देवघर: बाबा नगरी में शिव से जुड़ी कई कहानियों के परिणाम आज भी यहां मौजूद है. देवघर को झारखंड की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है. यहां भोजपत्र का ऐसा पेड़ है, जिसके छाल पर पुराने समय में ग्रंथ और तंत्र विद्या लिखी जाती थी. इस भोजपत्र का उपयोग आज भी पूजा और तंत्र बनाने में हो रहा है. इस पत्र पर लिखी लेख हजारों साल तक खराब नहीं होती है. यह पेड़ हिमालय के तराई में पाया जाता है और वह भी काफी कम.
भोजपत्र का इस्तेमाल
आदि काल में गुरु अपने शिष्यों को मौखिक पढ़ाया करते थे. उसके बाद इन विद्याओं की संकलन की बात आई तो, इसे भोजपत्र नाम के पेड़ की छाल पर अनार पेड़ के डंठल से रंगों के माध्यम से लिखा और संकलित किया जाने लगा. समय के साथ-साथ इस भोजपत्र का इस्तेमाल वेद को लिखने में भी किया जाने लगा. उस वक्त ऋषि-मुनी हिमालय पर वास करते थे. ऐसे में वहां इस तरह के वृक्ष पाए जाते थे. बाद में कई लिपियों से इस भोजपत्र पर लिखनी शुरू हुई.
हिमालय के तराई में पाई जाती है यह पेड़
मुगलकाल में भी यह बदस्तूर जारी रहा. समय के साथ-साथ कागज बनाने की शुरुआत हुई और ये पेड़ भारत से विलुप्त हो गए. अब यह पेड़ हिमालय के तराई में पाई जाती है. इस पेड़ की छाल के कई खासियत है. इसपर लिखी हुई लेखनी हजारों साल तक सुरक्षित रहती है. आज कई संग्रहालय में भोजपत्र पर लिखी लिपियां मिलती है. आज के समय में विशेष पूजा और तंत्रों के लिखने में इसका इस्तेमाल किया जाता है. इस पेड़ की आयु काफी लंबी होती है और ऐसा माना जाता है कि यह पेड़ देवताओं को समुद्र मंथन में मिला था, जिसे देवताओं ने खुद अपने पास रखा था.
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क्या है इस पेड़ की खासियत
भोजपत्र को देवघर में लाने और इसे संयोने का श्रेय प्रदीप राउत को जाता है. प्रकृतिक से प्रेम करने वाले प्रदीप इसे 10 साल पहले लाए थे और झारखंड में यह इकलौता पेड़ है. इस पेड़ की कई खासियत है. इस पेड़ को दबाने से यह स्पंज की तरह दब जाता है और फिर पुनः अपनी स्थिति में लौट आता है, साथ ही ये पेड़ सिर्फ परत पर ही रहता है. इसके एक परत से कई परत निकल जाते हैं. ये पेड़ काफी खास है और लोगों की जिज्ञासा का केंद्र है, जिसे बचाने में प्रदीप को काफी मस्सकत भी करनी पड़ी है.