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चीन की ऋण जाल कूटनीति और भारत के संदर्भ में इसकी अहमियत

चीन अपनी ऋण जाल कूटनीति के लिए बदनाम है. इसके तहत वह विकासशील देशों से ऋण के बदले भारी कीमतें वसूलता है. इसके अलावा चीन अपने हितों के लिए धीरे-धीरे अन्य देशों के मामलों में हस्तक्षेप भी शुरू कर देता है. जानिए कैसे काम करती है चीन की ऋण जाल कूटनीति और भारत के संदर्भ में इसकी क्या अहमियत है?

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Published : Jul 12, 2020, 10:59 AM IST

Updated : Jul 12, 2020, 2:20 PM IST

debt diplomacy of china
ऋण जाल कूटनीति

चीन को विभिन्न क्षेत्रों में अपनी नीतियों को लेकर अभूतपूर्व आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. कोरोना वायरस के प्रसार की जानकारी छिपाना या उसे गलत तरीके से पेश करने को लेकर अमेरिका सहित कई अन्य देश भी चीन पर आक्रामक हैं. इसके अलावा हांगकांग के लिए पारित किए गए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को लेकर भी उसकी आलोचना हो रही है.

तिब्बत व शिनजियांग में मानवाधिकारों का उल्लंघन और दक्षिण चीन सागर में विस्तारवादी इरादों को लेकर भी चीन सवालों के घेरे में है. अमेरिका सहित कई प्रमुख देशों के साथ व्यापार के मुद्दे पर तनाव और बीआरआई (बेल्ड एंड रोड इनिशिएटिव) को लेकर भी चीन का रवैया कठघरे में है. हाल ही में लद्दाख सीमा पर भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ का प्रयास और नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप भी सुर्खियों में रहा है. इन सबसे महत्वपूर्ण चीन की ऋण जाल कूटनीति ने इसे अन्य राष्ट्रों से अलग-थलग कर दिया है.

क्या है ऋण जाल की कूटनीति
यह वाक्यांश (डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी यानी ऋण जाल की कूटनीति) प्रख्यात भू-रणनीतिकार और लेखक ब्रह्मा चेलानी ने 2010 के शुरुआती वर्षों में विकासात्मक परियोजनाओं के लिए अफ्रीकी राष्ट्रों को ऋण देने से संबंधित चीन की नीतियों का वर्णन करने के लिए तैयार किया था. हालांकि, अब इसका उपयोग चीन द्वारा दिए जाने वाले ऋणों के लिए किया जा रहा है. डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी का अर्थ है कि चीन द्वारा दिए गए ऋण की शैली और शर्तें. इनके तहत चीन कर्जदारों से भारी कीमतें वसूलता है और धीरे-धीरे अपने हितों के लिए उनके मामलों में हस्तक्षेप भी शुरू कर देता है.

यह कैसे काम करती है
आमतौर पर चीन मुख्य रूप से कम आय वाले विकासशील देशों (एलआईडीसी) को आसानी से ऋण प्रदान करता है. ऐसे देशों को विकास से जुड़ी परियोजनाओं के लिए धन की सख्त जरूरत होती है, लेकिन परियोजना निष्पादन, पुनर्भुगतान और पारदर्शिता के सख्त मानदंडों के कारण अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से वे धन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होते. एलआईडीसी में से कई देश इसलिए विदेशी कंपनियों द्वारा लाई गई राशि को भी तरजीह देते हैं. इसी मौके पर यहां चीनी कंपनियों का प्रवेश होता है.

चीन की अर्थव्यवस्था विनिर्माण और निर्यात आधारित है. चीन की सरकार, बैंक और निजी ऋणदाता परियोजनाओं के लिए बोली लगाने वाली कंपनियों को धनराशि प्रदान करते हैं. इस तरह के लोन के बदले में कभी-कभी 6 फीसदी तक की ऊंची ब्याज दर वसूल की जाती है. यह ब्याज दर अंतरराष्ट्रीय निकायों जैसे आईएमएफ, विश्व बैंक आदि द्वारा वसूले जाने वाले 3-4% ब्याज दर के मुकाबले काफी ज्यादा होती है. यहीं से शुरू होता है असली अनैतिक खेल.

