रांची: देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ (75 years of independence) मना रहा है. देश की आजादी के इतिहास में झारखंड का जिक्र नहीं मिलता है क्योंकि तब यह राज्य वजूद में नहीं था. लेकिन झारखंड के वीर आदिवासियों का जिक्र हर जगह मिलता है (story of freedom fighters of jharkhand) जिनके तीर-कमान से बंदूकधारी अंग्रेज थर-थर कांपते थे. आजादी के दीवाने आदिवासियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है. तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया से लेकर सिदो-कान्हो और नीलांबर-पीतांबर से लेकर बिरसा मुंडा तक, झारखंड के क्रांतिकारियों (freedom fighters of jharkhand) ने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते जान कुर्बान कर दिए थे.
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इतिहास में देश की आजादी के लिए पहली क्रांति का जिक्र 1857 (Revolution of 1857) में मिलता है लेकिन इससे करीब 84 साल पहले झारखंड में पहाड़ियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंक दिया था और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे. 1757 में पलासी और 1765 में बक्सर की लड़ाई जीतने के बाद अंग्रेजों की नजर पहाड़िया धरती पर पड़ी और यहीं से पहाड़ियों का संघर्ष शुरू हुआ.
1773 में जबरा पहाड़िया ने छेड़ी थी पहली जंग
1750 में जन्मे तिलका मांझी जब बड़े हुए तब अंग्रेजों का आतंक देखा. अत्याचार देख तिलका ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने की ठान ली. तिलका ने अंग्रेजों और चापलूस सामंतों पर लगातार हमले किए और हर बार उनकी जीत हुई. गुरिल्ला वार में माहिर तिलका से अंग्रेज गोला-बारूद होने के बावजूद मुकाबला नहीं कर पाते थे. कुछ वक्त के बाद जब अंग्रेजों को लगा कि तिलका से लोहा लेना आसान नहीं है तब 'फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाई.
कलेक्टर को मारकर उड़ा दी थी अंग्रेजों की नींद
अंग्रेजों ने 1781 में हिल काउंसिल का गठन किया. पहाड़िया स्वशासन के तहत सरदार, नायब और मांझी का पद सृजित किया गया. इन पदों पर पहाड़ियों को बहाल किया. काउंसिल गठन के बाद भी तिलका ने देखा कि पहाड़ियों पर लगातार अत्याचार हो रहा है. 13 जनवरी 1784 को तिलका मांझी ने ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज कलेक्टर अगस्टस क्लीवलैंड को तीर से मार गिराया. कलेक्टर की मौत से पूरी ब्रिटिश सरकार सदमे में थी.
तिलका मांझी ने दी थी पहली शहादत
अंग्रेजों ने काफी प्रयास किया लेकिन वे तिलका को नहीं पकड़ सके. इसके बाद अंग्रेजों ने पहाड़ियों को भड़काना शुरू किया और लालच देने लगे. उनके समुदाय के ही कुछ गद्दारों ने अंग्रेजों तक तिलका के बारे में सूचना पहुंचाई. अंग्रेजों ने पहाड़ों की घेराबंदी कर तिलका को पकड़ लिया और भागलपुर ले आए. 13 जनवरी 1785 को महज 35 वर्ष की उम्र में उन्हें फांसी दे दी गई. इतिहास में इसका जिक्र शायद न मिले लेकिन हमारे मुल्क की आजादी के लिए पहली शहादत तिलका मांझी ने दी थी.
साहिबगंज में सिदो-कान्हो ने छेड़ी थी जंग
मंगल पांडेय के नेतृत्व में 1857 में हुई पहली क्रांति से करीब दो साल पहले 1855 में संथालियों ने साहिबगंज में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंका था. संथालों ने नारा दिया था "करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो" और नारा देने वाले थे सिदो-कान्हो. हूल क्रांति में दोनों भाइयों को योगदान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साहिबगंज में दोनों भाइयों को भगवान की तरह पूजा जाता है. युद्ध में छोटे भाई चांद-भैरव और बहन फूलो-झानो ने भी पूरा साथ दिया था.
