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प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है चिंतपूर्णी धाम, जानें इसका इतिहास

17 अक्टूबर से शारदीय नवरात्र शुरु हो रहे हैं. ऐसे में प्रदेश के सभी शक्तिपीठों और मंदिरों को सजा दिया गया है. इन जगहों पर सरकार की गाइडलाइन के अनुसार लोग मंदिरों में मां के दर्शन कर सकेंगे. इसी के चलते जिला ऊना में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ चिंतपूर्णी मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी देंगे. ये मंदिर भारत का प्राचीन मंदिर है, जो कि हिमाचल प्रदेश और पंजाब राज्य की सीमा पर स्थित है.

Chintpurni Temple
चिंतपूर्णी मंदिर
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Published : Oct 16, 2020, 8:14 PM IST

चिंतपूर्णी: 17 अक्टूबर से शारदीय नवरात्र शुरु हो रहे हैं. ऐसे में प्रदेश के सभी शक्तिपीठों और मंदिरों को सजा दिया गया है. इन जगहों पर सरकार की गाइडलाइन के अनुसार लोग मंदिरों में मां के दर्शन कर सकेंगे. इसी के चलते जिला ऊना में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ चिंतपूर्णी मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी देंगे. ये मंदिर भारत का प्राचीन मंदिर है, जो कि हिमाचल प्रदेश और पंजाब राज्य की सीमा पर स्थित है.

जालंधर दैत्य के तप से हुई थी छिन्नमस्तिका की स्थापना

मां छिन्नमस्तिका इस क्षेत्र में जालंधर दैत्य की आराधना से स्थापित हुई थीं. त्रेता युग में जलधर दैत्य भगवान शिव के क्रोध से उत्पन्न हुए थे. जलंधर दैत्य भगवान विष्णु, शिव व ब्रह्मा का महान तपस्वी था. उसने दस महाविद्याओं में से आठ पर सिद्धि प्राप्त कर ली थी. इसके बाद उसने देवताओं पर अत्याचार करने शुरु कर दिए थे. जलधर दैत्य की पत्नी वृंदा पतिव्रता स्त्री थीं. वह भी शिव उपासक थीं. वह उसे सभी मुसीबतों से बचा लेती थीं.

वहीं, अत्याचारों से तंग आकर देवताओं ने भगवान शिव से गुहार लगाई. इसपर भगवान शिव ने जालंधर दैत्य का खुद वध करने का फैसला किया, लेकिन जालंधर दैत्य के श्राप से बचने के लिए भगवान विष्णु को उन्होंने भेष बदलकर वध करने के लिए कहा. भगवान विष्णु ने दैत्य का वध कर दिया.

वीडियो रिपोर्ट.

अपने जीवन के अंतिम क्षणों में जालंधर दैत्य ने भगवान शिव से वरदान प्राप्त किया कि किसी भी उपासक के जलंधर पीठ क्षेत्र में शैव व शांक की आराधना करने पर आराधना चार गुना अधिक फलित होगी. जालंधर दैत्य ने जालंधर पीठ क्षेत्र में 365 देवालयों व चार द्वारपालों की स्थापना की थी. यह कालेश्वर महादेव, कुंजेश्वर महादेव (लम्बा गांव), नंदीकेश्वर महादेव (चामुंडा), कुवेश्वर महादेव (जो अब पौंग बांध में जलमग्न हो चुका है), जलंधर पीठ की चारों दिशाओं से रक्षा करते थे.

मां चिंतपूर्णी ने बाबा माईदास को दिए थे दर्शन

त्रेता युग में जालंधर दैत्य ने कठोर तपस्या कर सर्वप्रथम छिन्नमस्तिका को चिंतपूर्णी में स्थापित किया था. उसके बाद मुगलों के अत्याचार व उनके हिंदुओं के धार्मिक स्थलों को नष्ट कर दिए जाने के कारण लोग इस शक्ति स्थल की महत्ता को भूल गए. 1400वीं ईस्वी में संत माईदास इस स्थान से गुजर रहे थे. तभी मां छिन्नमस्तिका ने बाबा माईदास को दर्शन दिए और वहीं पर उनका मंदिर बनाकर आराधना करने के लिए कहा. बाबा माईदास ने निर्जन जंगल में मां के कहे अनुसार जब एक पत्थर उखाड़ा था, तो उसके नीचे से पानी की धारा बह निकली. मां के चमत्कार से बाबा माईदास इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने वहीं रहकर मां की पूजा-अर्चना शुरू कर दी. आज 700 साल बाद भी बाबा माईदास के वंशज ही चिंतपूर्णी में पूजा-अर्चना कर रहे हैं.

क्यों कहते हैं मां छिन्नमस्तिका

राक्षसों का संहार करने के बाद मां भवानी अपनी सेविकाओं जया व विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं. उस समय सेविकाओं ने उनसे भोजना मांगा. इस पर माता ने अपना सिर काट दिया. कटा हुआ सिर माता के बाएं हाथ पर गिरा, इससे तीन धाराएं बह निकलीं. दो धाराएं उनकी दो सेविकाओं के मुख में बहने लगीं.वहीं, तीसरी धारा कटे हुए मुख में जाने लगी. इसीलिए मां चिंतपूर्णी को छिन्नमस्तिका के नाम से भी पुकारा जाता है.

