सोलन: हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार की आज 114वीं जयंती है. देवभूमि को अलग से पहाड़ी राज्य बनाने के लिए उनके संघर्ष को ये लाइनें प्रदर्शीत करती हैं. 'आज हम अहद के खाके बनाकर छोड़ जाएंगे, देखना कल हमारे बाद इनमे कोई रंग भर ही देगा. यह कहना था उस युग पुरुष, योगी और दार्शनिक का जिन्होंने पहाड़ों की भोली-भाली, कम साक्षर व भौगोलिक परिस्थितियों से जूझ रही जनता को विकास के सपने ही नहीं दिखाए, बल्कि उनका पूरा ताना-बाना बुन कर भविष्य की राह पर अग्रसर किया.
वह हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार ही थे, जिन्होंने एलएलबी व पीएचडी होने के बावजूद धन-दौलत या उच्च पदों का लोभ नहीं किया, बल्कि सर्वस्व प्रदेशवासियों को पहाड़ी होने का गौरव दिलाने में अपना जीवन न्योछावर कर दिया. परमार हिमाचल की राजनीति के पुरोधा व प्रथम मुख्यमंत्री ही नहीं थे. बल्कि वह एक राजनेता से कहीं बढ़कर जननायक व दार्शनिक भी थे, जिनकी उस समय की सोच पर आज हिमाचल प्रदेश चल रहा है. विश्वभर में अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात आधुनिक हिमाचल प्रदेश की नींव एक ऐसे शख्स ने रखी थी, जिनकी जीवन भर की पूंजी नैतिकता और ईमानदारी थी. समूची दुनिया उस शख्सियत को हिमाचल निर्माता डॉ. वाईएस परमार के नाम से जानती है.
परमार जब स्वर्ग सिधारे तो उनके खाते में थे महज 563 रुपये
समय के इस दौर में जब राजनेता करोड़ों-अरबों की संपत्ति के मालिक हैं. वहीं, हिमाचल निर्माता ने जब संसार छोड़ा तो उनके खाते में महज 563 रुपये तीस पैसे थे. बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. वाईएस परमार का सारा जीवन ईमानदारी से गुजरा और उन्होंने अपने लिए कोई संपत्ति नहीं बनाई. समूचा प्रदेश डॉ. परमार की जयंती पर उन्हें याद करता है. हिमाचल की राजधानी शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान पर स्थापित प्रतिमाएं सबका ध्यान अपनी तरफ खींचती हैं. इन प्रतिमाओं में एक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और एक प्रतिमा पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की है. वहीं, एक अन्य प्रतिमा अलग से स्थापित है, जिसके नीचे लिखे हैं ये शब्द 'हिमाचल निर्माता डॉ. वाईएस परमार' ये शब्द सभी को जिज्ञासा से भरते हैं. यहां हम आपको हिमाचल निर्माता के जीवन के अनछुए पहलुओं से रू-ब-रू करवाने जा रहे हैं.
मुख्यमंत्री पद से इस्तिफा देकर रोडवेज बस में परमार गए थे अपने गांव
18 साल हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने के बाद डॉ. वाईएस परमार ने जब साल 1977 में सीएम का पद छोड़ा तो वह रोडवेज की बस में बैठकर अपने गांव गए. आज के जमाने में ये बात सुनकर जरूर अटपटा लगता है, लेकिन ये हिमाचल निर्माता की सादगी थी, जिसका आज भी हर कोई कायल है.
उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी परमार थे ठेठ पहाड़ी
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. वाईएस परमार कुशल राजनेता के साथ-साथ कला व साहित्य प्रेमी भी थे. हिंदी, अंग्रेजी और ऊर्दू भाषाओं पर उनकी कमाल की पकड़ थी. डॉ. परमार हमेशा जमीन से जुड़े ठेठ पहाड़ी ही बने रहना पसंद करते थे. सिरमौर के अति दुर्गम व पिछड़े गांव चन्हालग में जन्मे परमार ने सारी उम्र परंपरागत पहाड़ी परिधान लोइया व सुथणु ही पहना. उनका जन्म 4 अगस्त 1906 को सिरमौर जिला की पच्छाद तहसील के गांव चन्हालग में शिवानंद सिंह के घर हुआ था.
