शिमला: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट (Himachal Pradesh High court) ने अनुशासनात्मक कार्रवाई के मामले में महत्वपूर्ण व्यवस्था दी है. न्यायाधीश सत्येन वैद्य ने कहा कि पुलिस के पास दर्ज किया गया बयान आपराधिक मामले के निपटारे के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है. अदालत ने याचिकाकर्ता पर लगाए कदाचार के आरोपों को रद्द करते हुए उसकी सजा को निरस्त कर दिया. न्यायाधीश वैद्य ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत दर्ज किए गए बयान को सही नहीं बताया जा सकता, अगर अदालत के समक्ष पुलिस के मुताबिक गलत बयान दिया गया हो. इसे तय करने का अधिकार सिर्फ अदालत के पास है कि साक्षी ने सही बयान दिया है या नहीं.
मामले के अनुसार याचिकाकर्ता वर्ष 1999 में हेड कांस्टेबल के पद पर किन्नौर जिला में तैनात था. भावानगर पुलिस थाने के अंतर्गत दंगा- फसाद के मामले में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी. उसमें पुलिस ने याचिकाकर्ता को भी साक्षी बनाया था. याचिकाकर्ता ने जांच अधिकारी के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत बयान दिया कि वह इस घटना का चश्मदीद गवाह है. याचिकाकर्ता के बयान के आधार पर आरोपियों के खिलाफ अभियोग चलाया गया.
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने अदालत के समक्ष बयान दिया कि उसके सामने इस तरह की कोई घटना नहीं हुई. पुलिस के अनुसार अदालत में झूठा बयान दिए जाने पर विभाग ने उसे चार्जशीट कर दिया. याचिकाकर्ता के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई अमल में लाई गई. अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने याचिकाकर्ता की पांच वर्ष की अनुमोदित सेवा को जब्त करने की सजा सुनाई थी. इस निर्णय को याचिकाकर्ता ने हाईाकोर्ट के समक्ष चुनौती दी. अदालत ने मामले से जुड़े रिकॉर्ड का अवलोकन के बाद यह निर्णय सुनाया.
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