राशि लाने वाली चीनी कंपनी, परियोजना के लिए असामान्य रूप से ऊंची लागत की बोली लगाती है. लेकिन इस धन को हासिल करना बहुत आवश्यक होता है, इसलिए व्यापार करने के लिए पारदर्शी निविदा प्रक्रिया को अपनाए बिना अनुबंध पूरा कर दिया जाता है. इसके अलावा राशि प्राप्त करने से जुड़ीं अन्य महत्वपूर्ण शर्तों को मानना भी अनिवार्य होता है, जिनमें एक चीनी कंपनी को अनुबंध देना, चीनी उपकरण, चीनी परियोजना प्रबंधन और कई मामलों में चीनी श्रम को शामिल करना शामिल है.

इस प्रकार, परियोजना की लागत का एक बड़ा हिस्सा, जो पहले से ही बहुत अधिक है, ठेकेदार को वापस चला जाता है. यदि उधार लेने वाला राष्ट्र समय पर ऋण या किश्तों का भुगतान करने में विफल रहता है तो जमानत राशि जब्त कर ली जाती है. हालांकि, अनुबंधों की बहुत अपारदर्शी प्रकृति, लागत में लगातार वृद्धि, ठेकेदारों द्वारा परियोजनाओं को बीच मझधार छोड़ देना और जमानात राशि को जब्त करना. ये सभी चीन के गलत मकसद की ओर इशारा करते हैं.

क्या कहता है अध्ययन
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, अब तक चीन 152 देशों को 1.5 ट्रिलियन डॉलर (भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग आधा) ऋण आवंटित कर चुका है. लेकिन कील इंस्टीट्यूट ऑफ वर्ल्ड इकोनॉमी के अनुसार, अगर हम विकसित देशों से चीन द्वारा खरीदे गए निवेश सूची के ऋणों और विभिन्न भागीदारों के लिए विस्तारित व्यापार ऋण को शामिल करते हैं, तो समूचे रूप से यह लगभग 5 ट्रिलियन डॉलर (विश्व अर्थव्यवस्था का 6%) के करीब आता है.

ये ऋण या तो बहुत अधिक चीनी बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) का हिस्सा होते हैं या व्यक्तिगत आधार पर दिए जाते हैं. ऋण जाल की सीमा वर्तमान में इस बात से स्पष्ट होती है कि 12 देशों में (जिबूती, टोंगा, कांगो गणराज्य, किर्गिस्तान, मालदीव, कंबोडिया, नाइजर, लाओस, जाम्बिया, समोआ, मंगोलिया और वानुअतु), चीनी ऋण, उनके सकल घरेलू उत्पाद के 20% से अधिक अनुपात में है.

पढ़ें :- क्या भारत-नेपाल के बीच खटास की वजह चीनी कूटनीति?

किस देश पर है चीनी ऋण का दबाव
इस चीनी ऋण के दबाव में, जिबूती ने चीन को विदेश में पहला चीनी सैन्य अड्डा स्थापित करने की अनुमति दी. श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्षों के लिए पट्टे पर देना पड़ा, जिसे चीनी ऋण लेकर बनाया गया था, क्योंकि श्रीलंका ऋण की किश्तों का भुगतान नहीं कर सका. तेल समृद्ध देश अंगोला में, जो तेल के माध्यम से 43 बिलियन अमेरिकी डॉलर का चीनी ऋण चुका रहा है, चीन ने राजधानी लुआंडा के पास पूरे एक नए शहर का निर्माण किया है. तंजानिया, मलेशिया और यहां तक कि पाकिस्तान को ऋण चुकाने में असमर्थता के डर से परियोजनाओं को बीच में ही रोकना पड़ा है.

