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अद्भुत हिमाचल: ना पटाखों को शोर..ना अतिशबाजी का धुंआ, दीपावली के एक माह बाद देवभूमि में कुछ ऐसी होती है बूढ़ी दिवाली - Mythological proof of budhi Diwali

ईटीवी भारत की खास सीरीज 'अद्भुत हिमाचल' में अब तक आपने देवभूमि में निभाए जाने वाले कई रोचक रीति-रिवाजों के बारे में जाना. इस सीरीज में आज हम आपको बूढ़ी दीवाली के बारे में बताएंगे. जहां परंपरागत वेशभूषा में लोग ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते-गाते हैं.

Adhbhut himachal
अद्भुत हिमाचल
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Published : Nov 29, 2019, 9:16 AM IST

नाहन: छोटे से पहाड़ी राज्य हिमाचल को यू हीं अद्भुत नहीं कहा जाता. यहां कई लोक परंरपराएं, रीति रिवाज हैं. हिमाचल को त्यौहारों की धरती भी कहा जाता है. यहां हर क्षेत्र का अपना त्यौहार है. एक ऐसा ही त्यौहार है जो ऊपरी हिमाचल में बड़े जश्न के साथ मनाया जाता है. इस दिवाली पर ना तो पटाखों का शोर होता है और ना ही अतिशबाजी का जहरीला धुंआ. इस बूढ़ी दिवाली पर शोर होता है लोक संगीतों का वाद्य यंत्रों की थाप पर थिरकते कदमों का.

बुढ़ी दिवाली पर हाथों में जलती मशालों से पूरा गांव रौशन हो जाता है. बूढ़ी दिवाली शिमला, सिरमौर समेत मंडी के कई इलाकों में मनाई जाती है. बूढ़ी दिवाली दीपावली के एक माह बाद अमावस्या की रात से शुरू होती है.

अद्भुत हिमाचल

बूढ़ी दीवाली के पीछे कोई पौराणिक प्रमाण नहीं है. जानकारों का कहना है कि पहाड़ी क्षेत्र होने और आयोध्या से दूर होने के चलते लोगों को श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर एक महीने बाद मिली थी. इसलिए लोग दिवाली के एक महीने बाद बूढ़ी दीवाली मनाते हैं.

वहीं, इसके पीछे का एक कहानी महाभारत काल से भी जुड़ा है. पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन भी करते हैं. अमावस्या की सुबह तड़के हाथ में मशालें लेकर ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते लोग बूढ़ी दिवाली की शुरुआत करते हैं. मशालों का यह जुलूस गांव के बाहर तक जाता है. जहां एकत्र घास फूस को जलाया जाता है.

बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर लोग खाने-पीने के साथ-साथ नाच गाने का भी जमकर लुत्फ उठाते उठाते हैं. कई दिनों तक नाच गाना और मस्ती का दौर चलता है. परंपरागत वेशभूषा में ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते हैं. इस अवसर पर स्थानीय देवी देवताओं की भी विधिवत पूजा की जाती है और उनको दिवाली का हिस्सा अर्पित किया जाता है. त्यौहार की एक खासियत यह भी है कि क्षेत्र के लोग खासकर युवा देश में कहीं भी हों बूढ़ी दिवाली पर अपने घर जरूर पहुंचते हैं.

ये भी पढे़ं: अद्भुत हिमाचल: यहां लगती है देवी-देवताओं की संसद, आज भी 'जगती पट' लोगों की श्रद्धा का केंद्र

नाहन: छोटे से पहाड़ी राज्य हिमाचल को यू हीं अद्भुत नहीं कहा जाता. यहां कई लोक परंरपराएं, रीति रिवाज हैं. हिमाचल को त्यौहारों की धरती भी कहा जाता है. यहां हर क्षेत्र का अपना त्यौहार है. एक ऐसा ही त्यौहार है जो ऊपरी हिमाचल में बड़े जश्न के साथ मनाया जाता है. इस दिवाली पर ना तो पटाखों का शोर होता है और ना ही अतिशबाजी का जहरीला धुंआ. इस बूढ़ी दिवाली पर शोर होता है लोक संगीतों का वाद्य यंत्रों की थाप पर थिरकते कदमों का.

बुढ़ी दिवाली पर हाथों में जलती मशालों से पूरा गांव रौशन हो जाता है. बूढ़ी दिवाली शिमला, सिरमौर समेत मंडी के कई इलाकों में मनाई जाती है. बूढ़ी दिवाली दीपावली के एक माह बाद अमावस्या की रात से शुरू होती है.

अद्भुत हिमाचल

बूढ़ी दीवाली के पीछे कोई पौराणिक प्रमाण नहीं है. जानकारों का कहना है कि पहाड़ी क्षेत्र होने और आयोध्या से दूर होने के चलते लोगों को श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर एक महीने बाद मिली थी. इसलिए लोग दिवाली के एक महीने बाद बूढ़ी दीवाली मनाते हैं.

