नवादा/कोडरमा: बिहार से झारखंड को अलग हुए 21 साल हो गए. दोनों राज्यों के बीच परिसंपत्तियों के साथ-साथ सीमा का बंटवारा हो गया. लेकिन कोडरमा के डोमचांच प्रखंड के सपही से सटे बिहार के बसरौन गांव की किस्मत सीमा रेखा में उलझ गई. गांव में पोल बिहार सरकार ने लगाए हैं तो बिजली आपूर्ति झारखंड सरकार कर रही है. अक्सर प्रशासनिक अमला सीमा विवाद की आड़ लेकर अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करता है. मरम्मत और अन्य सुविधाओं के लिए ग्रामीणों को परेशान होना पड़ रहा है. 21 साल बाद भी यहां बुनियादी सुविधाएं बहाल नहीं हो पाईं हैं. अफसर झांकने भी नहीं आते. बस चुनाव के वक्त यहां के लोगों का लोग हाल पूछते हैं.
स्कूल नहीं आते शिक्षक
दरअसल, इस इलाके से महज 14-15 किलोमीटर की दूरी पर डोमचांच स्थित है. वहीं सरकारी योजनाओं और सुविधाओं का लाभ लेने के लिए इस गांव के लोगों को इसी रास्ते से होकर रजौली अनुमंडल पहुंचने में तकरीबन 70 से 80 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है. इस गांव में एक प्राथमिक स्कूल भी हुआ करता था, जिसका भवन क्षतिग्रस्त हो गया. इसके बाद स्कूल का नया भवन बनवाया गया. स्कूल को प्राथमिक से उत्क्रमित मध्य विद्यालय का दर्जा दे दिया गया,लेकिन शिक्षकों की अनदेखी के कारण इस गांव के तकरीबन दो सौ से ढाई सौ बच्चों की शिक्षा व्यवस्था चौपट है. जो लोग सक्षम हैं वह अपने बच्चों को डोमचांच और आसपास के इलाकों के निजी स्कूलों में भेजते हैं और जो लोग सक्षम नहीं हैं, उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई प्रभावित हो रही है. हाल यह है कि अनदेखी के कारण शिक्षा के इस मंदिर का नजारा किसी गौशाला सा नजर आता है. लोगों की मानें तो स्कूल में शिक्षक कभी गाहे-बगाहे ही पहुंचते हैं और पहुंचे भी तो खानापूर्ति कर चले जाते हैं. लोगों ने बताया कि स्कूल का इस्तेमाल सिर्फ पोलिंग बूथ के रूप में किया जाता है.
झारखंड से बिजली आपूर्ति
स्थानीय लोगों ने बताया कि गांव में विद्युतीकरण के लिए बिहार सरकार की ओर से पोल और तार तो लगा दिए गए हैं लेकिन उसमें करेंट दौड़ाने में बिहार सरकार अब भी विफल रही है. आलम यह है कि इस गांव के लोग बिजली के लिए झारखंड सरकार पर आश्रित हैं और बिहार सरकार के बिजली पोल पर झारखंड सरकार की बिजली दौड़ रही है.
जहां से सड़क मिटती है शुरू हो जाती है बिहार की सीमा
बिहार के नवादा जिले के रजौली अनुमंडल के बसरौन गांव की आबादी करीब 700 है. इस गांव में पहुंचने के लिए एकमात्र पक्की सड़क भी गांव के परिसीमा में दाखिल होने से पहले ही मिट जाती है. कहा जाता है कि जहां सड़क खत्म होती है, वहीं से बिहार की सीमा शुरू हो जाती है. बसरौन गांव में दाखिल होने के बाद सड़क के बाईं ओर का हिस्सा झारखंड का है तो दाहिने तरफ का हिस्सा बिहार का है. यहां के लोग बाजार और कारोबार के लिए पूरी तरह से डोमचांच और कोडरमा पर निर्भर हैं. इस गांव के मतदाता लोकतंत्र के हर महापर्व में बिहार की तरक्की और विकास के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं, लेकिन अपनी तरक्की और विकास के लिए लोग झारखंड सरकार की ओर निहारते रहते हैं.
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जंगल पर आश्रित है जीवन
बसरौन गांव के लोग रोजगार के लिए जंगल पर निर्भर हैं. गांव के लोग जंगल पर ही आश्रित हैं यहां के लोग जंगल से लकड़ी ढिबरा चुनकर लाते हैं और उसे शहर में बेचकर अपने और अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं. बताया जाता हैं कि इस क्षेत्र में माइका का अकूत भंडार है और कभी यहां माइका की दर्जनों खदानें हुआ करती थीं. लेकिन वन अधिनियम लागू होने से माइका की सभी खदानें बंद हो गईं और इस गांव का विकास बी रूक गया. पहले यहां से निकाला गया माइका विदेशों में भेजा जाता था. फिलहाल यह गांव बिहार-झारखंड की सीमा विवाद का दंश झेल रहा है यही कारण हैं कि यहां विकास की किरण नहीं पहुंच पाई है.