टावर भी नहीं दबा सका आदिवासियों का पराक्रम
संथालियों की सीधी लड़ाई महाजनों से थी. महाजन अंग्रेजों के करीबी थी और यही वजह थी कि संथालियों को अंग्रेजों से सीधी जंग करनी पड़ी. अंग्रेज जानते थे कि तोप और बंदूक होने के बावजूद उनका तीर-कमान के आगे टिकना काफी मुश्किल है. यही वजह है कि 1856 में तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी सर मॉर्टिन ने रातों रात मार्टिलो टावर का निर्माण कराया और उसमें छोटे-छोटे छेद बनाए गए ताकि छिपकर संथालियों को बंदूक से निशाना बनाया जा सके. लेकिन आदिवासियों के पराक्रम को यह टावर नहीं दबा पाया. संथालियों ने अदम्य साहस की बदौलत अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए और उन्हें उल्टे पांव भागना पड़ा. संथालियों का संघर्ष लंबा चला. सिदो-कान्हो ने आखिरी दम तक अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ा. आखिरकार अंग्रेजों ने दोनों भाइयों को पकड़ लिया और बरगद के पेड़ पर दोनों को फांसी दे दी.
पलामू में दो साल तक जलती रही क्रांति की मशाल
1857 की क्रांति में नीलांबर-पीतांबर के योगदान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पलामू में यह मशाल 1859 तक जलती रही. दोनों भाइयों ने गुरिल्ला तकनीक से अंग्रेजों को पानी पिला दिया था. दोनों भाइयों के नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने 27 नवंबर 1857 को रजहरा स्टेशन पर हमला कर दिया. यहां से अंग्रेज कोयला की ढुलाई करते थे. इससे अंग्रेज बौखला गए. इसके बाद अंग्रेजों ने दोनों भाइयों को मारने की साजिश सची.
कर्नल डाल्टन ने दोनों भाइयों को जाल में फंसाया
अंग्रेजों ने कमिश्नर डाल्टन को बड़ी फौज के साथ पलामू भेजा था. डाल्टन के साथ मद्रास इन्फेंट्री के सैनिक घुड़सवार और विशेष बंदूकधारी जवान शामिल थे. फरवरी 1858 में डाल्टन चेमो सान्या पहुंचा और जमकर तबाही मचाई. डाल्टन लगातार 24 दिनों तक चेमो सान्या में रुका था. डाल्टन की कार्रवाई के बाद नीलांबर-पीतांबर को काफी नुकसान हुआ. मंडल के इलाके में दोनों भाइयों ने अपने परिजनों से मुलाकात की योजना बनाई. इसकी भनक डाल्टन को लग गई. डाल्टन ने मंडल के इलाके से दोनों भाइयों को कब्जे में लिया. 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में एक पेड़ पर दोनों भाइयों को फांसी दे दी गई.
कम उम्र में ही आदिवासियों के लिए मसीहा बन गए बिरसा
देश की आजादी से 72 साल पहले 18 नवंबर 1875 को खूंटी के उलीहातू गांव में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था. सूदखोरों और अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बिरसा ने ऐसी लड़ाई छेड़ी जिससे कम उम्र में ही वे आदिवासियों के लिए मसीहा बन गए. उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया. बिरसा थोड़ा-बहुत इलाज भी जानते थे. किसी को कोई बीमारी होती तो दवा से ठीक कर देते थे. लोगों को लगता कि बिरसा ने चमत्कार कर दिया है. इससे बिरसा लोगों के लिए भगवान बन गए. आंदोलन के क्रम में 22 अगस्त 1895 को बिरसा पहली बार गिरफ्तार हुए थे.
जल-जंगल-जमीन के लिए किया था आंदोलन
बिरसा ने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए उलगुलान किया था. जनवरी 1900 में डोंबरी पहाड़ पर बिरसा जब जनसभा को संबोधित कर रहे थे तब अंग्रेजों से लंबा संघर्ष हुआ और इसमें कई आदिवासी मारे गए. बाद में 3 मार्च 1900 को चक्रधरपुर में बिरसा की गिरफ्तारी हुई. 9 जून 1900 को बिरसा ने अंतिम सांस ली. वैसे तो बिरसा मुंडा के निधन का कोई प्रमाण नहीं है लेकिन, आरोप है कि अंग्रेजों ने जहर देकर उन्हें मार दिया था. जानकार बताते हैं कि बिरसा में सचमुच की ऐसी शक्तियां थी जिससे लोग उनकी तरफ आकर्षित थे. लोग उनकी हर बात मानते थे और भगवान की तरह पूजते थे.