेस्क : संत कबीर दास के जन्म के संदर्भ में निश्चत रूप से कुछ कहना संभव नहीं है. मान्यता के अनुसार ज्येष्ठ मास पूर्णिमा को कबीर जंयती के रूप में मनाया जाता है. मान्यता के अनुसार के संत कबीर ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन काशी में लहरतारा तलाब के कमल पुष्प पर अपने पालक माता-पिता नीरू और नीमा को मिले थे. तब से इस दिन को कबीर जयंती के रूप में मनाया जाता है. कबीर दास का भक्ति आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन की वाणी सिक्खों के धार्मिक ग्रंथ श्री गुरू ग्रंथ साहिब में भी दर्ज हैं. संत कबीर दास जी ने अपने दोहों के माध्यम से जीवन और संसार का सार समझाया है. उन का भक्ति आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन की वाणी सिक्खों के धार्मिक ग्रंथ श्री गुरू ग्रंथ साहिब में भी दर्ज हैं. यहां कबीर के कुछ प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन दोहों के माध्यम से कबीर दास जी ने जिंदगी जीने का तरीका और सलीका बताया है.
जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम. ते नर या संसार में, उपजी भए बेकाम.
जिनके ह्रदय में न तो प्यार है और न प्रेम का स्वाद तथा जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता, वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न होकर भी व्यर्थ हैं. प्रेम जीवन की सार्थकता है. प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है.
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इस तन का दीवा करो, बाती मेल्यूं जीव. लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव.
इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूं और रक्त से तेल की तरह सींचूं, इस तरह दीपक जलाकर भी न जाने कब मैं अपने इष्ट के दर्शन कर पाऊंगा?
नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ. ना हौं देखूं और को ना तुझ देखन देऊं.
हे भगवन, आप इन दो नेत्रों से होते हुए मेरे भीतर आ जाइए और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं! फिर न तो मैं किसी दूसरे को देखूं और न ही आप को देखने दूं!
कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास. समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूंद की आस.
कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास-प्यास रटती रहती है. स्वाति नक्षत्र की बूंद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है. हमारे मन में जो पाने की इच्छा है, जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सबकुछ तुच्छ और नीरस है.
सातों सबद जू बाजते, घरि-घरि होते राग. ते मंदिर खाली परे, बैसन लागे काग.
कबीर कहते हैं कि जिन घरों में मंगलगीत गूंजते थे, पल-पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं, उन पर कौए बैठने लगे हैं. जहां खुशियां थी, वहां गम छा जाता है, जहां हर्ष था वहां विषाद का जमावड़ा है. इस संसार में हमेशा समय एक सा नहीं रहता.
कबीर कहा गरबियो, ऊंचे देखि अवास. काल्हि परयो भू लेटना ऊपरि जामे घास.
कबीर कहते हैं कि ऊंचे-ऊंचे भवनों को देखकर क्या अभिमान करते हो! कल-परसों में ये ऊंचाइयां और हम सब धरती में समां जाएंगे, ध्वस्त हो जाएंगे और उस पर घास उगने लगेगी! इसलिए कभी भी गर्व नहीं करना चाहिए.
जांमण मरण बिचारि करि, कूड़े काम निबारि. जिनि पंथूं तुझ चालणा, सोई पंथ संवारि.
जन्म-मरण का विचार करके, बुरे कर्मों को छोड़ दो. जिस मार्ग पर तुम्हें चलना है, जो तुम्हारा लक्ष्य है, उसी मार्ग का स्मरण करो, उसे ही याद रखो और उसे ही सुन्दर संवारने का प्रयत्न करना चाहिए.
बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत. आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत.
बिना रखवाले के चिड़ियों ने खेत की फसल को चुग लिया, यदि सावधान हो जाएं तो जो फसल अब भी बची है, उसे बचा सकते हैं! ठीक उसी तरह जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गवां देता है, यदि हम जागरूक रहें, सावधानी बरतें तो कितने ही नुकसान से बच सकते हैं.
कबीर देवल ढहि पड़या, ईंट भई सेंवार. करी चिजारा सौं प्रीतड़ी, ज्यूं ढहे न दूजी बार.
कबीर कहते हैं शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया है, उसकी ईंट-ईंट अर्थात शरीर के अंगों पर काई जम गई है. इस देवालय को बनाने वाले परमात्मा से प्रेम करो जिससे अगली बार यह देवालय नष्ट न हो.
कबीर यह तनु जात है, सकै तो लेहू बहोरि. नंगे हाथूं ते गए, जिनके लाख करोडि.
यह शरीर नष्ट होने वाला है, हो सके तो अब भी संभल जाओ! जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी, वे भी यहां से खाली हाथ ही गए हैं, इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहें, कुछ सार्थक और भले काम भी कर लें.
कबीर नाव जर्जरी, कूड़े खेवनहार. हलके-हलके तिरि गए, बूड़े तिनि सर भार.
कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी-फूटी और जर्जर है, जो मोह-माया, वासनाओं का बोझ लेकर उसे खेने का प्रयास करते हैं, वो संसार सागर में उलझ कर डूब जाते हैं, पर जो इस बोझ से मुक्त हैं, हलके हैं, वे तर जाते हैं और भव सागर में डूबने से बच जाते हैं.
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