रांचीः दुनिया में अब तक ऐसी कोई कलम नहीं बनी जो मां की ममता को शब्दों में बयां कर सके. मां की ममता का कोई मोल भी नहीं लगा सकता. इसलिए तो वेदों में भी मां को भगवान से ऊंचा दर्जा दिया गया है. बदलते समय में मां की जीवन में भूमिका को समझते हुए मदर्स डे मनाया जाने लगा, लेकिन मदर्स डे की ये अवधारणा वृद्धाश्रम में आकर दम तोड़ देती है. वृद्धाश्रम में रह रही माताओं के लिए मदर्स डे का कोई मूल्य नहीं है क्योंकि उनके बच्चे उन्हें छोड़ चुके हैं.
बेबस है बुजुर्ग, बच्चों को कोई चिंता नहींः मां तो मैं भी हूं पर कोई मां बोल कर बुलाए ये तो अब सपना ही रह गया, बिन औलाद कैसी मां कैसा मदर्स डे. ये कुछ ऐसे सवाल थे जो उन बूढ़े शरीरों में कहीं दफन घुटन को साफ बयान करते हैं. जब दुनिया में हर तरफ मदर्स डे सेलिब्रेट किया जा रहा था, तब कुछ ऐसी मां भी थी जिनके लिए यह दिन उनके जख्म कुरेदने के अलावा और किसी काम का नहीं था. वृद्धाश्रम में पिछले पांच सालों से रह रही बीएड कॉलेज की पूर्व प्रिंसिपल विद्या सिंह मदर्स डे का नाम सुनने पर ही आक्रोशित हो जाती हैं. विद्या सिंह के अनुसार किस काम का है यह मदर्स डे, जब बच्चों को अपनी मां की कोई चिंता ही नहीं है. जब तक वृद्धाश्रम में माताएं रहेंगी तब तक मदर्स डे का कोई मतलब नहीं रह जाता है.
पूर्व डीएम की पत्नी भी वृद्धाश्रम में रहने को मजबूरः रांची के बरियातू स्थित वृद्धाश्रम में रिपोर्टिंग के दौरान कुछ ऐसे मार्मिक कहानियां सामने आई जो बेहद चौंकाने वाली है. हैरानी की बात यह है कि यहां ऐसे बुजुर्ग भी रह रहे हैं जिनके बेटे और बेटियां बहुत बड़े पद पर हैं. उनके पास पैसों की कोई कमी नहीं है, यहां तक कि कुछ ऐसी बुजुर्ग महिलाएं भी हैं जिनके पति बिहार में बड़े पदों पर रह चुके हैं लेकिन वो अकेले रहने पर मजबूर हैं. वृद्धाश्रम में रहने वाली विद्या कर्ण की कहानी बेहद दर्दनाक है. 1980 में विद्या के पति बी के कर्ण बिहार के औरंगाबाद के डीएम हुआ करते थे. कोई संतान नहीं होने की वजह से उनके रिश्तेदारों ने उनकी सारी संपत्ति पर कब्जा जमा लिया. यहां तक कि उनके पति को भी उनसे दूर कर दिया. आलम यह है कि विद्या पिछले 9 सालों से वृद्धाश्रम में रह रही हैं जबकि उनके पति को उनके रिश्तेदारों ने बहला-फुसलाकर पटना में सिर्फ इसलिए रखा है ताकि उनकी संपत्ति को हासिल कर सके.
वृद्धाश्रम में रहने वाली किसी मां का बेटा विदेश में है, कोई डॉक्टर तो कोई ऊंचे पद पर है. बच्चों ने अपनी बजुर्ग मां को उस वक्त वृद्धाश्रम में छोड़ा, जिस वक्त उनकी माताओं को उनकी जरूरत थी. आश्रम में रहने वाली माताओं के लिए कोई भी त्यौहार अब मायने नहीं रखता है, मदर्स डे तो उनके जख्मों को और कुरेद देता है. वृद्धाश्रम में वृद्ध माताओं को हर तरह की सुख सुविधा और एक अच्छा माहौल मिलता है, लेकिन समय-समय पर उन्हें अपने उन बच्चों की याद आती है. जिन बच्चों को कामयाब बनाने के लिए जिन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया. वे शायद कुछ ज्यादा ही कामयाब हो गए और अपनी माताओं को वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर कर दिया.
आश्रम ही है अब परिवारः रांची के बरियातू स्थित आश्रम में 40 से अधिक वृद्ध अपने जीवन के अंतिम पलों को गुजार रहे हैं. अब यही वृद्धाश्रम ही उनका परिवार है. वृद्धाश्रम चला रही वीणा देवी के अनुसार यहां सभी बुजुर्ग अपने बच्चों से परेशान होकर ही पहुंचे हैं.