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नवरात्रि स्पेशल: भक्तों की सभी चिंताओं को दूर करती है मां चिंतपूर्णी, दर्शन मात्र से ही दूर होते हैं कष्ट

मां चिन्तपूर्णी का मंदिर ऐतिहासिक और प्राचीन वट वृक्ष के नीचे में स्थित है. यहीं माईदास को स्वप्न में दिव्य कन्या के तौर पर प्रत्यक्ष दर्शन दिए थे. यह अति प्राचिन वट वृक्ष किस युग का है इसका अनुमान लगाना कठिन है.

माता चिंतपूर्णी देवी मंदिर
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Published : Sep 28, 2019, 11:30 PM IST

Updated : Sep 29, 2019, 12:02 AM IST

ऊना: माता चिंतपूर्णी देवी का मंदिर भारत का प्राचीन मंदिर है. ये मंदिर हिमाचल प्रदेश के ऊना जिला में स्थित है. चिंतपूर्णी मंदिर को छिन्नमस्तिका के नाम से भी जाना जाता है. मां चिंतपूर्णी देवी का मंदिर 51 सिद्व पीठों में एक है. मां चिंतपूर्णी देवी के दर्शनों के लिए भक्त पूरे भारत से आते हैं. ऐसा माना जाता है कि चिंतपूर्णी मंदिर की स्थापना एक सारस्वत ब्राह्मण माई दास ने की थी. आज भी उनके वंशज चिंतपूर्णी में रहते हैं और मंदिर में पूजा करते हैं.

साल भर यहां देश विदेश से हजारों श्रद्धालु माथा टेकने आते हैं, लेकिन नवरात्रों में यहां भक्तों की भारी भीड़ देखी जाती है. माना जाता है कि दर्शन भर से ही भक्तों को समस्त चिन्ताओ से मुक्ति मिलती है. माता के यहां पिंडी रूप में पूजा होती है. पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शंकर देवी सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्मांड चक्कर लगा रहे थे, इसी दौरान भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया था. इस दौरान यहां सत्ती के चरण गिरे थे. इसलिए इसे चिंतपूर्णी के नाम से जाना जाता है. इसे छिन्नमस्तिका देवी भी कहा जाता है.

वीडियो.

प्राचीन वट वृक्ष
मां चिन्तपूर्णी का मंदिर ऐतिहासिक और प्राचीन वट वृक्ष के नीचे में स्थित है. यहीं माईदास को स्वप्न में दिव्य कन्या के तौर पर प्रत्यक्ष दर्शन दिए थे. यह अति प्राचिन वट वृक्ष किस युग का है इसका अनुमान लगाना कठिन है. भक्तगण मन्नत मान कर इसी वट वृक्ष पर लाल डोरी (कलावा) बांधते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने पर माता के दरबार में नतमस्तक होकर धागे को खोल देते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस वट वृक्ष में धागा बांधने पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

ज्योतिष और शास्त्रों के अनुसार चिंतपूर्णी चालीसा में लिखा है कि माता चिंतपूर्णी चार शिवलिंग में घिरी हुई हैं. इनमें से एक मंदिर गगरेट के पास शिववाड़ी में स्थित है. दूसरा मंदिर अंब के पास कालेश्वर धाम के पास है. सतलुज दरिया बनने के समय यह दो मंदिर अलोप हो गए थे.

नवरात्रों में चिंतपूर्णी मंदिर को विशेष तौर पर सजाया जाता है. सुबह छह बजे से माता के शाही स्नान के बाद 7 बजे से लेकर 8 बजे तक देवी मां की महाआरती होती है. नवरात्रों के दौरान 9 दिन तक मेलों का भी आयोजन किया जाता है. इस दौरान श्रद्धालुओं को कोई परेशानी न हो इसके लिए प्रशासन पुख्ता प्रबंध करता है.

