पलामू: कुछ साल पहले तक किसी का रूप धारण कर सबका मनोरंजन करते कुछ लोग नजर आते थे. पहले मनोरंजन का यह तरीका आम बात थी, लेकिन अब सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा. अब मनोरंजन के तरीके बदल गए हैं. अब रूप धारण कर मनोरंजन करने वाले कम ही नजर आते हैं. कई रूपों को धारण कर लोगों का मनोरंजन करने वाले इन लोगों को बहरूपिया कहते हैं. हालांकि आज यह बहरूपिया कला विलुप्ति की कगार पर पहुंच गया है.
ये भी पढ़ें: परंपरा निभाने पुणे से झारखंड पहुंचे बहरूपिये, रामगढ़ में गली-गली गा रहे राम और श्याम के भजन
आज जमाना फाइव जी का हो गया लोग अब मोबाइल और ओटीटी प्लेफॉर्म पर ही एंटरटेनमेंट का अपना पूरा डोज ले लेते हैं. मनोरंजन का तरीके काफी बदल गया है. ऐसे में अब बहरूपिया कला को जीवित रखने के लिए कुछ लोग जद्दोजहद कर रहे हैं. झारखंड में मध्यप्रदेश के इंदौर से बहरूपिया कलाकारों की एक टोली पहुंची है. जो कई रूपों को धारण कर लोगों का मनोरंजन करने की कोशिश कर रही है.
क्या है बहरूपिया कला?: बहरूपिया कला कब शुरू हुई इसकी कोई वास्तविक जानकारी तो नहीं है. लेकिन यह कला सैकड़ों साल पुरानी मानी जाती है. यह कला मुगल काल से भी पहले की मानी जाती है. राजा महाराजाओं के दौर से ही बहरूपिया कलाकार विभिन्न रूपों को धरकर लोगों का मनोरंजन किया करते थे. कहा जाता है कि बहरूपिया लोगों का मनोरंजन करने के लिए छिप कर तैयार होते थे और शरीर को विभिन्न रंगों से सजाते थे. उस जमाने में बहरूपिए खुद से रंग भी तैयार करते थे, लेकिन अब वे बाजार से रंगों को खरीद रहे हैं. रंगों को छुड़ाने के लिए इनके पास अपनी तकनीक भी है. ये कलाकार पीढ़ दर पीढ़ी अपनी कला एक दूसरे को सौंपते आए हैं. इंदौर के रहने वाले राजेश नाथ बहरूपिया बताते हैं कि वे अपने दादा परदादा से सीखते आ रहे हैं. इंदौर में उनका गांव है जहां 100 से अधिक परिवार बहरूपिया कला से जुड़े हुए हैं.
बहरूपिया कलाकारों के लिए चुनौती भरा है वक्त: राजेश नाथ कहते हैं कि बहरूपिया कलाकारों के लिए यह चुनौती भरा वक्त है. मोबाइल और रिल्स के जमाने में अब इन्हें देखने वाले बेहद कम ही लोग हैं. कई इलाकों में बहरूपियों को लोग शक की नजर से भी देखते हैं. पहले ग्रामीण क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर मेले का आयोजन किया जाता था. इन मेलों में मनोरंजन के लिए बहरूपियों को आमंत्रित किया जाता था. लेकिन अब हालात बदल गए हैं और इन मेलों में भी बहरूपियों को नहीं बुलाया जा रहा है.
प्रीतम नाथ बहरूपिया बताते हैं कि कई इलाकों में दरवाजे से लोग भगा देते हैं. उनकी कला को पूछने वाले बेहद ही कम लोग मिलते हैं. बिहार यूपी के इलाके में जाने के बाद वे थानो में मुसाफिर लिखवाते है, झारखंड में भी वे स्थानीय थाना को सूचना देते हैं. प्रीतम नाथ बताते हैं कि कई बार ऐसा हुआ है कि किसी इलाके में चोरी या छिनतई की घटना होती है वैसे इलाके में जाने में उन्हें परेशानी होती है. कई बार उन्हें पुलिस भी रोक देती है.
दिलीप नाथ बहरूपिया बताते हैं कि उम्मीद के मुताबिक उन्हें आमदनी नहीं हो रही है. बहरूपिया कला उनका पारिवारिक पेशा रहा है, जिस कारण वे इससे जुड़े हैं. इंदौर से झारखंड आने के बाद प्रतिदिन उनका 300 से 400 का खर्च है, लेकिन आमदनी 500 के करीब होती है.