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रांचीः BAU के वैज्ञानिकों ने विकसित की मशरूम स्पॉन रन बैग के अवशेष को कंपोस्ट में प्रयोग करने की तकनीक - बिरसा कृषि विश्वविद्यालय रांची

बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने मशरूम स्पॉन रन बैग के अवशेष का कंपोस्ट के रूप में प्रयोग करने की तकनीक विकसित की है. इस बैग से 20 से 22 दिनों के बाद मशरूम प्राप्त होने लगता है. वहीं, वैज्ञानिकों ने 60 दिनों के बाद बैग में पड़े अवशेष को बंजर और पथरीली भूमि की उर्वरता में सुधार के लिए उपयोगी बताया है.

technique of using mushroom spawn run bags as compost
मशरूम स्पॉन रन बैग
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Published : Jul 17, 2020, 9:04 AM IST

रांचीः बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि संकाय के अधीन कार्यरत अनुदेशात्मक में मशरूम उत्पादन यूनिट का वर्षों से संचालन किया जा रहा है. इस यूनिट के वैज्ञानिकों ने मशरूम उत्पादन में प्रयुक्त स्पॉन रन बैग के अवशेष का कंपोस्ट के रूप में प्रयोग करने की तकनीक विकसित की है.

पौधा रोग विभाग के अध्यक्ष और यूनिट प्रभारी डॉ नरेंद्र कुदादा ने बताया कि मशरूम की खेती में स्पॉन बीज को स्पॉन रन पालीथीन बैग में भरकर विभिन्न प्रक्रियाओं से मशरूम का उत्पादन किया जाता है. इस बैग से 20 से 22 दिनों के बाद मशरूम प्राप्त होने लगता है. हरेक बैग से 60 दिनों तक विभिन्न अंतराल पर मशरूम को तोड़ा जाता है. 60 दिनों के बाद बैग में पड़े अवशेष को अनुपयोगी समझकर फेंक दिया जाता है. कुछ लोग इस अवशेष का मछली के तालाब में प्रयोग करते हैं.

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इस अवशेष से ओल और अदरख की खेती करने की योजना बनाई गई. इसके तहत स्पॉन रन पालीथीन बैग के 60 दिनों के इस अवशेष को अगले 30-40 दिनों के लिए पूरी तरह सड़ने के लिए छोड़ दिया गया. इस सड़े अवशेष से शोध प्रक्षेत्र में ओल और अदरख की खेती की गई. इस खेती का परिणाम विगत 3 वर्षों में बेहद उत्साहजनक पाया गया है. इस शोध में अवशेषरहित की तुलना में सड़े अवशेष के उपयोग से 30 प्रतिशत से अधिक उपज और मिट्टी के भौतिक गुणों में सुधार पाया गया है.

डॉ कुदादा ने कहा कि इस तकनीक से सालों भर कंपोस्ट का उत्पादन किया जा सकता है. मशरूम की खेती से जुड़े किसान इस तकनीक से बिना किसी अतिरिक्त लागत से कंपोस्ट का उत्पादन कर दोहरा लाभ ले सकते हैं. डीन एग्रीकल्चर डॉ एमएस यादव ने इस सड़े अवशेष को अति आम्लिक, बंजर और पथरीली भूमि की उर्वरता में सुधार के लिए उपयोगी बताया है. इसे अम्लीय भूमि सुधारक चूना का बेहतर विकल्प साबित होने की बात कही. उन्होंने कहा कि इस अवशेष का अति आम्लिक, बंजर और पथरीली भूमि में लगातार 5-6 वर्षों तक प्रयोग से उपजाऊ भूमि में बदला जाना संभव है. इस सड़े अवशेष से सब्जी फसलों और फलदार वृक्षों की सफलता पूर्वक खेती की जा सकती है. उन्होंने वैज्ञानिकों को इस दिशा में व्यापक शोध कार्य करने का निर्देश और मार्गदर्शन दिया.

इस मशरूम उत्पादन इकाई में पूरे वर्ष में 5 प्रकार के मशरूम का उत्पादन किया जाता है. गर्मी में धान पुआल मशरूम और सफेद दुधिया मशरूम, बरसात में वायस्टर मशरूम (गुलाबी, सफेद और नीला), ढिंगरी मशरूम और जाड़े में सफेद बटन मशरूम का उत्पादन और तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाता है. वैज्ञानिकों की ओर से ईकाई में 3, 7 और 15 दिनों का प्रशिक्षण दिया जाता है. ग्रामीण किसान अमूमन 7 दिनों का प्रशिक्षण पसंद करते हैं. 3 और 7 दिनों का प्रशिक्षण शुल्क 300 रूपये प्रति दिन है. 15 दिनों का प्रशिक्षण मशरूम उत्पादन में प्रयुक्त स्पॉन बीज उत्पादन से सबंधित है. इसका प्रशिक्षण शुल्क 10 हजार रूपये है. ईकाई में अच्छी गुणवत्ता वाली सत्यापित स्पॉन बीज की भी बिक्री की जाती है. इसके आलावा हर वर्ष कृषि स्नातक छात्रों को 6 महीने का अनुभावात्मक अध्ययन कार्यक्रम के तहत व्यावसायिक मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण भी दिया जाता है.

