देवघरः जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूरी स्थित सारठ प्रखंड के कुकराहा गांव, जहां 450 साल पुराना मां दुर्गा मंदिर (500 years old temple in Kukraha village) है. इस मंदिर में शारदीय नवरात्र धूमधाम से मनाया जा रहा है. ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.
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दुर्गा मंदिर के बाहर अंकित शिला पर साल 1865 का प्रमाण है. दुर्गा मंदिर के पुजारी कहते हैं कि मंदिर की पौराणिक मान्यता है. श्रद्धालुओं में मां भगवती के प्रति अटूट आस्था है. उन्होंने कहा कि वर्षों पहले गांव के लखन सिंह नदी किनारे पहुंचे थे, तो एक कुंवारी कन्या को देखा था. कुंवारी कन्या ने जब लखन से वस्त्र की मांग की थी तो उन्होंने कंधे पर रखा गमछा दे दिया था. इसके बाद कन्या ने घर ले जाने के लिए कहा, लेकिन कन्या को घर नहीं लाये. हालांकि, वापस कुंवारी कन्या को लेने के लिए नदी किनारे पहुंचे, तो वह नहीं मिली. उसी रात में स्वप्न में देवी ने कहा कि मैं मां विंध्याचल दुर्गा हूं. इसके बाद ही ग्रामीणों ने मां दुर्गा मंदिर की स्थापना कर पूजा अर्चना शुरू की.
पुजारी ने कहा कि इस मंदिर में माता की पूजा-अर्चना करने के लिए दूरदराज से श्रद्धालु पहुंचते हैं. उन्होंने कहा कि आज भी इस मंदिर में देर रात्रि को घुंघरू की आवाज सुनाई देती है. जागृत सती स्थल के रूप में प्रसिद्धि कुकराहा दुर्गा मंदिर में घुंघरू की आवाज ऐसे प्रतीत होती हैं, मानों कई स्त्रियां नृत्य कर रही हों. जीवन की सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से छुटकारा दिलाने वाली शांति और शक्ति की दात्री महामाया जगदंबा का भव्य मंदिर इसका प्रतिक है.
महाराष्ट्र के शिल्पकारों ने किया जीर्णोद्धार: मंदिर के स्थापना काल में छोटा स्वरुप था. लेकिन कुकराहा, सिकटिया सहित दर्जनों गांवों के लोगों ने आपसी मदद कर 13 जुलाई 2016 को इस दुर्गा मंदिर का जीर्णोद्धार कराते हुए भव्य स्वरूप दिया. इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराष्ट्र के शिल्पकार तेलंग बंधु की टीम ने बिना गर्भगृह को क्षति पहुंचाए किया. करीब एक करोड़ की लागत से जीर्णोद्धार कार्य पूरा किया गया. मंदिर के गुंबज पर साढ़े तीन किलो का पुराना स्वर्ण कलश और पंचशूल भी स्थापित है.
शारदीय नवरात्र शुरू होते ही श्रद्धालुओं की भीड़ जुटने लगती है. मंदिर में रोजाना मनौती पूरे हुए श्रद्धालु पहुंचकर सैकड़ों ब्राह्मणों और कन्याओं को भोजन कराते हैं. विद्वान पंडितों, जटाधारी और गेरुआ वस्त्रधारी साधु-संतों का यहां दसों दिन जमघट लगा रहता है.