परमार की शिक्षा लखनऊ व लाहौर में हुई. उन्होंने वर्ष 1926 में लाहौर से बीए ऑनर्स की परीक्षा पास की. लखनऊ से उन्होंने एमए के साथ एलएलबी की डिग्री हासिल की. लखनऊ से ही परमार ने पीएचडी की डिग्री ली और बाद में हिमाचल यूनिवर्सिटी से डॉक्टर ऑफ लॉ भी बने. वह देहरादून में थियोसॉफिकल सोसायटी के सदस्य भी रहे. गुलाम भारत में रियासती समय में डॉ. परमार 1930 में सिरमौर रियासत के जज बने. उन्होंने सात साल तक न्यायाधीश के तौर पर काम किया बाद में डिस्ट्रिक्ट व सेशन जज बने और 1941 तक इस पद पर बने रहे.
प्रजामंडल आंदोलन के क्रांतिकारियों का समर्थन
हिमाचल में राजशाही के खिलाफ प्रजामंडल आंदोलन शुरू हुआ. इस आंदोलन के क्रांतिकारियों पर झूठे केस दर्ज किए गए. ये मामले जब डॉ. परमार की अदालत में आए तो उन्होंने आंदोलनकारियों के हक में फैसले देना शुरू किया. परमार की यह बात सिरमौर रियासत के राजाओं को नागवार गुजरी. राजाओं की नाराजगी देखते हुए परमार ने खुद ही न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दे दिया और खुलकर राजशाही के खिलाफ बोलने लगे. प्रजामंडल आंदोलन के सफल होने के बाद डॉ. परमार वर्ष 1948 से 1952 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे.
हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री बने परमार
डॉ. परमार 3 मार्च 1952 से 31 अक्टूबर 1956 तक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. वर्ष 1956 में जब हिमाचल यूनियन टेरेटोरियल बना तो परमार 1956 से 1963 तक संसद सदस्य रहे. हिमाचल विधानसभा गठित होने के बाद वह जुलाई 1963 में फिर से मुख्यमंत्री बने. परमार ने ही पंजाब में शामिल कांगड़ा व शिमला के कुछ इलाकों को हिमाचल में शामिल करवाने में अहम भूमिका निभाई थी. यहां बता दें कि कुछ नेता हिमाचल को पंजाब का हिस्सा बनाना चाहते थे, लेकिन परमार के होते यह संभव नहीं हो पाया.
पर्यावरण प्रेमी थे परमार
पर्यावरण की जिस चिंता में आज देश-प्रदेश ही नहीं पूरा विश्व डूबा है, उस कर्मयोद्धा ने इसकी आहट को दशकों पहले ही सुन लिया था. एक भाषण में उन्होंने कहा था 'वन हमारी बहुत बड़ी संपदा है. इनकी हिफाजत हर हिमाचली को हर हाल में करनी है. नंगे पहाड़ों को हमें हरियाली की चादर ओढ़ाने का संकल्प लेना होगा' उन्होंने लोगों से उस दौरान अपील करते हुए कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति को एक पौधा लगाना होगा और पौधे ऐसे हों जो पशुओं को चारा दें, उनसे बालन मिले और जब वो पौधे बड़े हों तो उनसे इमारती लकड़ी के साथ आमदनी भी मिले. पौधे लगाने के साथ उनकी देखभाल करने का सुझाव भी परमार ने उस दौरान लोगों को दिया था.
वनों के त्रिस्तरीय उपयोग को लेकर परमार का कहना था कि कतारों में लगाए गए इमारती लकड़ी के जंगल प्रदेश के फिक्स डिपोजिट होंगे. बाग-बगीचे लगाकर हम तो संपन्न हो सकते हैं, लेकिन वानिकी से पूरे प्रदेश में संपन्नता आएगी. डॉ. परमार के नाम पर हिमाचल के सोलन जिला में बागवानी व वानिकी विश्वविद्यालय भी है.