ऊना: माता चिंतपूर्णी देवी का मंदिर भारत का प्राचीन मंदिर है. ये मंदिर हिमाचल प्रदेश के ऊना जिला में स्थित है. चिंतपूर्णी मंदिर को छिन्नमस्तिका के नाम से भी जाना जाता है. मां चिंतपूर्णी देवी का मंदिर 51 सिद्व पीठों में एक है. मां चिंतपूर्णी देवी के दर्शनों के लिए भक्त पूरे भारत से आते हैं. ऐसा माना जाता है कि चिंतपूर्णी मंदिर की स्थापना एक सारस्वत ब्राह्मण माई दास ने की थी. आज भी उनके वंशज चिंतपूर्णी में रहते हैं और मंदिर में पूजा करते हैं.

साल भर यहां देश विदेश से हजारों श्रद्धालु माथा टेकने आते हैं, लेकिन नवरात्रों में यहां भक्तों की भारी भीड़ देखी जाती है. माना जाता है कि दर्शन भर से ही भक्तों को समस्त चिन्ताओ से मुक्ति मिलती है. माता के यहां पिंडी रूप में पूजा होती है. पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शंकर देवी सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्मांड चक्कर लगा रहे थे, इसी दौरान भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया था. इस दौरान यहां सत्ती के चरण गिरे थे. इसलिए इसे चिंतपूर्णी के नाम से जाना जाता है. इसे छिन्नमस्तिका देवी भी कहा जाता है.

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प्राचीन वट वृक्ष
मां चिन्तपूर्णी का मंदिर ऐतिहासिक और प्राचीन वट वृक्ष के नीचे में स्थित है. यहीं माईदास को स्वप्न में दिव्य कन्या के तौर पर प्रत्यक्ष दर्शन दिए थे. यह अति प्राचिन वट वृक्ष किस युग का है इसका अनुमान लगाना कठिन है. भक्तगण मन्नत मान कर इसी वट वृक्ष पर लाल डोरी (कलावा) बांधते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने पर माता के दरबार में नतमस्तक होकर धागे को खोल देते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस वट वृक्ष में धागा बांधने पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

ज्योतिष और शास्त्रों के अनुसार चिंतपूर्णी चालीसा में लिखा है कि माता चिंतपूर्णी चार शिवलिंग में घिरी हुई हैं. इनमें से एक मंदिर गगरेट के पास शिववाड़ी में स्थित है. दूसरा मंदिर अंब के पास कालेश्वर धाम के पास है. सतलुज दरिया बनने के समय यह दो मंदिर अलोप हो गए थे.

नवरात्रों में चिंतपूर्णी मंदिर को विशेष तौर पर सजाया जाता है. सुबह छह बजे से माता के शाही स्नान के बाद 7 बजे से लेकर 8 बजे तक देवी मां की महाआरती होती है. नवरात्रों के दौरान 9 दिन तक मेलों का भी आयोजन किया जाता है. इस दौरान श्रद्धालुओं को कोई परेशानी न हो इसके लिए प्रशासन पुख्ता प्रबंध करता है.

