अजमेर/भोपाल। 1979 में एक फिल्म आई थी नाम था जनता हवलदार इस फिल्म के राजेश खन्ना इसके हीरो थे. इस फिल्म में गरीब, बेसहारा लोगों की मजबूरी की दिखाया गया था. जनता हवलदार यानि ऐसी जनता जो सियायत और रसूखदारों की हवलदारी करती है. ऐसी जनता जो खुद कमा कर हमारा और आपका पेट भरती है. वो जनता जो तपती धूम में खुद को जलाती है और आपके चेहरे का रंग निखारती है, लेकिन जब अकाल, सूखा महामारी किसी रास्ते देश में दस्तक देती है तो इसी हवलदार जनता के लिए खुद और अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल हो जाता है. राजेश खन्ना की इस फिल्म को 50 साल से ज्यादा हो गए है लेकिन अफसोस ये जनता आज भी मानो हवालदार ही है.
- सैकड़ों किलोमीटर पैदल सफर कर रहे हैं मजदूर
- लॉकडाउन के बाद मजदूरों की जिंदगी पर संकट
- मजदूर खुद को घर पहुंचाने की लगा रहे हैं गुहार
- काफिलों में महिलाए बच्चे बुजुर्ग भी शामिल
पाली जोधपुर में रोजगार की तलाश में आए मध्यप्रदेश के सैकड़ों मजदूर फंसे हुए हैं. सभी मजदूरी करते हैं, खेतों में काम करके अपना और अपने परिवार का पालन करते हैं. लेकिन लॉकडाउन लगने की वजह से इनकी जिंदगी बदल गई है. हालत ऐसे की खाने-पीने के लाले पड़ रहे हैं. काम मिल नहीं रहा है और जमापूंजी भी खत्म हो गई है. मकान मालिक किराया मांग रहा है.
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हर दिन मजदूर, किसान और श्रमिकों के काफिले सड़कों पर चलते नजर आ रहे हैं. पैदल, भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, इसमें महिला बच्चे बुजुर्ग सभी शामिल हैं. जहां रात वहीं आशियाना बना लेते हैं और फिर निकल पड़ते हैं. हर दिन हजारों सैकड़ों मजूदर सैकड़ों किलोमीटर का सफर कर रहे हैं.
इन काफिलों काफिलों में कई ऐसी महिलाएं है जिनके छोटे-छोटे बच्चे हैं. बच्चों के खाने का इंतजाम नहीं हो पा रहा है. कुछ बुजुर्ग भी इन काफिलों में शामिल है. काम बंद होने की वजह से अब यह राजस्थान के जोधपुर पाली से मध्यप्रदेश के लिए अपने घर अपने शहर जाने के लिए निकल पड़े हैं. पैदल ही खेत, जंगल और सड़कों के रास्ते.
अजमेर के रास्ते मध्यप्रदेश जा रहे कुछ परिवारों से हम मिले, हाल जाना तो मजदूर रो पड़े. इन लोगों में सरकार के खिलाफ रोष भी दिखा. इन लोगों का कहना है कि सरकार को हम चुनते हैं लेकिन जब हम पर कोई संकट आता है तो कोई ध्यान नहीं देता फिर ऐसी सरकार बनाने का क्या मतलब.
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पिछले 12 दिनों से ये लोग पैदल चलकर 300 किलोमीटर से ज्यादा सफर तय कर चुके हैं. सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि उन्हें भी उनके घर तक सरकार को पहुंचाना चाहिए. इन लोगों का कहना है कि, हम देश के साथ हैं लेकिन हम भूखे मर रहे हैं. हमारे बच्चे तड़प रहे हैं जो हमसे देखा नहीं जा रहा है.
अच्छा होता अगर सरकार लॉकडाउन लगाने से पहले हमें हमारे घर तक पहुंचा देती. लेकिन हमारी कोई सुनन वाला नहीं है. हम मरे या जिए या फिर भूखों मरें. इन लोगों की हालत देख कर याकिनन यह सवाल मन में कौंधता है कि, आखिर जब सरकारें विदेश से अपने लोगों की वतन वापसी करा सकती है, छात्रों को उनके घर तक पहुंचाया जा रहा है तो फिर इन मजदूर, गरीब लोगों के साथ यह भेदभाव नहीं तो और इसे क्या कहे.
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क्या यह सिर्फ इसलिए क्योंकि इनके पास पैसे नहीं हैं गरीब हैं., क्या इस लिए क्योंकि ये अपनी आवाज नहीं उठा सकते या फिर इस लिए कि, इनसे सियासतदानों को कोई फर्क नहीं पड़ता. क्यों ऐसा भेदभाव? क्या लॉकडाउन सिर्फ इन गरीब परिवारों के लिए है जो अपनी दिहाड़ी से अपना और अपने परिवार का पेट भरते हैं.
सिर पर भारी भरकम बोरी, गोद में मासूम बच्चा, तपती दोपहरी, नंगे पैर बस चले जा रहे हैं...चले जा रहे हैं. पैदल पलायन कर रहे इन मजूदरों के पांव जवाब दे रहे हैं, पैरों के तलवे घिस गए हैं, लड़खड़ाते कदम तपती सड़कों पर नहीं रुक रहे है लेकिन, सरकारें कहती हैं सब ठीक है. मां की छाती का दूध सूख गया है, बच्चे भूख से तड़प रहे हैं रो रहे हैं...लेकिन सरकारें कहती हैं सब ठीक है. दूसरे देशों से लोगों की वतन वापसी हो गई. कोटा के कोचिंग स्टूडेंस अपने-अपने घर पहुंच रहे हैं...लेकिन जब बात इन गरीबों की आती है तो सरकारें करती हैं सब ठीक है...