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आखिर, माओवादियों को क्यों पसंद था बूढ़ा पहाड़, पढ़ें ये रिपोर्ट

बूढ़ा पहाड़, इस नाम से आज हर कोई परिचित है. नक्सली गतिविधियों के कारण एक अरसे से ये हमेशा चर्चा के केंद्र में रहा. लेकिन ऑपरेशन ऑक्टोपस के बाद 52 वर्ग किलोमीटर में फैला बूढ़ा पहाड़ आज माओवादियों के चंगुल से आजाद है. लेकिन नक्सलियों को बूढ़ा पहाड़ क्यों पसंद था, जानिए ईटीवी भारत की इस खास रिपोर्ट में.

Know why Maoist was chosen Budha Pahad in Jharkhand for Naxalites camps
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Published : Jul 25, 2023, 2:21 PM IST

Updated : Jul 25, 2023, 5:30 PM IST

पलामूः बूढ़ा पहाड़ का इलाका झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ के माओवादियों का ट्रेनिंग कैंप रहा है. यह इलाका करीब 52 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और इसकी सीमा झारखंड के लातेहार, गढ़वा जिला और छत्तीसगढ़ के बलरामपुर से सटा हुआ है. तीन दशक तक बूढ़ा पहाड़ और उसके आसपास के इलाकों में नक्सलियों की तूती बलती रही है.

इसे भी पढ़ें- बूढ़ा पहाड़ के ग्रामीणों की बदल रही है जिंदगी, गांव में पहुंचने लगी विकास की किरण

सितंबर अक्टूबर 2022 में बूढ़ा पहाड़ पर माओवादियों के खिलाफ अभियान ऑक्टोपस चलाया गया. जिसके बाद माओवादी बूढ़ा पहाड़ को छोड़ कर भाग गए हैं. आज बूढ़ा पहाड़ पर सुरक्षाबलों का कब्जा हो गया है. माओवादियों के पीपुल्स लिबरेशन ऑफ गुरिल्ला आर्मी (PLGA) का मुख्यालय कभी बूढ़ा पहाड़ हुआ करता था. बूढ़ा पहाड़ पर ही माओवादियों के कैडरों को गुरिल्ला वार की ट्रेनिंग दी जाती थी. यह इलाका नक्सलियों के छकरबंधा से सारंडा कॉरिडोर के बीच की कड़ी थी. सारंडा का इलाका माओवादियों के ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो का मुख्यालय, जबकि बूढ़ा पहाड़ माओवादियों के बिहार झारखंड उत्तरी छत्तीसगढ़ सीमांत एरिया का मुख्यालय था.

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बूढ़ा पहाड़ पर सुरक्षाबल

बूढ़ा पहाड़ को माओवादियों ने क्यों चुना था? बूढ़ा पहाड़ का करीब 50 प्रतिशत क्षेत्र पलामू टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आता है. पूरा इलाका घने जंगल और पहाड़ियों की श्रृंखला है. इस इलाके में आदिम जनजाति समुदाय की बहुलता है. 2011-12 तक लातेहार का बूढ़ा पहाड़ माओवादियों का ट्रेनिंग कैंप और यूनिफाइड कमांड हुआ करता था. सरयू के इलाके में सुरक्षाबलों की घेराबंदी के बाद माओवादी वहां से निकल कर बूढ़ा पहाड़ को अपना ट्रेनिंग कैंप और यूनिफाइड कमांड बनाया था.

यूनिफाइड कमांड बनाने में माओवादियों के पोलित ब्यूरो सदस्य रहे देव कुमार सिंह उर्फ अरविंद की भूमिका रही थी. 2018 में अरविंद की मौत के बाद तेलंगाना के रहने वाले सुधाकरण ने बूढ़ा पहाड़ की कमान संभाली थी. 2020-21 में सुधाकरण ने पूरी टीम के साथ तेलंगाना में आत्मसमर्पण कर दिया था. सुधाकरण के बाद मिथिलेश मेहता उर्फ बनबिहारी के पास बूढ़ा पहाड़ की कमान थी. 2022 में मिथिलेश मेहता के गिरफ्तार होने के बाद सौरव उर्फ मारकस बाबा को माओवादियों ने बूढ़ा पहाड़ का नया कमांडर बनाया. कुछ दिनों पहले सौरव उर्फ मारकस ने बिहार के इलाके में आत्मसमर्पण कर दिया है.