Intro:माता श्री चिन्तपूर्णी इतिहासBody:माता श्री चिन्तपूर्णी का इतिहास,भक्त माईदास की कथा,
कहा जाता है कि माईदास नामक दुर्गा माता के एक श्रदालु भक्त ने इस जगह की खोज की थी दन्त कथा के अनुसार ---
भक्त माईदास जी के पिता जी पटियाला में रहते थे माईदास के पिता जी बड़े तेजस्वी व दुर्गा माता के परम भक्त थे इनके तीन लड़के थे देवीदास, दुर्गादास व माईदास|माईदास सबसे छोटा लड़का था| उस समय मुसलमानों का अत्याचार जोरो पर था माईदास के पिता जी मुसलमानों के अत्याचारों से बहुत दुखी थे वह पटियाला के अठूर नामी जगह को छोड़ कर रपोह नामक स्थान जो कि रियासत अम्ब जिला ऊना में हैं आ बसे| माईदास जी अपने पिता जी की तरह ही दुर्गा माता के बड़े भक्त थे ओर भगवती पूजा में अटल विश्वास रखते थे उन का अधिकांश समय दुर्गा पूजा व भजन कीर्तन में व्यतीत हो जाता था जिस कारण वह घर के काम काज में अपने बड़े भाइयों का हाथ नही बंटा पाते जिस कारण वड़े भाई माईदास से नाराज रहते थे परन्तु माईदास के पिता जी,माईदास की भक्ति व दुर्गा पूजा से बड़े सन्तुष्ट थे
माईदास जी की शादी पिता के होते हुए ही होगई थी,कुछ समय के वाद माईदास जी के पिता जी का देहांत हो गया| उस के वाद भाईयो ने माईदास को अलग कर दिया गया|माईदास जी को अलग हो कर कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा| परन्तु गरीवी में भी माईदास ने अपनी दुर्गा भक्ति में कोई भी कमी नही आने दी व माता जी पर पूरा भरोसा रखा| एक दिन माईदास जी अपने ससुराल जा रहे थे चलते चलते रास्ते में वट वृक्ष के नीचे थकावट के कारण आराम करने बैठ गए जिस वट वृक्ष के नीचे माईदास जी आराम करने के लिए बैठे आज वहाँ भगवती का मंदिर हैं उस समय वहाँ घना जंगल था इस जगह का नाम छपरोह था,जिसे आज कल चिन्तपूर्णी के नाम से जाना जाता हैं माईदास वट वृक्ष के पास आराम करने के लिए लेट गए| कुछ देर बाद थकावट के कारण उनकी आँख लग गईं| माईदास जी स्वप्न अवस्था मे क्या देखते हैं कि एक छोटी आयु की कन्या जिसके चेहरे पर बड़ा प्रकाश व तेज प्रतीत होता हैं दिखाई देती हैं और माईदास के कानों में आवाज सुनाई देती हैं माईदास तुम यहाँ पर रह कर मेरी सेवा करो|इसी से तुम्हारा भला होगा| इतने में माईदास जी की आँख खुल गई चारों तरफ देखा तो कुछ दिखाई नही दिया|
तत्पश्चात माईदास जी उठकर अपने ससुराल की तरफ चल दिये जव वापिस अपने घर की तरफ़ चले तो वट वृक्ष तक का रास्ता तो आसानी से कट गया जब वे वट वृक्ष के आगे जाते तो कुछ भी दिखाई नही देता उस के वाद माईदास जी वही वट वृक्ष के पास वैठ गए व सोचने लगें कि वह स्वपन कही माता जी का चमत्कार तो नहीं था माईदास जी ने माँ भगवती से प्रार्थना की हैं भगवती माँ मुझ सेवक को दर्शन दे कर कृतार्थ करे माईदास की प्रार्थना सुन कर भगवती माँ कन्या रूप में प्रकट हुई कन्या का तेज देख कर माईदास ने पहचानने में देर ना कि वह कन्या के चरणों में गिर पड़े ये वही कन्या थी जो माईदास को स्वपन में दिखाई दी थी माईदास ने माँ भगवती से प्रार्थना की हे भगवती माँ मैं मन्दबुद्धि जीव हूँ मुझ सेवक पर दया कर के आज्ञा दीजिए कि मैं आपकी क्या सेवा करू ताकि मेरा जीवन सफल हो
