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रोजगार सृजन और पलायन रोकने के दावों की जमीनी हकीकत! पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरी के लिए परदेस जाने को हैं मजबूर - दुमका आदिवासी समुदाय

सरकार रोजगार सृजन करने और पलायन रोकने का दावा करती है, लेकिन इन दावों की दुमका के ग्रामीण क्षेत्रों में क्या हकीकत है? जानिए इस रिपोर्ट में.

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Published : Nov 9, 2021, 7:17 PM IST

Updated : Nov 9, 2021, 9:40 PM IST

दुमका: केंद्र हो या राज्य सरकार वर्षों से रोजगार सृजन के दावे करती रही है. साथ ही पलायन को रोकने की दिशा में निरंतर कार्रवाई की बात करती तो है लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ नजर नहीं आता. आज गरीब को जब अपने गांव में, पंचायत में काम नहीं मिलता है तो वे चंद रुपयों के लिए हजारों मील दूर बिचौलियों के माध्यम से जान जोखिम में डालकर मजदूरी करने जाते हैं.

ये भी पढ़ें- बांस से प्रतिमा में जान फूंकने वाले गिरिडीह के संतोष को मिला रोजगार, JSLEPS ने बनाया प्रशिक्षक

हजारों मजदूर काम के लिए जाते हैं दूसरे राज्य

दुमका से हजारों मजदूर प्रतिवर्ष काम के लिए दूसरे प्रदेशों में जाते हैं. ईटीवी भारत की टीम सदर प्रखंड के भुरकुंडा पंचायत हकीकत जानने पहुंची. भुरकुंडा पंचायत के दौंदिया गांव के पहाड़िया टोला के लोगों की स्थिति को जाना. यहां आदिम जनजाति पहाड़िया समुदाय के कई परिवार निवास करते हैं. पहाड़िया समुदाय के विकास के लिए, उनके उत्थान के लिए सरकार की ओर से कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन सच्चाई तो यह है कि इनके पास आजीविका चलाने के लिए रोजगार ही नहीं है. मजबूरी में ये रोजी-रोटी में लिए दूसरे प्रदेशों में काम के लिए पलायन करते हैं.

देखें स्पेशल रिपोर्ट

पीढ़ी दर पीढ़ी गरीब पलायन को मजबूर

इस टोला में ईटीवी भारत की टीम से 50 वर्षीय चनाचूर देहरी की मुलाकात हुई. चनाचूर आदिम जनजाति पहाड़िया समुदाय से आते हैं. उन्होंने बताया कि 20-25 वर्ष पहले वे कई बार काम के लिए मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड गए. क्योंकि गांव में काम नहीं था और घर चलाना जरूरी था. उस वक्त वहां प्रतिदिन 30 से 40 रुपये मजदूरी मिलती थी. छह माह में पन्द्रह सौ अठारह सौ लेकर वापस आते थे. उसी से काफी दिनों तक घर चलता था और जब वे रुपए खत्म होने लगते तो फिर से काम पर किसी प्रदेश निकल जाते.

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आदिवासी समुदाय के लोग

वक्त बदला पर परिस्थितियां ज्यों की त्यों

वक्त बदला पर परिस्थितियां नहीं बदली. आज चनाचूर के दोनों पुत्र जीतन और अनिल बड़े हो गए हैं. अब वे काम के लिए कश्मीर, लेह-लद्दाख, मुंबई जाते हैं. जीतन तो तीन दिन पहले ही कश्मीर से लौटा है. उसने बताया कि एक मेट (मजदूर को बाहर काम पर ले जाने वाला) के माध्यम से काम पर गया था और छह माह काम करने के बाद 21 हजार रुपये लेकर लौटा है. चनाचूर देहरी हो या जीतन या फिर अनिल सभी कहते हैं कि क्या करें घर में काम ही नहीं है. परिवार चलाना पड़ता है तो बाहर काम करने निकल जाते हैं. अगर हमें हमारे घर में, गांव में, पंचायत में काम मिले तो भला परिवार छोड़कर कोई क्यों जाए? कुछ ऐसा ही हाल गांव के केशवा देहरी, सुनील देहरी और अन्य लोगों की है. ये भी जम्मू कश्मीर के साथ-साथ पश्चिम बंगाल और मुंबई काम के लिए जाते हैं.

जब पुरुष जाते हैं कमाने तो महिलाएं घर में रह जाती है अकेली

रोजी रोटी प्राप्त करने के लिए जब महीनों-महीनों के लिए घर के पुरुष कमाने है हजारों मील दूर जाते हैं तो उनके घर में महिलाएं अकेली रह जाती हैं. अकेली महिलाओं को घर की सारी जिम्मेदारी खुद उठानी पड़ती है. बच्चों का लालन-पालन करना पड़ता है. महिलाओं से पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि परेशानी तो होती है अकेले सब कुछ देखना पड़ता है पर अगर पति कमाने नहीं जाएंगे तो खाएंगे क्या, घर कैसे चलेगा?

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स्थानीय लोग

सरकार का दायित्व रोके इस पलायन को

सरकार का दायित्व है कि चंद रुपयों के लिए जो मजदूरी के लिए बाहर जाते हैं उस पलायन को रोके. सबसे बड़ी बात ये सभी बिचौलिए के माध्यम से बाहर जाते हैं. जो इन्हें ले जाकर वहां काम करने वाली एजेंसी को सौंप देता है. कंपनी से बिचौलियों को जो मिलता है उसकी आधी रकम भी इन मजदूरों को नसीब नहीं होती. अगर किसी की दुर्घटना में जान चली जाए तो महीनों बाद परिवार वालों को पता चलता है. सरकार को पूरी प्लानिंग के साथ इस मामले को देखना चाहिए और लोगों को उनके घर में ऐसे काम में इसकी पहल करनी चाहिए.

