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Republic Day Special: आजादी की लड़ाई में झारखंड के इन गुमनाम सिपाहियों की थी अहम भूमिका, महात्मा गांधी के हैं सच्चे अनुयायी

देश की आजादी के लिए जान देने वाले भारत मां के वीर सपूतों की लंबी फेहरिस्त है. स्वतंत्रता के लिए प्राण गंवाने वाले ऐसे योद्धाओं को हम इतिहास में पढ़ते भी हैं लेकिन ऐसे कई सिपाही हैं जिन्हें इतिहास के पन्नों में कम जगह मिली है. ऐसे ही गुमनाम सिपाही हैं टाना भगत. टाना भगत महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी हैं.

Republic Day Special
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Published : Jan 26, 2022, 11:31 AM IST

गुमला: हिंदुस्तान की आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले वीर सपूतों की लंबी फेहरिस्त है और कई हमें इतिहास के किताबों में पढ़ने को भी मिलते हैं. ऐसे कई सिपाही हैं जिन्होंने देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए लड़ाई लड़ी लेकिन वे गुमनाम हैं और इतिहास के पन्नों में उनका जिक्र कम ही मिलता है. ऐसे ही गुमनाम सिपाही हैं टाना भगत. वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी हैं. इतिहास में इन्हें वो जगह नहीं मिली है जिनके वे हकदार हैं.

1912 में शुरू किया था आंदोलन, बाद में गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ेः देश को आजाद कराने के लिए टाना भगतों ने 1912 में आंदोलन शुरू किया था. टाना भगतों में सबसे पहले जिक्र जतरा उरांव का आता है. 1888 में गुमला में जन्मे जतरा उरांव ने जब होश संभाला तब देश में अंग्रेजों का आतंक था. 1912 में उन्होंने शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ठानी. इसके साथ ही पशु बलि, शराब समेत तमाम बुराइयों को छोड़ अलग रास्ते पर चलने का निर्णय लिया. मालगुजारी के खिलाफ जतरा का विद्रोह टाना भगत आंदोलन के रूप में बढ़ने लगा. 1914 में अंग्रेजों ने जतरा को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें डेढ़ साल की सजा दी गई. जेल से छूटने के बाद अचानक जतरा का निधन हो गया लेकिन टाना भगतों का आंदोलन लगातार बढ़ता गया. बाद में टाना भगत गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए.

1942 में टाना भगतों ने पहली बार फहराया था तिरंगाः 1914 में टाना भगतों ने लगान, सरकारी टैक्स देने और कुली के रूप में मजदूरी करने से साफ मना कर दिया था. बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए उलगुलान से प्रेरित होकर खुद को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया था. 1940 में टाना भगत आंदोलनकारियों की बड़ी आबादी गांधीजी के सत्याग्रह से जुड़ी थी. 1942 में लोहरदगा के कुडू थाना में टाना भगतों ने पहली बार तिरंगा फहराया था. अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करने की वजह से टाना भगतों को जेल भी जाना पड़ा था. इसमें 6 टाना भगतों की मौत भी हो गई थी.


हर दिन करते हैं तिरंगे की पूजाः टाना भगतों ने एक अलग संस्कृति को जन्म दिया है. इनके जीवन में खादी का विशेष महत्व है. खादी की टोपी और कुर्ता इनका पहनावा है. टाना भगतों की जिंदगी में झंडा पूजा का बड़ा महत्व है. ये हर दिन चरखा वाले तिरंगा की पूजा करते हैं. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर तिरंगा फहराने से पहले टाना भगत चरखा वाले तिरंगा की पूजा करते हैं. इनके घरों में सालों भर तिरंगा फहरता है. ये महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन का पालन करते हैं और हिंसा से पूरी तरह दूर रहते हैं. सभी टाना भगतों के घर में एक चरखा जरूर होता है जिससे ये सूत काटते हैं. टाना भगत सुबह नहाने के बाद तुलसी में जल डालते हैं और झंडा पूजा करते हैं. इसके बाद ही इनकी दिनचर्या शुरू होती है.