कन्या रूपी माँ भगवती वोली हे वत्स मैं इस वट वृक्ष के नीचे चिरकाल से विराजमान हूँ लोग मुसलमानों और राक्षसों के अत्याचारों के बढ़ने से इस स्थान की महानता को भूल गए हैं अब मैं इस वट वृक्ष के नीचे पिंडी रूप में नजर आऊँगी तुम दोनों समय मेरी पूजा व भजन किया करना,मैं छिन्नमस्तिका के नाम से पुकारी जाती हूँ यहाँ आने वाले भक्त जनों की चिंता मुक्त करने के कारण चिन्तपुरनी के नाम से भी स्मरण करेंगे,
माईदास जी ने कहाँ माँ भगवती मै अनपढ़ निर्बल इस भयानक जंगल मे जहाँ दिन में भी डर लगता हैं व रात को किस तरह रहूँगा न तो यहाँ पीने का पानी हैं न ही आप का स्थान बना है ना नही यहाँ कोई जीव जन्तु हैं जिसके सहारे मैं अपना जीवन व्यतीत कर सकूं
माँ भगवती ने कहाँ में तुम्हें अभय दान देती हूँ
अब इस जंगल में कोई डर न होगा "ओ३म ए ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चै:" मंत्र द्वारा मेरी पूजा किया करना|यह स्थान वैसे भी चारों महरुद्रो के मध्य हैं इस सीमा के अंदर तुम बिना डर के रहो नीचे जा कर जिस पत्थर को उखाड़ो गे वहाँ पर जल निकल आएगा जिस से पानी की समस्या हल हो जाएगी मेरी पूजा का अधिकार तुम को ओर तुम्हारे बंश को होगा जिन भक्तों की चिंता मैं दूर करुँगी वे मंदिर भी बनवा देंगे, जो चढ़ावा चढ़ेगा उसका अधिकार तुम को ओर तुम्हारे परिवार को होगा इससे तुम्हारा गुजारा हो जाएगा,किसी बात से घबराना नहीं|परन्तु मेरी पूजा में स्वच्छ सामग्री का इस्तेमाल करना|फिर कभी इस रूप में दर्शन न हो सकेगा|मैं पिंडी रूप में अब आप के यहाँ रहूँगी यदि कोई बात करने की जरूरत हुआ करेगी तो मैं किसी कन्या पर रोशनी डाल कर कहलवा दिया करुँगी भूमि पर सोये हुए सेवक की रक्षा मैं स्वंय करुँगी
ऐसा कह कर माता भगवती जी पिंडी रूप में लोप हो गई|
माता जी के कहे अनुसार माईदास ने नीचे जा कर एक पत्थर उखाड़ा,बहा से पानी निकल आया|माईदास की खुशी का ठिकाना न रहा|वह पत्थर मन्दिर में आज भी रखा हुआ है,
माईदास ने रहने के लिए उस पानी वाली जगह के पास अपनी कुटिया बना ली व प्रति दिन नियम पूर्वक भगवती जी की पावन पिंडी का पूजन शुरू कर दिया आज दिन तक भक्त माईदास जी के वंशज ही माता चिन्तपुरनी की पूजा करते आ रहे हैं माईदास जी के दो पुत्र थे कुल्लू ओर बिल्लू, ये दोनों भी अपने पिता व दादा की भांति माँ भगवती के उपासक रहे कहा जाता हैं कि बिल्लू जी ने अपने प्राण समाधिस्थ हो कर त्याग दिए थे कुल्लू जी का वंश अव तक चला रहा हैं जिसकी शाखाएं वारी के अनुसार प्रतिदिन माँ भगवती चिन्तपुरनी की पूजा अर्चना करती हैं
धीरे धीरे श्रद्धालुओं की चिंता दूर होने पर यहाँ छोटा सा मन्दिर स्थापित हो गया फिर माता जी के कुछ चमत्कार होने पर भक्तों द्वारा बड़ा मंदिर बनवाया ओर यात्रा दिन प्रतिदिन बढ़ती रही आज उसी स्थान पर माता श्री चिन्तपुरनी जी का विशाल व भव्य मंदिर बन गया हैं हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु माता के दरवार पहुँचते हैं व माता श्री चिन्तपुरनी जी की पावन पिंडी के दर्शन करते हैंConclusion:
Last Updated : Sep 29, 2019, 12:02 AM IST
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