मलेशिया में एक परियोजना के लिए, ऋण द्वारा 90% लागत का भुगतान किया गया था. लेकिन 15% काम भी नहीं किया गया, जिससे महाथिर मोहम्मद के नेतृत्व की सरकार को परियोजना को समाप्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा. पाकिस्तान में, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) परियोजनाओं की लागत, जिसकी परिकल्पना मूल रूप से 36 बिलियन अमेरिकी डॉलर की गई थी, 64 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई थी और अब 80 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की संभावना जातई जा रही है.

पढ़ें :- विशेष : 'ड्रैगन' की दक्षिण-चीन सागर में वर्चस्व स्थापित करने की नीति

यह आरोप लगाया जाता है कि परियोजनाओं को हथियाने के लिए चीनी कंपनियों द्वारा 2.5 बिलियन डॉलर की रिश्वत का भुगतान किया गया था. यदि हमारा पड़ोसी देश लोन के लिए चीन के साथ पेंच लड़ाना बंद नहीं करता तो यह जल्द ही लगभग 8 बिलियन डॉलर का कर्जदार हो जाएगा. यह एक निश्चित रूप से अभेद्य जाल है, जिसके संकेत पहले ही दिखने शुरू हो गए हैं. कई कर्जदारों ने जाल का दंश महसूस करना शुरू कर दिया है और भविष्य के ऋणों के लिए कहीं और विकल्प तलाशने की कोशिश कर रहे हैं.

चीनी ऋण के पैमाने में भारत
चीन की इस कुटिल योजना के सामने भारत कहां खड़ा है? हम अपने अनुदान, ऋण, सहायता आदि के माध्यम से कई विकासशील देशों में मौजूद हैं. यद्यपि हम चीनी ऋण के पैमाने और गति से मेल नहीं खा सकते हैं, फिर भी हम निश्चित रूप से चीन की तुलना में बहुत अधिक सद्भावना का आनंद लेते हैं. हालांकि, चीन की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था ने भी महामारी से भारी नुकसान उठाया है, लेकिन हम इस संकट को अवसर में भी बदल सकते हैं. हमारे लिए चीन के खिलाफ पनप रहा असंतोष अवसर बन सकता है, यदि हम किसी तरह जरूरतमंद देशों को कुछ आसान किश्तों में ऋण मुहैया करा सकें. यदि ऐसा करने में हम सफल रहे तो लंबी अवधि के लिए इससे अच्छा लाभांश प्राप्त किया जा सकेगा.

(जे.के. त्रिपाठी - पूर्व राजनयिक)

चीन को विभिन्न क्षेत्रों में अपनी नीतियों को लेकर अभूतपूर्व आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. कोरोना वायरस के प्रसार की जानकारी छिपाना या उसे गलत तरीके से पेश करने को लेकर अमेरिका सहित कई अन्य देश भी चीन पर आक्रामक हैं. इसके अलावा हांगकांग के लिए पारित किए गए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को लेकर भी उसकी आलोचना हो रही है.

तिब्बत व शिनजियांग में मानवाधिकारों का उल्लंघन और दक्षिण चीन सागर में विस्तारवादी इरादों को लेकर भी चीन सवालों के घेरे में है. अमेरिका सहित कई प्रमुख देशों के साथ व्यापार के मुद्दे पर तनाव और बीआरआई (बेल्ड एंड रोड इनिशिएटिव) को लेकर भी चीन का रवैया कठघरे में है. हाल ही में लद्दाख सीमा पर भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ का प्रयास और नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप भी सुर्खियों में रहा है. इन सबसे महत्वपूर्ण चीन की ऋण जाल कूटनीति ने इसे अन्य राष्ट्रों से अलग-थलग कर दिया है.

क्या है ऋण जाल की कूटनीति
यह वाक्यांश (डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी यानी ऋण जाल की कूटनीति) प्रख्यात भू-रणनीतिकार और लेखक ब्रह्मा चेलानी ने 2010 के शुरुआती वर्षों में विकासात्मक परियोजनाओं के लिए अफ्रीकी राष्ट्रों को ऋण देने से संबंधित चीन की नीतियों का वर्णन करने के लिए तैयार किया था. हालांकि, अब इसका उपयोग चीन द्वारा दिए जाने वाले ऋणों के लिए किया जा रहा है. डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी का अर्थ है कि चीन द्वारा दिए गए ऋण की शैली और शर्तें. इनके तहत चीन कर्जदारों से भारी कीमतें वसूलता है और धीरे-धीरे अपने हितों के लिए उनके मामलों में हस्तक्षेप भी शुरू कर देता है.

