जमशेदपुर: शारदीय नवरात्रि के दौरान देशभर में मां दुर्गा की आराधना का त्योहार मनाया जाता है और 9 दिनों तक मां दुर्गा की पूजा की जाती है. जगह-जगह पंडाल बनाए जाते हैं और मूर्तियां स्थापित कर उनकी पूजा की जाती है. इस दौरान आदिवासी समाज द्वारा एक पुरानी परंपरा का पालन किया जाता है, जो आकर्षण का केंद्र रहता है. पूर्वी सिंहभूम जिले के आदिवासी बहुल गांवों में दशहरा से पांच दिन पहले पुरुष महिला बन जाते हैं.
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दरअसल, इस समुदाय में शारदीय नवरात्रि के दौरान दशहरे से ठीक पहले पांच दिनों तक आदिवासी समुदाय के पुरुष दसाईं नृत्य करते हैं. यह कला उनकी समृद्ध संस्कृति का हिस्सा रही है. दसाईं नृत्य में भाग लेने वाले पुरुष पहले महिलाओं का भेष धारण करते हैं, फिर पारंपरिक संगीत वाद्य यंत्रों पर नृत्य करते हैं. वे घर-घर जाकर नाचते हैं. नृत्य के दौरान सूखे कद्दू से बना एक विशेष प्रकार का वाद्य यंत्र बजाया जाता है, जिसे भुआंग कहा जाता है. आदिवासी लोगों को इससे मधुर ध्वनि निकलती हुई मिलती है. इसके अलावा इस नृत्य में थाली और घंटी का प्रयोग किया जाता है. साथ में मोर पंख को माथे पर सजाकर नृत्य करने वाले आदिवासी नृत्य को ऊंचाई प्रदान करते हैं.
क्रांतिकारियों को खोजने के लिए हुई थी परंपरा की शुरुआत: ईचागढ़ के अमड़ा टोला निवासी अनिल मुर्मू बताते हैं कि इस परंपरा की शुरुआत क्रांतिकारियों को खोजने के लिए हुई थी. जब बाहरी आक्रमणकारियों ने आदिवासी समुदाय के क्रांतिकारियों को पकड़ लिया. सभी आदिवासियों को क्षेत्र से भगा दिया गया. उसी समय आदिवासी पुरुष अलग-अलग समूहों में महिला भेष में नाचते हुए क्रांतिकारियों की तलाश में निकलते थे. इस नृत्य में शामिल पुरुष महिलाओं की तरह साड़ी पहनकर और माथे पर मोर पंख लगाकर तैयार होते हैं. दसाई नृत्य की शुरुआत हाय रे हाय.. से होती है, जो दुख का प्रतीक है. इसमें क्रांतिकारियों को बंदी बनाने का दुख झलकता है.