इंदौर। देश का संविधान भले संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर की धरोहर हो, लेकिन अंबेडकर की जन्मस्थली महू में एक खास कुर्सी डॉ आंबेडकर की धरोहर है. दरअसल 1941 में जब डॉ अंबेडकर महू आए थे तब वे इसी कुर्सी पर बैठे थे, लिहाजा उनकी इस कुर्सी को उनके अनुयायी तीसरी पीढ़ी में भी अंबेडकर की विरासत मानकर सेवा और सत्कार करते हुए सहेज रहे हैं.(dr bhimrao ambedkar chair worshiping in mhow)
महू के लोगों का प्रेम देख खुश हुए थे अंबेडकर: डॉ अंबेडकर अपने जन्म के बाद अपनी जन्मस्थली पर नहीं आए, लेकिन 1941 में इंदौर रियासत के होलकर महाराज के अनुरोध पर डॉ अंबेडकर ने उनका एक केस लड़ा था, जिसके चलते वह इंदौर आए थे. केस जीतने के बाद जब महू में उनके अनुयायियों को पता चला कि डॉक्टर अंबेडकर इंदौर आए हुए हैं तो वह महू से इंदौर उन्हें उनके जन्मस्थान महू ले जाने के लिए पहुंच गए. जब डॉक्टर अंबेडकर ने महू के लोगों का उनके प्रति प्रेम देखा तो वह खुश हो गए और उनके साथ महू चलने के लिए तैयार हो गए.
कुर्सी बनी अंबेडकर की विरासत: डॉ अंबेडकर जब महू पहुंचे तो उनके जन्मस्थान पर एक जर्जर मकान था, लिहाजा वे महू के चंद्रोदय वाचनालय पहुंचे. वाचनालय में अंबेडकर के अनुयायियों ने एकत्र होकर उनका स्वागत किया था और यहां एक छोटी सी अंबेडकर की सभा हुई. इस सभा के दौरान डॉ अंबेडकर जिस कुर्सी पर बैठे थे, वह कुर्सी उनके अनुयायियों के लिए अंबेडकर की विरासत बन गई.
कुर्सी और अंबेडकर की एक साथ होती है पूजा: बाद में डॉ अंबेडकर के अनुयायियों ने चंद्रोदय वाचनालय को बौद्ध विहार के रूप में विकसित कर दिया, जहां भगवान गौतम बुद्ध की मूर्ति के साथ ही कुर्सी की स्थापना भी की गई. आज इस कुर्सी पर डॉ अंबेडकर बेडकर की तस्वीर रखी गई है, जहां पर भगवान गौतम बुध के साथ कुर्सी और अंबेडकर की पूजा भी होती है.
दूर-दूर से कुर्सी देखने आते हैं लोग: अंबेडकर जयंती पर दूर-दूर से जो लोग उनके स्मारक पर पहुंचते हैं, वह अंबेडकर की कुर्सी देखने भी इस चंद्रोदय वाचनालय में जरूर आते हैं. इस कुर्सी को सहेजने वाले रतन करडक और सुरेश हिंगवे बताते हैं कि 1941 के दौरान जो लोग डॉक्टर अंबेडकर के साथ मौजूद थे, उनके बच्चे और बच्चों के बच्चे यानी कि यह तीसरी पीढ़ी है जो डॉ आंबेडकर की कुर्सी को उनकी विरासत मांग कर सहेज रही है.