वहीं, इसके पीछे का एक कहानी महाभारत काल से भी जुड़ा है. पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन भी करते हैं. अमावस्या की सुबह तड़के हाथ में मशालें लेकर ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते लोग बूढ़ी दिवाली की शुरुआत करते हैं. मशालों का यह जुलूस गांव के बाहर तक जाता है. जहां एकत्र घास फूस को जलाया जाता है.

बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर लोग खाने-पीने के साथ-साथ नाच गाने का भी जमकर लुत्फ उठाते उठाते हैं. कई दिनों तक नाच गाना और मस्ती का दौर चलता है. परंपरागत वेशभूषा में ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते हैं. इस अवसर पर स्थानीय देवी देवताओं की भी विधिवत पूजा की जाती है और उनको दिवाली का हिस्सा अर्पित किया जाता है. त्यौहार की एक खासियत यह भी है कि क्षेत्र के लोग खासकर युवा देश में कहीं भी हों बूढ़ी दिवाली पर अपने घर जरूर पहुंचते हैं.

ये भी पढे़ं: अद्भुत हिमाचल: यहां लगती है देवी-देवताओं की संसद, आज भी 'जगती पट' लोगों की श्रद्धा का केंद्र

Intro:
शिलाई:- ट्रांसगिरी क्षेत्र मे हुडक नृत्य, होल्डा नृत्य के साथ बूढ़ी दिवाली पर्व का आगाज हो गया है।
बूढ़ी दिवाली क्षेत्र मे अगले पांच से सात दिनो तक चलती रहेगी।Body:


बूढ़ी दिवाली के पहले दिन मेहमानों व बाहरी राज्यों से आए लोगो के लिए एक दर्जन से अधिक प्रारंपरिक व्यंजनों से क्षेत्र लबालब रहता है शाम के समय क्षेत्र के गावों में सुबह ब्रह्म मुहर्त के साथ हाथों  में मशाले लिए बुराई को जलाकर अच्छाई की विजय के साथ दिवाली का आगाज हो किया गया है,  दूसरा दिन भियूरी के नाम से मनाया रहेगा, इस दिन बिना बाध्य यंत्र के गाया जाने वाला भियूरी (विरह गीत ) गीत गाया जाएगा उसके बाद गावं की महिलाएं लड़कियों, मेहमानो, बच्चों को मुड़ा, शाकुली, अखरोट, सहित ड्राई व्यंजन बांटे जाएंगे  तथा क्षेत्र में अगले पांच, सात, नौ दिनों तक ढोल नगाड़ों के साथ लोक नृत्य, रासा नृत्य, हारुलों का दौर चलता रहेगा विभिन्न स्थानों पर स्टेज शो का आयोजन किया जाएगा !

किदवंतियां माने तो भियुरी क्षेत्र के गडु स्याणा की बेटी थी जो राजा जालंधर की पत्नी रही है, भियुरी ससुराल से मायके घोड़े पर सवार होकर दिवाली को पहुंच रही थी अचानक संतुलन बिगड़ने से खाई में गिर गई तथा मृत्यु हो गई, बेटी के मरने पर समूचे क्षेत्र में शौक होने से दीवाली पर्व को एक माह बाद बूढ़ी दिवाली के रूप में मनाया जाने लगा है, द्धापर युग में पत्नी हिडिम्बा से मिलने भीम पाताल लोक गए थे जब वापिस धरती पर पहुंचे तो दिवाली पर्व खत्म हो गया था  भीम की जींद के लिए बूढ़ी दिवाली पर्व मनाया गया तथा भववान विष्णु के पांचवें वानन अवतार के बाद बूढ़ी दीवाली पर्व को मनाने का भी किदवंतियों में उलेख मिलता है ! बूढ़ी दिवाली पर्व क्षेत्र में दिवाली की तरह ही बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है !

क्षेत्र में लिपाई पुताई के बाद बूढ़ी दिवाली पर्व में नियमानुसार देवी देवताओं की पूजा अर्चना की जाएगी, एक माह पहले से पर्व की तैयारियां चल की गई है, मेहमानो की खूब आवभगत हो रही है,तेलपक्की, बेडोली, पटांडे, अस्कोली, सीडकु, ऊलउले, गुलगुले सहित एक दर्जन से अधिक लजीज व्यंजनों को बना कर परोसा जा रहा है, क्षेत्र की अनूठी परम्परा ही प्रदेश के रीती रिवाजो से ट्रांसगिरी क्षेत्र की संसकृति को अलग करती है !  सिरमौर के अतिरिक्त कुल्लू के निरमंड, उत्तराखंड प्रदेश के भावर जौनसार तथा राजस्थान के जैसलमेर में बूढ़ी दीवाली पर्व की धूम रहती है !Conclusion:
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