यह कैसे काम करती है
आमतौर पर चीन मुख्य रूप से कम आय वाले विकासशील देशों (एलआईडीसी) को आसानी से ऋण प्रदान करता है. ऐसे देशों को विकास से जुड़ी परियोजनाओं के लिए धन की सख्त जरूरत होती है, लेकिन परियोजना निष्पादन, पुनर्भुगतान और पारदर्शिता के सख्त मानदंडों के कारण अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से वे धन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होते. एलआईडीसी में से कई देश इसलिए विदेशी कंपनियों द्वारा लाई गई राशि को भी तरजीह देते हैं. इसी मौके पर यहां चीनी कंपनियों का प्रवेश होता है.

चीन की अर्थव्यवस्था विनिर्माण और निर्यात आधारित है. चीन की सरकार, बैंक और निजी ऋणदाता परियोजनाओं के लिए बोली लगाने वाली कंपनियों को धनराशि प्रदान करते हैं. इस तरह के लोन के बदले में कभी-कभी 6 फीसदी तक की ऊंची ब्याज दर वसूल की जाती है. यह ब्याज दर अंतरराष्ट्रीय निकायों जैसे आईएमएफ, विश्व बैंक आदि द्वारा वसूले जाने वाले 3-4% ब्याज दर के मुकाबले काफी ज्यादा होती है. यहीं से शुरू होता है असली अनैतिक खेल.

राशि लाने वाली चीनी कंपनी, परियोजना के लिए असामान्य रूप से ऊंची लागत की बोली लगाती है. लेकिन इस धन को हासिल करना बहुत आवश्यक होता है, इसलिए व्यापार करने के लिए पारदर्शी निविदा प्रक्रिया को अपनाए बिना अनुबंध पूरा कर दिया जाता है. इसके अलावा राशि प्राप्त करने से जुड़ीं अन्य महत्वपूर्ण शर्तों को मानना भी अनिवार्य होता है, जिनमें एक चीनी कंपनी को अनुबंध देना, चीनी उपकरण, चीनी परियोजना प्रबंधन और कई मामलों में चीनी श्रम को शामिल करना शामिल है.

इस प्रकार, परियोजना की लागत का एक बड़ा हिस्सा, जो पहले से ही बहुत अधिक है, ठेकेदार को वापस चला जाता है. यदि उधार लेने वाला राष्ट्र समय पर ऋण या किश्तों का भुगतान करने में विफल रहता है तो जमानत राशि जब्त कर ली जाती है. हालांकि, अनुबंधों की बहुत अपारदर्शी प्रकृति, लागत में लगातार वृद्धि, ठेकेदारों द्वारा परियोजनाओं को बीच मझधार छोड़ देना और जमानात राशि को जब्त करना. ये सभी चीन के गलत मकसद की ओर इशारा करते हैं.

क्या कहता है अध्ययन
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, अब तक चीन 152 देशों को 1.5 ट्रिलियन डॉलर (भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग आधा) ऋण आवंटित कर चुका है. लेकिन कील इंस्टीट्यूट ऑफ वर्ल्ड इकोनॉमी के अनुसार, अगर हम विकसित देशों से चीन द्वारा खरीदे गए निवेश सूची के ऋणों और विभिन्न भागीदारों के लिए विस्तारित व्यापार ऋण को शामिल करते हैं, तो समूचे रूप से यह लगभग 5 ट्रिलियन डॉलर (विश्व अर्थव्यवस्था का 6%) के करीब आता है.

