नाहन: छोटे से पहाड़ी राज्य हिमाचल को यू हीं अद्भुत नहीं कहा जाता. यहां कई लोक परंरपराएं, रीति रिवाज हैं. हिमाचल को त्यौहारों की धरती भी कहा जाता है. यहां हर क्षेत्र का अपना त्यौहार है. एक ऐसा ही त्यौहार है जो ऊपरी हिमाचल में बड़े जश्न के साथ मनाया जाता है. इस दिवाली पर ना तो पटाखों का शोर होता है और ना ही अतिशबाजी का जहरीला धुंआ. इस बूढ़ी दिवाली पर शोर होता है लोक संगीतों का वाद्य यंत्रों की थाप पर थिरकते कदमों का.
बुढ़ी दिवाली पर हाथों में जलती मशालों से पूरा गांव रौशन हो जाता है. बूढ़ी दिवाली शिमला, सिरमौर समेत मंडी के कई इलाकों में मनाई जाती है. बूढ़ी दिवाली दीपावली के एक माह बाद अमावस्या की रात से शुरू होती है.
बूढ़ी दीवाली के पीछे कोई पौराणिक प्रमाण नहीं है. जानकारों का कहना है कि पहाड़ी क्षेत्र होने और आयोध्या से दूर होने के चलते लोगों को श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर एक महीने बाद मिली थी. इसलिए लोग दिवाली के एक महीने बाद बूढ़ी दीवाली मनाते हैं.
वहीं, इसके पीछे का एक कहानी महाभारत काल से भी जुड़ा है. पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन भी करते हैं. अमावस्या की सुबह तड़के हाथ में मशालें लेकर ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते लोग बूढ़ी दिवाली की शुरुआत करते हैं. मशालों का यह जुलूस गांव के बाहर तक जाता है. जहां एकत्र घास फूस को जलाया जाता है.
बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर लोग खाने-पीने के साथ-साथ नाच गाने का भी जमकर लुत्फ उठाते उठाते हैं. कई दिनों तक नाच गाना और मस्ती का दौर चलता है. परंपरागत वेशभूषा में ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते हैं. इस अवसर पर स्थानीय देवी देवताओं की भी विधिवत पूजा की जाती है और उनको दिवाली का हिस्सा अर्पित किया जाता है. त्यौहार की एक खासियत यह भी है कि क्षेत्र के लोग खासकर युवा देश में कहीं भी हों बूढ़ी दिवाली पर अपने घर जरूर पहुंचते हैं.