रांचीः झारखंड में 32 जनजातीय भाषा है जिनके अस्तित्व पर संकट है. इन्हें संरक्षित करने के लिए इन दिनों डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान प्रयास कर रहा है. संस्थान द्वारा पहली बार कोरबा, सबर और परहिया जैसी जनजातीय भाषाओं के व्याकरण से लेकर गद्य-पद्य की पुस्तकें प्रकाशित करने की तैयारी की गयी है.
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झारखंड में बदलते समय के साथ आदिम जनजातियों के द्वारा बोली जाने वाली पारंपरिक भाषा और बोली भी लुप्तप्राय होती जा रही है. जिन आदिम जनजाति से जुड़ी भाषा और बोली विलुप्ति के कगार पर है. उसमें असुर, सौरिया, पहाड़िया, परहिया, कोरबा, बिरजिया, बिरहोर और सबर जैसी भाषा शामिल है. इन्हें संरक्षित करने के लिए इन दिनों डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान प्रयास कर रहा है.
इस संस्थान द्वारा पहली बार कोरबा, सबर और पहड़िया जैसी जनजातीय भाषाओं के व्याकरण से लेकर गद्य पद्य की पुस्तकें प्रकाशित करने की तैयारी की गयी है. इसके लिए जेसीईआरटी को पुस्तक छापने की जिम्मेदारी दी गयी है. संस्थान के निदेशक रणेंद्र कुमार ने बताया कि इससे पूर्व पांच आदिम जनजातीय भाषाओं में प्रकाशित पुस्तक का लोकार्पण 15 नवंबर को राज्यपाल और मुख्यमंत्री के हाथों किया गया था. इसमें शेष बचे तीन आदिम जनजाति भाषा की पुस्तकें तैयार की जा रही है, जिसके लिए विशेष तौर पर लोहरदगा के एक शिक्षक को लगाया गया है. ये शिक्षक आदिवासी समाज में प्रचलित वस्तुओं का रेखाचित्र बनाकर किताबों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचाने का काम करेंगे.
लुप्त होती भाषाओँ को बचाना चुनौतीः यूनिसेफ के रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में करीब 2000 भाषा और बोली ऐसी हैं जो विलुप्त हो रही हैं. कहा जाता है कि किसी भी समाज के लिए भाषा वहां उसके लिए शरीर रुपी रीढ है. मगर यदि यह लुप्त हो जाय तो उस समाज का क्या होगा यह कल्पना की जा सकती है. लुप्त हो रहे भाषा और बोली भारत सहित पूरी दुनिया के लिए आज के समय विशेष चिंता का कारण है.
एक रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा विलुप्त हो रहे भाषा में भारत दुनिया में नंबर वन पर है उसी तरह दूसरे नंबर पर अमेरिका और तीसरे नंबर पर इंडोनेशिया है. एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 50 साल में भारत की करीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गयी हैं. विलुप्त हो रहे भाषाओं से झारखंड अछुता नहीं है. यहां भी जनजातीय क्षेत्रों में बोली जानेवाली कई भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं. इन्हें संरक्षित करने का प्रयास झारखंड के ऐसे लोगों ने किया है जो ना तो साहित्य क्षेत्र से जुड़े हैं और ना ही कोई विशेष योग्यता धारी हैं. ग्रामीण परिवेश में जीवन यापन करते हुए इन लोगों ने ना केवल चित्रावली आधारित किताब तैयार किया है बल्कि इन लुप्त होते भाषाओं का व्याकरण की रचना कर एक अभिनव प्रयोग कर डाला है.