ये भी पढ़ें: मंदिरों में कोरोना का 'ग्रहण', 100 सालों में दूसरी बार कालीबाड़ी में नहीं विराजेंगी दुर्गा माता

चिंतपूर्णी: 17 अक्टूबर से शारदीय नवरात्र शुरु हो रहे हैं. ऐसे में प्रदेश के सभी शक्तिपीठों और मंदिरों को सजा दिया गया है. इन जगहों पर सरकार की गाइडलाइन के अनुसार लोग मंदिरों में मां के दर्शन कर सकेंगे. इसी के चलते जिला ऊना में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ चिंतपूर्णी मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी देंगे. ये मंदिर भारत का प्राचीन मंदिर है, जो कि हिमाचल प्रदेश और पंजाब राज्य की सीमा पर स्थित है.

जालंधर दैत्य के तप से हुई थी छिन्नमस्तिका की स्थापना

मां छिन्नमस्तिका इस क्षेत्र में जालंधर दैत्य की आराधना से स्थापित हुई थीं. त्रेता युग में जलधर दैत्य भगवान शिव के क्रोध से उत्पन्न हुए थे. जलंधर दैत्य भगवान विष्णु, शिव व ब्रह्मा का महान तपस्वी था. उसने दस महाविद्याओं में से आठ पर सिद्धि प्राप्त कर ली थी. इसके बाद उसने देवताओं पर अत्याचार करने शुरु कर दिए थे. जलधर दैत्य की पत्नी वृंदा पतिव्रता स्त्री थीं. वह भी शिव उपासक थीं. वह उसे सभी मुसीबतों से बचा लेती थीं.

वहीं, अत्याचारों से तंग आकर देवताओं ने भगवान शिव से गुहार लगाई. इसपर भगवान शिव ने जालंधर दैत्य का खुद वध करने का फैसला किया, लेकिन जालंधर दैत्य के श्राप से बचने के लिए भगवान विष्णु को उन्होंने भेष बदलकर वध करने के लिए कहा. भगवान विष्णु ने दैत्य का वध कर दिया.

वीडियो रिपोर्ट.

अपने जीवन के अंतिम क्षणों में जालंधर दैत्य ने भगवान शिव से वरदान प्राप्त किया कि किसी भी उपासक के जलंधर पीठ क्षेत्र में शैव व शांक की आराधना करने पर आराधना चार गुना अधिक फलित होगी. जालंधर दैत्य ने जालंधर पीठ क्षेत्र में 365 देवालयों व चार द्वारपालों की स्थापना की थी. यह कालेश्वर महादेव, कुंजेश्वर महादेव (लम्बा गांव), नंदीकेश्वर महादेव (चामुंडा), कुवेश्वर महादेव (जो अब पौंग बांध में जलमग्न हो चुका है), जलंधर पीठ की चारों दिशाओं से रक्षा करते थे.

मां चिंतपूर्णी ने बाबा माईदास को दिए थे दर्शन

त्रेता युग में जालंधर दैत्य ने कठोर तपस्या कर सर्वप्रथम छिन्नमस्तिका को चिंतपूर्णी में स्थापित किया था. उसके बाद मुगलों के अत्याचार व उनके हिंदुओं के धार्मिक स्थलों को नष्ट कर दिए जाने के कारण लोग इस शक्ति स्थल की महत्ता को भूल गए. 1400वीं ईस्वी में संत माईदास इस स्थान से गुजर रहे थे. तभी मां छिन्नमस्तिका ने बाबा माईदास को दर्शन दिए और वहीं पर उनका मंदिर बनाकर आराधना करने के लिए कहा. बाबा माईदास ने निर्जन जंगल में मां के कहे अनुसार जब एक पत्थर उखाड़ा था, तो उसके नीचे से पानी की धारा बह निकली. मां के चमत्कार से बाबा माईदास इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने वहीं रहकर मां की पूजा-अर्चना शुरू कर दी. आज 700 साल बाद भी बाबा माईदास के वंशज ही चिंतपूर्णी में पूजा-अर्चना कर रहे हैं.

क्यों कहते हैं मां छिन्नमस्तिका

राक्षसों का संहार करने के बाद मां भवानी अपनी सेविकाओं जया व विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं. उस समय सेविकाओं ने उनसे भोजना मांगा. इस पर माता ने अपना सिर काट दिया. कटा हुआ सिर माता के बाएं हाथ पर गिरा, इससे तीन धाराएं बह निकलीं. दो धाराएं उनकी दो सेविकाओं के मुख में बहने लगीं.वहीं, तीसरी धारा कटे हुए मुख में जाने लगी. इसीलिए मां चिंतपूर्णी को छिन्नमस्तिका के नाम से भी पुकारा जाता है.

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