लातेहार: छठ महापर्व अपने साथ खुशहाली लेकर आता है. जो लोग छठ महापर्व करते हैं उनके लिए तो यह त्योहार सुख, शांति और खुशियां लेकर आती ही है. लेकिन छठ व्रत नहीं करने वाले आदिम जनजातियों के लिए भी इस त्योहार का खास महत्व होता है. यह उनके लिए अच्छी आमदनी का माध्यम बनता है.
ये भी पढ़ें: आज से नहाय खाय के साथ महापर्व छठ की शुरुआत, जानें कैसे करें छठी मईया को खुश
छठ महापर्व में बांस से बने सूप का महत्व काफी अधिक माना जाता है. जितने भी लोग छठ व्रत करते हैं, वह भगवान सूर्य को अर्घ्य देने के लिए इन सूपों को जरूर खरीदते हैं. इसी कारण छठ महापर्व के आगमन के साथ ही बांस से बने सूप की मांग काफी अधिक बढ़ जाती है. मांग बढ़ने के कारण सूप की कीमत भी अन्य दिनों की अपेक्षा दोगुनी से भी अधिक हो जाती है.
कीमत बढ़ने से सूप निर्माण कार्य करने वाले आदिम जनजातियों के लोगों को भी काफी अच्छी आमदनी होती है. सूप और दउरा निर्माण कार्य कर अपनी आजीविका चलाने वाले आदिम जनजाति परहिया समुदाय के उमेश परहिया ने बताते हैं कि छठ के समय उन्हें अच्छा फायदा मिलता है. छठ में सूप 110 रुपए से लेकर 120 रुपए प्रति पीस की दर से व्यापारी उनसे खरीद लेते हैं. जबकि अन्य दिनों में मुश्किल से 50 रुपए प्रति पीस ही व्यापारी उनसे खरीदते हैं. छठ आने के बाद उन लोगों की अच्छी कमाई भी हो जाती है.
काफी मेहनत कर बनाते हैं बांस का सूप: बांस का सूप बनाने के लिए आदिम जनजाति के लोगों को काफी मेहनत भी करनी पड़ती है. कलावती बताती हैं कि सूप बनाने के लिए उन्हें जंगल से कच्चा बांस लाना पड़ता है. इसके बाद बांस को छीलकर सुखाया जाता है. अंत में सूप बनाया जाता है. उन्होंने बताया कि एक दिन में लगभग चार से पांच सूप का निर्माण वे लोग कर लेते हैं. छठ का त्योहार आने के बाद सूप की बिक्री काफी अधिक होती है. इसलिए उनके सारे सूप बिक जाते हैं. इससे उन्हें अच्छी आमदनी भी हो जाती है.
आदिम जनजातियों का पारंपरिक व्यवसाय है सूप का निर्माण: बताया जाता है कि सूप निर्माण का कार्य आदिम जनजातियों का पारंपरिक व्यवसाय है. जंगल में निवास करने वाले आदमी जनजाति के लोग जंगल से बांस लाकर सूप, दउरा, झाड़ू समेत अन्य सामान का निर्माण कर अपनी आजीविका चलाते हैं.