आधुनिक हिमाचल परमार की देन
जनवरी 1971 में हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला. इसमें डॉ. वाईएस परमार का बड़ा योगदान था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शिमला के रिज मैदान पर 25 जनवरी1971 को हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की घोषणा की थी. बाद में परमार ने वर्ष 1977 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. परमार ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक पोलीएंड्री एन हिमाचल भी लिखी थी. भारत सरकार ने डॉ. परमार पर डाक टिकट भी जारी किया था. डॉ. परमार का हिमाचल के विकास को लेकर विजन बिल्कुल स्पष्ट था. वह पूरे प्रदेश में प्राथमिकता के आधार पर सड़कों का जाल बिछाने की मुहिम में जुटे थे. वह सड़कों को पहाड़ के निवासियों की भाग्य रेखा कहते थे. ईमानदारी के जीवंत प्रतीक डॉ. वाईएस परमार ने 2 मई 1981 को शरीर त्याग दिया.
डॉ. वाईएस परमार की जयंती पर हिमाचल में साहित्यिक आयोजन नियमित रूप से होते हैं. इस बार कोरोना महामारी के चलते रिज मैदान पर ही उनकी प्रतिमा पर फूल अर्पित किए जाएंगे. बीते साल परमार की जयंती पर बिलासपुर जिला में राज्य स्तरीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया था.
पहाड़ों की भाग्यरेखा को सिर्फ पहाड़ी ही बदल सकता है
कहा जाता है कि पहाड़ का विकास पहाड़ी ही कर सकता है. डॉ यशवंत सिंह परमार ने ना केवल इस कहावत को पूरा किया बल्कि देश को हिमाचल की विशुद्ध पहाड़ी संस्कृति से रू-ब-रू भी करवाया. डॉ परमार के सपनों का हिमाचल एक ऐसा आधुनिक हिमाचल था जहां लोग शिक्षित व संपन्न हों. आवागमन के अच्छे साधन हों और देश के मानचित्र पर हिमाचल एक अलग नाम हो.
डॉ परमार ने हिमाचल की आबोहवा के अनुरूप यहां बागवानी को विस्तृत फलक प्रदान किया. आज सेब से लदे बगीचे, नदियों पर जल विद्युत परियोजनाएं, गांव-गांव तक सड़कों का जाल, ज्ञान के अलख जगाते शिक्षा के मंदिर यह कृतज्ञ होकर डॉ परमार को जीवंत श्रद्धांजलि दे रहे हैं.
वहीं, वर्ष 1948 में तस्वीर बिल्कुल अलग थी. बागवानी उत्पादन केवल 1200 मी. टन, 331 शिक्षण संस्थान, 88 स्वास्थ्य संस्थान, मात्र 9 पशु चिकित्सा संस्थान, 228 किलोमीटर सड़कें, केवल 6 विद्युतीकृत गांव, 300 गांव में स्वच्छ पेयजल सुविधा, साक्षरता दर मात्र 7.1 प्रतिशत और प्रति व्यक्ति आय केवल 240 रुपये.
वहीं, आज प्रदेश में 15,402 शिक्षण संस्थान, साक्षरता दर 82.80 प्रतिशत, शत-प्रतिशत गांव में बिजली और पेयजल, 37,193 किलोमीटर सड़कों का जाल, 2215 पशु चिकित्सा संस्थान, 4124 स्वास्थ्य संस्थान, बागवानी उत्पादन 495.36 लाख मी.टन और प्रति व्यक्ति आय 1,76,968 रुपये है.
डॉ. परमार बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी कुशल प्रशासक एवं राजनीतिज्ञ, प्रखर वक्ता, विधिवेता और हर हिमाचली के प्रिय ईमानदार राजनेता थे. उन्होंने आदर्श विधायी परंपरा के उदाहरण प्रस्तुत किए. डॉ. परमार ने 8 पुस्तकें भी लिखी हैं. परमार एक व्यक्ति नहीं अपितु संस्था थे उनमें जन-जन को साथ लेकर चलने की अद्भुत क्षमता थी. इस अजीमो-शान-शख्सियत ने उन ऊंचाइयों को छुआ जहां तक बिरले ही पहुंच पाते हैं. 2 मई 1981 में नियति के क्रूर हाथों ने डॉ. परमार को हमसे छीन लिया और डॉ परमार हमारे लिए छोड़ गए जीवंत, सशक्त एवं आत्मनिर्भर हिमाचल.