बूढ़ा पहाड़ पर माओवादियों ने विकसित की थी कई तकनीकः बूढ़ा पहाड़ से ही माओवादियों ने लैंडमाइंस की कई तकनीक को विकसित किया था. इसी इलाके से माओवादियों ने झारखंड और बिहार में कई बड़े नक्सल हमले को अंजाम दिया. बूढ़ा पहाड़ पर ही माओवादियों ने तीर बम, सिरिंज लैंडमाइंस, बूबी ट्रैप, लड्डू बम और लैंडमाइंस की अन्य तकनीक को विकसित किया है. बूढ़ा पहाड़ के इलाके से पिछले दो दशक में माओवादियों ने 400 से भी अधिक छोटे बड़े हमले को अंजाम दिया.

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दुर्गम पहाड़ की श्रृंखला है बूढा पहाड़

दुर्गम है बूढ़ा पहाड़ः बूढ़ा पहाड़ पर जाने के लिए झारखंड के गढ़वा की तरफ से भंडरिया से बड़गड़ तक कच्ची सड़क है. उसके बाद करीब 40 किलोमीटर तक कच्ची सड़क पर सफर तय करना होता है. फिलहाल कच्ची सड़क नहीं है तो 7 से 8 किलोमीटर पैदल सफर तय करना पड़ता था. लातेहार की तरफ से बारेसाढ़, छिपादोहार, महुआडांड, गारु से कच्चा रास्ता है. करीब 15 से 20 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद बूढ़ा पहाड़ पर जाने के लिए 5 से 6 किलोमीटर पैदल सफर और करना होता है.

पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के बलरामपुर और सामरी से भुताही मोड़ तक पक्की सड़क है, उसके बाद पांच से छह किलोमीटर तक पैदल सफर तय करके बूढ़ पहाड़ जाया जा सकता है. बूढ़ा पहाड़ और उसके आसपास के इलाके में 12 गांव मौजूद हैं. बूढ़ा पहाड़ पर जाने के लिए कोयल, बूढ़ा और करीब आधा दर्जन छोटे नदियों को पार करना पड़ता है. बूढ़ा पहाड़ की दुर्गम और जटिल भौगोलिक स्थिति नक्सली गतिविधि के लिए काफी मुफीद रही. यही वजह है कि बूढ़ा पहाल नक्लियों का लांचिग पैड बन गया जो एक समय में अभेद दुर्ग बन गया था.

इसे भी पढ़ें- माओवादियों के रेड कॉरिडोर पर जवानों की निगहबानीः बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से टूटा नेटवर्क

इसे भी पढ़ें- मिशन बूढ़ा पहाड़: कैम्प और कम्युनिकेशन को मजबूत कर रहे सुरक्षाबल, टॉप पर फहराया तिरंगा

पलामूः बूढ़ा पहाड़ का इलाका झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ के माओवादियों का ट्रेनिंग कैंप रहा है. यह इलाका करीब 52 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और इसकी सीमा झारखंड के लातेहार, गढ़वा जिला और छत्तीसगढ़ के बलरामपुर से सटा हुआ है. तीन दशक तक बूढ़ा पहाड़ और उसके आसपास के इलाकों में नक्सलियों की तूती बलती रही है.

इसे भी पढ़ें- बूढ़ा पहाड़ के ग्रामीणों की बदल रही है जिंदगी, गांव में पहुंचने लगी विकास की किरण

सितंबर अक्टूबर 2022 में बूढ़ा पहाड़ पर माओवादियों के खिलाफ अभियान ऑक्टोपस चलाया गया. जिसके बाद माओवादी बूढ़ा पहाड़ को छोड़ कर भाग गए हैं. आज बूढ़ा पहाड़ पर सुरक्षाबलों का कब्जा हो गया है. माओवादियों के पीपुल्स लिबरेशन ऑफ गुरिल्ला आर्मी (PLGA) का मुख्यालय कभी बूढ़ा पहाड़ हुआ करता था. बूढ़ा पहाड़ पर ही माओवादियों के कैडरों को गुरिल्ला वार की ट्रेनिंग दी जाती थी. यह इलाका नक्सलियों के छकरबंधा से सारंडा कॉरिडोर के बीच की कड़ी थी. सारंडा का इलाका माओवादियों के ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो का मुख्यालय, जबकि बूढ़ा पहाड़ माओवादियों के बिहार झारखंड उत्तरी छत्तीसगढ़ सीमांत एरिया का मुख्यालय था.