ये ऋण या तो बहुत अधिक चीनी बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) का हिस्सा होते हैं या व्यक्तिगत आधार पर दिए जाते हैं. ऋण जाल की सीमा वर्तमान में इस बात से स्पष्ट होती है कि 12 देशों में (जिबूती, टोंगा, कांगो गणराज्य, किर्गिस्तान, मालदीव, कंबोडिया, नाइजर, लाओस, जाम्बिया, समोआ, मंगोलिया और वानुअतु), चीनी ऋण, उनके सकल घरेलू उत्पाद के 20% से अधिक अनुपात में है.

पढ़ें :- क्या भारत-नेपाल के बीच खटास की वजह चीनी कूटनीति?

किस देश पर है चीनी ऋण का दबाव
इस चीनी ऋण के दबाव में, जिबूती ने चीन को विदेश में पहला चीनी सैन्य अड्डा स्थापित करने की अनुमति दी. श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्षों के लिए पट्टे पर देना पड़ा, जिसे चीनी ऋण लेकर बनाया गया था, क्योंकि श्रीलंका ऋण की किश्तों का भुगतान नहीं कर सका. तेल समृद्ध देश अंगोला में, जो तेल के माध्यम से 43 बिलियन अमेरिकी डॉलर का चीनी ऋण चुका रहा है, चीन ने राजधानी लुआंडा के पास पूरे एक नए शहर का निर्माण किया है. तंजानिया, मलेशिया और यहां तक कि पाकिस्तान को ऋण चुकाने में असमर्थता के डर से परियोजनाओं को बीच में ही रोकना पड़ा है.

मलेशिया में एक परियोजना के लिए, ऋण द्वारा 90% लागत का भुगतान किया गया था. लेकिन 15% काम भी नहीं किया गया, जिससे महाथिर मोहम्मद के नेतृत्व की सरकार को परियोजना को समाप्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा. पाकिस्तान में, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) परियोजनाओं की लागत, जिसकी परिकल्पना मूल रूप से 36 बिलियन अमेरिकी डॉलर की गई थी, 64 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई थी और अब 80 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की संभावना जातई जा रही है.

पढ़ें :- विशेष : 'ड्रैगन' की दक्षिण-चीन सागर में वर्चस्व स्थापित करने की नीति

यह आरोप लगाया जाता है कि परियोजनाओं को हथियाने के लिए चीनी कंपनियों द्वारा 2.5 बिलियन डॉलर की रिश्वत का भुगतान किया गया था. यदि हमारा पड़ोसी देश लोन के लिए चीन के साथ पेंच लड़ाना बंद नहीं करता तो यह जल्द ही लगभग 8 बिलियन डॉलर का कर्जदार हो जाएगा. यह एक निश्चित रूप से अभेद्य जाल है, जिसके संकेत पहले ही दिखने शुरू हो गए हैं. कई कर्जदारों ने जाल का दंश महसूस करना शुरू कर दिया है और भविष्य के ऋणों के लिए कहीं और विकल्प तलाशने की कोशिश कर रहे हैं.

चीनी ऋण के पैमाने में भारत
चीन की इस कुटिल योजना के सामने भारत कहां खड़ा है? हम अपने अनुदान, ऋण, सहायता आदि के माध्यम से कई विकासशील देशों में मौजूद हैं. यद्यपि हम चीनी ऋण के पैमाने और गति से मेल नहीं खा सकते हैं, फिर भी हम निश्चित रूप से चीन की तुलना में बहुत अधिक सद्भावना का आनंद लेते हैं. हालांकि, चीन की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था ने भी महामारी से भारी नुकसान उठाया है, लेकिन हम इस संकट को अवसर में भी बदल सकते हैं. हमारे लिए चीन के खिलाफ पनप रहा असंतोष अवसर बन सकता है, यदि हम किसी तरह जरूरतमंद देशों को कुछ आसान किश्तों में ऋण मुहैया करा सकें. यदि ऐसा करने में हम सफल रहे तो लंबी अवधि के लिए इससे अच्छा लाभांश प्राप्त किया जा सकेगा.

(जे.के. त्रिपाठी - पूर्व राजनयिक)

Last Updated : Jul 12, 2020, 2:20 PM IST
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