रांचीः प्रकृति के महापर्व सरहुल की शुरुआत चैत माह के आगमन से होती है. इस समय साल के वृक्षों में फूल लग जाते हैं, जिसे आदिवासी प्रतीकात्मक रूप से नए साल का सूचक मानते हैं और पर्व को बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं. सरहुल आदिवासियों के प्रमुख त्योहार में से एक है. इस बार तीन दिवसीय महापर्व पूजा की शुरुआत आज से उपवास के साथ शुरू हुई और 16 मार्च को फुलखोंसी के साथ इसका समापन होगा.
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प्रकृति और ग्राम देवता की पूजा
रांची में बसने वाले आदिवासियों की सरलता और प्रकृति के प्रति अनोखा प्रेम इसकी झलक इनकी परंपरा में देखने को मिलती है. जो किसी और सभ्यता संस्कृति में देखने को नहीं मिलती. यही कारण है कि आदिवासियों को प्रकृति का पूजक कहा जाता है. 3 दिनों के इस पर्व की अपनी अलग कई विशेषताएं हैं. इस पर्व में गांव के पाहन विशेष अनुष्ठान करते हैं. जिसमें ग्राम देवता की पूजा की जाती है और कामना की जाती है कि आने वाला साल अच्छा हो. इस क्रम में पाहन सरना स्थल में मिट्टी के हांडियों में पानी रखते हैं पानी के स्तर से ही आने वाले साल में बारिश का अनुमान लगाया जाता है. पूजा समाप्त होने के दूसरे दिन गांव के पाहन घर-घर जाकर फूलखोंसी करते हैं ताकि उस घर और समाज में खुशी बनी रहे.
सरहुल शोभायात्रा पर कोरोना का ग्रहण
झारखंड में सरहुल महापर्व बहुत ही बड़े स्तर पर मनाया जाता है, जिसमें राज्य के विभिन्न हिस्सों में बसने वाले आदिवासी समाज के लोग बड़े ही उत्साह के साथ भाग लेते हैं और शोभायात्रा में विभिन्न टोला मोहल्ला से जुलूस निकाले जाते हैं. जिसमें आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति को झांकियों में दर्शाया जाता है. आदिवासी समुदाय के लोग शोभायात्रा में अपनी सभ्यता संस्कृति के अलावा आदिवासियों के वर्तमान जनमुद्दों को झांकियों के माध्यम से दिखाने के साथ ही विशाल एकजुटता के माध्यम से सरकार को अपनी मांग से अवगत कराते हैं, लेकिन पिछले दो वर्षों से कोरोना महामारी और राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए सरहुल शोभायात्रा को स्थगित करने का निर्णय लिया गया है.
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आदिकाल से मनुष्य और प्रकृति के बीच अनोखा जुड़ाव रहा है जिसकी झलक सरहुल महापर्व में देखने को मिलती है. आदिवासी समुदाय के लोग इस पर्व को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि अपने सारे शुभ कार्य की शुरुआत इसी दिन से करते हैं. यही कारण है कि इस कोरोना वायरस महामारी को देखते हुए सरहुल शोभा यात्रा स्थगित करने का निर्णय लिया गया है, लेकिन पाहन के जरिए सरना स्थलों पर पारंपरिक और विधि विधान के साथ पूजा संपन्न करायी जाएगी.