दुमका: केंद्र हो या राज्य सरकार वर्षों से रोजगार सृजन के दावे करती रही है. साथ ही पलायन को रोकने की दिशा में निरंतर कार्रवाई की बात करती तो है लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ नजर नहीं आता. आज गरीब को जब अपने गांव में, पंचायत में काम नहीं मिलता है तो वे चंद रुपयों के लिए हजारों मील दूर बिचौलियों के माध्यम से जान जोखिम में डालकर मजदूरी करने जाते हैं.

ये भी पढ़ें- बांस से प्रतिमा में जान फूंकने वाले गिरिडीह के संतोष को मिला रोजगार, JSLEPS ने बनाया प्रशिक्षक

हजारों मजदूर काम के लिए जाते हैं दूसरे राज्य

दुमका से हजारों मजदूर प्रतिवर्ष काम के लिए दूसरे प्रदेशों में जाते हैं. ईटीवी भारत की टीम सदर प्रखंड के भुरकुंडा पंचायत हकीकत जानने पहुंची. भुरकुंडा पंचायत के दौंदिया गांव के पहाड़िया टोला के लोगों की स्थिति को जाना. यहां आदिम जनजाति पहाड़िया समुदाय के कई परिवार निवास करते हैं. पहाड़िया समुदाय के विकास के लिए, उनके उत्थान के लिए सरकार की ओर से कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन सच्चाई तो यह है कि इनके पास आजीविका चलाने के लिए रोजगार ही नहीं है. मजबूरी में ये रोजी-रोटी में लिए दूसरे प्रदेशों में काम के लिए पलायन करते हैं.

देखें स्पेशल रिपोर्ट

पीढ़ी दर पीढ़ी गरीब पलायन को मजबूर

इस टोला में ईटीवी भारत की टीम से 50 वर्षीय चनाचूर देहरी की मुलाकात हुई. चनाचूर आदिम जनजाति पहाड़िया समुदाय से आते हैं. उन्होंने बताया कि 20-25 वर्ष पहले वे कई बार काम के लिए मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड गए. क्योंकि गांव में काम नहीं था और घर चलाना जरूरी था. उस वक्त वहां प्रतिदिन 30 से 40 रुपये मजदूरी मिलती थी. छह माह में पन्द्रह सौ अठारह सौ लेकर वापस आते थे. उसी से काफी दिनों तक घर चलता था और जब वे रुपए खत्म होने लगते तो फिर से काम पर किसी प्रदेश निकल जाते.

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आदिवासी समुदाय के लोग

वक्त बदला पर परिस्थितियां ज्यों की त्यों

वक्त बदला पर परिस्थितियां नहीं बदली. आज चनाचूर के दोनों पुत्र जीतन और अनिल बड़े हो गए हैं. अब वे काम के लिए कश्मीर, लेह-लद्दाख, मुंबई जाते हैं. जीतन तो तीन दिन पहले ही कश्मीर से लौटा है. उसने बताया कि एक मेट (मजदूर को बाहर काम पर ले जाने वाला) के माध्यम से काम पर गया था और छह माह काम करने के बाद 21 हजार रुपये लेकर लौटा है. चनाचूर देहरी हो या जीतन या फिर अनिल सभी कहते हैं कि क्या करें घर में काम ही नहीं है. परिवार चलाना पड़ता है तो बाहर काम करने निकल जाते हैं. अगर हमें हमारे घर में, गांव में, पंचायत में काम मिले तो भला परिवार छोड़कर कोई क्यों जाए? कुछ ऐसा ही हाल गांव के केशवा देहरी, सुनील देहरी और अन्य लोगों की है. ये भी जम्मू कश्मीर के साथ-साथ पश्चिम बंगाल और मुंबई काम के लिए जाते हैं.

जब पुरुष जाते हैं कमाने तो महिलाएं घर में रह जाती है अकेली

रोजी रोटी प्राप्त करने के लिए जब महीनों-महीनों के लिए घर के पुरुष कमाने है हजारों मील दूर जाते हैं तो उनके घर में महिलाएं अकेली रह जाती हैं. अकेली महिलाओं को घर की सारी जिम्मेदारी खुद उठानी पड़ती है. बच्चों का लालन-पालन करना पड़ता है. महिलाओं से पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि परेशानी तो होती है अकेले सब कुछ देखना पड़ता है पर अगर पति कमाने नहीं जाएंगे तो खाएंगे क्या, घर कैसे चलेगा?

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स्थानीय लोग

सरकार का दायित्व रोके इस पलायन को

सरकार का दायित्व है कि चंद रुपयों के लिए जो मजदूरी के लिए बाहर जाते हैं उस पलायन को रोके. सबसे बड़ी बात ये सभी बिचौलिए के माध्यम से बाहर जाते हैं. जो इन्हें ले जाकर वहां काम करने वाली एजेंसी को सौंप देता है. कंपनी से बिचौलियों को जो मिलता है उसकी आधी रकम भी इन मजदूरों को नसीब नहीं होती. अगर किसी की दुर्घटना में जान चली जाए तो महीनों बाद परिवार वालों को पता चलता है. सरकार को पूरी प्लानिंग के साथ इस मामले को देखना चाहिए और लोगों को उनके घर में ऐसे काम में इसकी पहल करनी चाहिए.

Last Updated : Nov 9, 2021, 9:40 PM IST
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