इन्हें क्यों कहते हैं टाना भगतः इतिहासकार डॉक्टर दिवाकर मिंज बताते हैं कि इनके लिए टाना मतलब है टानना यानी खींचना. टाना भगतों की ये सोच रहती है कि जो पिछड़े समुदाय से हैं और जो आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, उन्हें ऊपर टानो. मतलब उन लोगों को ऊपर खींचो और आगे बढ़ने में मदद करो ताकि उनका भी जीवन स्तर सुधर सके. इनके भजन में भी टाना शब्द अधिक प्रयोग होता है.

गुमला: हिंदुस्तान की आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले वीर सपूतों की लंबी फेहरिस्त है और कई हमें इतिहास के किताबों में पढ़ने को भी मिलते हैं. ऐसे कई सिपाही हैं जिन्होंने देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए लड़ाई लड़ी लेकिन वे गुमनाम हैं और इतिहास के पन्नों में उनका जिक्र कम ही मिलता है. ऐसे ही गुमनाम सिपाही हैं टाना भगत. वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी हैं. इतिहास में इन्हें वो जगह नहीं मिली है जिनके वे हकदार हैं.

1912 में शुरू किया था आंदोलन, बाद में गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ेः देश को आजाद कराने के लिए टाना भगतों ने 1912 में आंदोलन शुरू किया था. टाना भगतों में सबसे पहले जिक्र जतरा उरांव का आता है. 1888 में गुमला में जन्मे जतरा उरांव ने जब होश संभाला तब देश में अंग्रेजों का आतंक था. 1912 में उन्होंने शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ठानी. इसके साथ ही पशु बलि, शराब समेत तमाम बुराइयों को छोड़ अलग रास्ते पर चलने का निर्णय लिया. मालगुजारी के खिलाफ जतरा का विद्रोह टाना भगत आंदोलन के रूप में बढ़ने लगा. 1914 में अंग्रेजों ने जतरा को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें डेढ़ साल की सजा दी गई. जेल से छूटने के बाद अचानक जतरा का निधन हो गया लेकिन टाना भगतों का आंदोलन लगातार बढ़ता गया. बाद में टाना भगत गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए.

1942 में टाना भगतों ने पहली बार फहराया था तिरंगाः 1914 में टाना भगतों ने लगान, सरकारी टैक्स देने और कुली के रूप में मजदूरी करने से साफ मना कर दिया था. बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए उलगुलान से प्रेरित होकर खुद को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया था. 1940 में टाना भगत आंदोलनकारियों की बड़ी आबादी गांधीजी के सत्याग्रह से जुड़ी थी. 1942 में लोहरदगा के कुडू थाना में टाना भगतों ने पहली बार तिरंगा फहराया था. अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करने की वजह से टाना भगतों को जेल भी जाना पड़ा था. इसमें 6 टाना भगतों की मौत भी हो गई थी.


हर दिन करते हैं तिरंगे की पूजाः टाना भगतों ने एक अलग संस्कृति को जन्म दिया है. इनके जीवन में खादी का विशेष महत्व है. खादी की टोपी और कुर्ता इनका पहनावा है. टाना भगतों की जिंदगी में झंडा पूजा का बड़ा महत्व है. ये हर दिन चरखा वाले तिरंगा की पूजा करते हैं. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर तिरंगा फहराने से पहले टाना भगत चरखा वाले तिरंगा की पूजा करते हैं. इनके घरों में सालों भर तिरंगा फहरता है. ये महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन का पालन करते हैं और हिंसा से पूरी तरह दूर रहते हैं. सभी टाना भगतों के घर में एक चरखा जरूर होता है जिससे ये सूत काटते हैं. टाना भगत सुबह नहाने के बाद तुलसी में जल डालते हैं और झंडा पूजा करते हैं. इसके बाद ही इनकी दिनचर्या शुरू होती है.

इन्हें क्यों कहते हैं टाना भगतः इतिहासकार डॉक्टर दिवाकर मिंज बताते हैं कि इनके लिए टाना मतलब है टानना यानी खींचना. टाना भगतों की ये सोच रहती है कि जो पिछड़े समुदाय से हैं और जो आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, उन्हें ऊपर टानो. मतलब उन लोगों को ऊपर खींचो और आगे बढ़ने में मदद करो ताकि उनका भी जीवन स्तर सुधर सके. इनके भजन में भी टाना शब्द अधिक प्रयोग होता है.

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