रांचीः बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि संकाय के अधीन कार्यरत अनुदेशात्मक में मशरूम उत्पादन यूनिट का वर्षों से संचालन किया जा रहा है. इस यूनिट के वैज्ञानिकों ने मशरूम उत्पादन में प्रयुक्त स्पॉन रन बैग के अवशेष का कंपोस्ट के रूप में प्रयोग करने की तकनीक विकसित की है.

पौधा रोग विभाग के अध्यक्ष और यूनिट प्रभारी डॉ नरेंद्र कुदादा ने बताया कि मशरूम की खेती में स्पॉन बीज को स्पॉन रन पालीथीन बैग में भरकर विभिन्न प्रक्रियाओं से मशरूम का उत्पादन किया जाता है. इस बैग से 20 से 22 दिनों के बाद मशरूम प्राप्त होने लगता है. हरेक बैग से 60 दिनों तक विभिन्न अंतराल पर मशरूम को तोड़ा जाता है. 60 दिनों के बाद बैग में पड़े अवशेष को अनुपयोगी समझकर फेंक दिया जाता है. कुछ लोग इस अवशेष का मछली के तालाब में प्रयोग करते हैं.

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इस अवशेष से ओल और अदरख की खेती करने की योजना बनाई गई. इसके तहत स्पॉन रन पालीथीन बैग के 60 दिनों के इस अवशेष को अगले 30-40 दिनों के लिए पूरी तरह सड़ने के लिए छोड़ दिया गया. इस सड़े अवशेष से शोध प्रक्षेत्र में ओल और अदरख की खेती की गई. इस खेती का परिणाम विगत 3 वर्षों में बेहद उत्साहजनक पाया गया है. इस शोध में अवशेषरहित की तुलना में सड़े अवशेष के उपयोग से 30 प्रतिशत से अधिक उपज और मिट्टी के भौतिक गुणों में सुधार पाया गया है.

डॉ कुदादा ने कहा कि इस तकनीक से सालों भर कंपोस्ट का उत्पादन किया जा सकता है. मशरूम की खेती से जुड़े किसान इस तकनीक से बिना किसी अतिरिक्त लागत से कंपोस्ट का उत्पादन कर दोहरा लाभ ले सकते हैं. डीन एग्रीकल्चर डॉ एमएस यादव ने इस सड़े अवशेष को अति आम्लिक, बंजर और पथरीली भूमि की उर्वरता में सुधार के लिए उपयोगी बताया है. इसे अम्लीय भूमि सुधारक चूना का बेहतर विकल्प साबित होने की बात कही. उन्होंने कहा कि इस अवशेष का अति आम्लिक, बंजर और पथरीली भूमि में लगातार 5-6 वर्षों तक प्रयोग से उपजाऊ भूमि में बदला जाना संभव है. इस सड़े अवशेष से सब्जी फसलों और फलदार वृक्षों की सफलता पूर्वक खेती की जा सकती है. उन्होंने वैज्ञानिकों को इस दिशा में व्यापक शोध कार्य करने का निर्देश और मार्गदर्शन दिया.

इस मशरूम उत्पादन इकाई में पूरे वर्ष में 5 प्रकार के मशरूम का उत्पादन किया जाता है. गर्मी में धान पुआल मशरूम और सफेद दुधिया मशरूम, बरसात में वायस्टर मशरूम (गुलाबी, सफेद और नीला), ढिंगरी मशरूम और जाड़े में सफेद बटन मशरूम का उत्पादन और तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाता है. वैज्ञानिकों की ओर से ईकाई में 3, 7 और 15 दिनों का प्रशिक्षण दिया जाता है. ग्रामीण किसान अमूमन 7 दिनों का प्रशिक्षण पसंद करते हैं. 3 और 7 दिनों का प्रशिक्षण शुल्क 300 रूपये प्रति दिन है. 15 दिनों का प्रशिक्षण मशरूम उत्पादन में प्रयुक्त स्पॉन बीज उत्पादन से सबंधित है. इसका प्रशिक्षण शुल्क 10 हजार रूपये है. ईकाई में अच्छी गुणवत्ता वाली सत्यापित स्पॉन बीज की भी बिक्री की जाती है. इसके आलावा हर वर्ष कृषि स्नातक छात्रों को 6 महीने का अनुभावात्मक अध्ययन कार्यक्रम के तहत व्यावसायिक मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण भी दिया जाता है.

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