रांची: 15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया झारखंड. एक ऐसा प्रदेश जहां की राजनीति हमेशा से आदिवासियों के इर्द-गिर्द घूमती रही है. अलग राज्य के समय से चला आ रहा जल, जंगल और जमीन का नारा आज भी जीवित है. जल, जंगल और जमीन की रक्षा के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकने का काम किया जाता रहा है, जिसके कारण राज्य में हमेशा राजनीतिक अस्थिरता रही है (Political instability in Jharkhand) और विकास के काम ठप रहे हैं. यही वजह है कि चाहे संथाल का इलाका हो या कोल्हान या दक्षिण छोटानागपुर क्षेत्र यहां रहने वाले आदिवासी समाज आज भी अपने आपको ठगा महसूस कर रहे हैं.
डोमिसाइल के नाम पर होती रही राजनीति: आर्थिक सामाजिक पिछड़ापन को दूर करने के लिए झारखंड के सभी 81 विधानसभा क्षेत्रों में से 28 एसटी के रिजर्व रखा गया है. इसके पीछे संवैधानिक सोच यही है कि इन क्षेत्रों का विकास करने में अगर इसी समाज के लोग निर्वाचित होकर आते हैं तो ज्यादा बेहतर होगा. कोई भेदभाव नहीं होगी, मगर सच्चाई यह है कि राज्य गठन के बाद से डोमिसाइल के नाम पर चली राजनीति ने इन क्षेत्रों को भी विकास से दूर कर दिया. इस मुद्दे पर सरकारें बनती बिगड़ती रही हैं, डोमिसाइल के मुद्दे पर राज्य गठन के बाद से ही आंदोलन होते रहे हैं. इसी मुद्दे पर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अर्जुन मुंडा की सरकार गिरा दी थी. वर्तमान हेमंत सोरेन सरकार ने 1932 के खतियान आधारित झारखंडी पहचान का फैसला लेकर इस मुद्दे को झारखंड की राजनीति में सुलगा कर रख दी.
नेता प्रतिपक्ष विहीन झारखंड विधानसभा: झारखंड गठन के बाद यह पहला मौका है जब झारखंड विधानसभा नेता प्रतिपक्ष विहीन है. राजनीतिक कारणों से विवाद की भेंट चढ़ा यह मुद्दा स्पीकर कोर्ट में लंबी सुनवाई के बाद फैसले के लिए सुरक्षित है. यही वजह है कि पांचवीं झारखंड विधानसभा के आधा से अधिक कार्यकाल बीत जाने के बाद भी नेता प्रतिपक्ष के बगैर सदन की कार्यवाही चलती रही है. दरअसल जेवीएम से बीजेपी में मर्ज करने के बाद बाबूलाल मरांडी को नेता प्रतिपक्ष भारतीय जनता पार्टी ने नामित किया था, जिसपर आपत्ति जताते हुए सत्तापक्ष के कुछ विधायकों ने इसे दल बदल मानते हुए स्पीकर कोर्ट में सदस्यता रद्द करने की मांग कर रखी है.
राजनीतिक अस्थिरता का दंश झेलता रहा झारखंड: झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता का आलम शुरू से बना रहा है. 15 नवंबर 2000 को जब झारखंड बना तो भारतीय जनता पार्टी ने बाबूलाल मरांडी को कमान सौंपा. मगर बाबूलाल मरांडी की भी सरकार सिर्फ और सिर्फ 28 महीने के भीतर ही डोमिसाइल के कारण चली गई. 2005 में विधानसभा का जब पहला चुनाव हुआ तो अर्जुन मुंडा के बाद शिबू सोरेन राज्य के तीसरे मुख्यमंत्री बने मगर जब सदन में बहुमत साबित करने की बात आई तो यूपीए में शामिल कमलेश सिंह और जोबा माझी ने किनारा कर लिया और 10 दिन के भीतर ही शिबू सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा.
राज्य में चौथी सरकार अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में निर्दलीयों के सहयोग से बनी मगर इसका भी कार्यकाल 14 सितंबर 2006 तक ही रहा. उसके बाद 18 सितंबर 2006 को निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा के नेतृत्व में राज्य में नई सरकार बनी. एक निर्दलीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में झारखंड में यह पहली सरकार थी जिसके साथ समर्थन झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस का था, मगर यह सरकार 2 वर्ष का कार्यकाल पूरा करते-करते अल्पमत में आ गई. तब छठी सरकार कांग्रेस ने राजद और निर्दलीयों को मिलाकर शिबू सोरेन का साथ दिया और 27 अगस्त 2008 को शिबू सोरेन झारखंड के छठे मुख्यमंत्री बन गए. बतौर मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की यह दूसरी पारी थी.
27 अगस्त 2008 से 12 जनवरी 2009 की तारीख आते-आते शिबू सोरेन को फिर कुर्सी गंवानी पड़ी क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए तमाड़ विधानसभा उपचुनाव में वे हार गए. वक्त के साथ झारखंड की राजनीति भी परिपक्व होने लगी और यहां की जनता ने 2014 के विधानसभा चुनाव में पहली बार रघुवर दास के रूप में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री को राज्य की गद्दी पर बिठाया. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 37 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और आजसू को इस विधानसभा चुनाव में 5 सीटें मिली थी. रघुवर दास राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने जिन्होंने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया. मगर 2019 के विधानसभा चुनाव में रघुवर दास के नेतृत्व में झारखंड बीजेपी का 65 पार का नारा काम नहीं आया. राजनीतिक द्वंद में अपनी ही सरकार के मंत्री रहे निर्दलीय सरयू राय से रघुवर दास को हार का सामना करना पड़ा जो राजनीतिक रूप से उस समय से अब तक सुर्खियां बटोर रही है.
हेमंत सोरेन के नेतृत्व में मौजूदा विधानसभा चुनाव में यूपीए को स्पष्ट बहुमत मिला और हेमंत सोरेन सरकार तीन वर्ष का कार्यकाल अब पूरा करने जा रही है. इन सबके बीच ऑफिस ऑफ प्रॉफिट मामले में फंसे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सरकार को लेकर अटकलें आज भी राजनीतिक गलियारों में घूम रही है. सरकार के भविष्य को लेकर जारी कयास ने खुब राजनीतिक सुर्खियां बटोरी है. आज भी राजभवन के फैसले का इंतजार किया जा रहा है. इस मामले में झामुमो ने चुनाव आयोग और राजभवन पर लगातार पत्राचार कर दवाब के साथ पॉलिटिकल मैसेज देने में जुटी है कि गैरभाजपाई सरकार को किस तरह तंग किया जा रहा है. बहरहाल राजनीतिक उठापटक के बीच झारखंड में समय के साथ पॉलिटिकल मैच्योरिटी की कमी देखी जा रही है जिस वजह से विकास की रफ्तार कहीं ना कहीं प्रभावित होता है.