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बूढ़ा पहाड़ पर सुरक्षाबल

बूढ़ा पहाड़ को माओवादियों ने क्यों चुना था? बूढ़ा पहाड़ का करीब 50 प्रतिशत क्षेत्र पलामू टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आता है. पूरा इलाका घने जंगल और पहाड़ियों की श्रृंखला है. इस इलाके में आदिम जनजाति समुदाय की बहुलता है. 2011-12 तक लातेहार का बूढ़ा पहाड़ माओवादियों का ट्रेनिंग कैंप और यूनिफाइड कमांड हुआ करता था. सरयू के इलाके में सुरक्षाबलों की घेराबंदी के बाद माओवादी वहां से निकल कर बूढ़ा पहाड़ को अपना ट्रेनिंग कैंप और यूनिफाइड कमांड बनाया था.

यूनिफाइड कमांड बनाने में माओवादियों के पोलित ब्यूरो सदस्य रहे देव कुमार सिंह उर्फ अरविंद की भूमिका रही थी. 2018 में अरविंद की मौत के बाद तेलंगाना के रहने वाले सुधाकरण ने बूढ़ा पहाड़ की कमान संभाली थी. 2020-21 में सुधाकरण ने पूरी टीम के साथ तेलंगाना में आत्मसमर्पण कर दिया था. सुधाकरण के बाद मिथिलेश मेहता उर्फ बनबिहारी के पास बूढ़ा पहाड़ की कमान थी. 2022 में मिथिलेश मेहता के गिरफ्तार होने के बाद सौरव उर्फ मारकस बाबा को माओवादियों ने बूढ़ा पहाड़ का नया कमांडर बनाया. कुछ दिनों पहले सौरव उर्फ मारकस ने बिहार के इलाके में आत्मसमर्पण कर दिया है.

बूढ़ा पहाड़ पर माओवादियों ने विकसित की थी कई तकनीकः बूढ़ा पहाड़ से ही माओवादियों ने लैंडमाइंस की कई तकनीक को विकसित किया था. इसी इलाके से माओवादियों ने झारखंड और बिहार में कई बड़े नक्सल हमले को अंजाम दिया. बूढ़ा पहाड़ पर ही माओवादियों ने तीर बम, सिरिंज लैंडमाइंस, बूबी ट्रैप, लड्डू बम और लैंडमाइंस की अन्य तकनीक को विकसित किया है. बूढ़ा पहाड़ के इलाके से पिछले दो दशक में माओवादियों ने 400 से भी अधिक छोटे बड़े हमले को अंजाम दिया.

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दुर्गम पहाड़ की श्रृंखला है बूढा पहाड़

दुर्गम है बूढ़ा पहाड़ः बूढ़ा पहाड़ पर जाने के लिए झारखंड के गढ़वा की तरफ से भंडरिया से बड़गड़ तक कच्ची सड़क है. उसके बाद करीब 40 किलोमीटर तक कच्ची सड़क पर सफर तय करना होता है. फिलहाल कच्ची सड़क नहीं है तो 7 से 8 किलोमीटर पैदल सफर तय करना पड़ता था. लातेहार की तरफ से बारेसाढ़, छिपादोहार, महुआडांड, गारु से कच्चा रास्ता है. करीब 15 से 20 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद बूढ़ा पहाड़ पर जाने के लिए 5 से 6 किलोमीटर पैदल सफर और करना होता है.

पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के बलरामपुर और सामरी से भुताही मोड़ तक पक्की सड़क है, उसके बाद पांच से छह किलोमीटर तक पैदल सफर तय करके बूढ़ पहाड़ जाया जा सकता है. बूढ़ा पहाड़ और उसके आसपास के इलाके में 12 गांव मौजूद हैं. बूढ़ा पहाड़ पर जाने के लिए कोयल, बूढ़ा और करीब आधा दर्जन छोटे नदियों को पार करना पड़ता है. बूढ़ा पहाड़ की दुर्गम और जटिल भौगोलिक स्थिति नक्सली गतिविधि के लिए काफी मुफीद रही. यही वजह है कि बूढ़ा पहाल नक्लियों का लांचिग पैड बन गया जो एक समय में अभेद दुर्ग बन गया था.

इसे भी पढ़ें- माओवादियों के रेड कॉरिडोर पर जवानों की निगहबानीः बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से टूटा नेटवर्क

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Last Updated : Jul 25, 2023, 5:30 PM IST
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