ETV Bharat / state

1850 में लॉर्ड डलहौजी ने तैयार की थी इंडो-तिब्बत सड़क की डीपीआर, निर्माण कार्य में 122 मजदूरों की गई थी जान - hindustan tibet

इंडो तिब्बत सड़क मार्ग भारत की सबसे पुरानी सड़कों में से एक है. इसकी डीपीआर 1850 में तत्कालीन भारतीय वायसरॉय लॉर्ड डलहौजी ने तैयार की थी. उस समय ये विश्व की सबसे ऊंची सड़क थी, लेकिन आज ये सड़क अपनी खस्ता हालत पर आंसू बहा रही है. यह सड़क जगह जगह से बंद पड़ी है.

spacial-story-on-old-hindustan-tibet-road
फोटो.
author img

By

Published : Jul 30, 2021, 4:03 PM IST

Updated : Jul 30, 2021, 4:36 PM IST

किन्नौर: आज सड़कों के बिना जीवन की कल्पना करना भी बेईमानी है. इन्हीं सड़कों से ही आर्थिक और सामाजिक जीवन का विकास संभव है. अंग्रेजों ने भारत में अपना अधिपत्य स्थापित करने के बाद व्यापार को बढ़ाने के लिए तेजी से सड़कें बनाने शुरू की. इन्हीं में से एक थी इंडो तिब्बत सड़क मार्ग. इसकी डीपीआर 1850 में तत्कालीन भारतीय वायसरॉय लॉर्ड डलहौजी ने तैयार की थी. उस समय ये विश्व की सबसे ऊंची सड़क थी. आज इसे एनएच 5 के नाम से जाना जाता है. हिंदुस्तान तिब्बत सड़क मार्ग का निर्माण कालका से शुरू हुआ था. इसका सबसे ऊंचा हिस्सा किन्नौर में बना था.

लेखक टाशी नेगी कहते हैं कि हिंदुस्तान तिब्बत रोड जिसे आज हम राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 5 के नाम से जानते हैं. ब्रिटिश भारत के समय में बनी इस सड़क का इतिहास बहुत रोचक है. 1848 ई. में लॉर्ड डलहौजी ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल बनकर आए थे. इनके कार्यकाल 1856 ई. तक रहा था. इनके कार्यकाल में ही जून 1850 ई. में नेशनल हाईवे नंबर 5 हिंदुस्तान तिब्बत रोड को बनाए जाने की कवायद शुरू हुई थी. इस काम का जिम्मा डलहौजी ने कमांडर इन चार्ल नेफियर को सौंपा था. चार्ल नेफियर ने आगे इस काम को अपने सचिव कैनेडी को सौंपा. इसलिए इस सड़क को कैनेडी के नाम से भी जाना जाता है.

वीडियो.

इस सड़क को बनाते समय कई रोचक घटना घटी. इसमे एक है संजौली टनल. इसे बनाने में 18 हजार मजदूर लगे थे. मिस्टर ब्रिक्स के नेतृत्व में टनल का काम बहुत ही कम समय में पूरा हुआ था. इस सड़क के निर्माण के समय 122 लोगों की मौत हुई थी.

ये सड़क तिब्बत के अंदर तक जाती थी. उस समय तकनीकी रूप से मानव इतना सक्षम नहीं था. हजारों लाखों मजदूरों ने हाथों से चट्टानों को काटकर इस सड़क को बनाया था. इस सड़क का मुख्य मकसद तिब्बत के साथ व्यापार को बढ़ावा देना था. एक वो समय था जब तिब्बत और भारत के बीच रोटी बेटी का संबंध था.

तिब्बत के व्यापारी भारत में ऊन,रेशम,मखमल,तिब्बती नक्काशी की वस्तुएं, चमड़े से बने जूते चप्पल का व्यापार करते थे, जबकि भारत के व्यपारी तिब्बत में चावल,नमक, तेल राजमाह जैसी चीजों का व्यापार तिब्बत में करते थे. तिब्बत से व्यापारी इस सड़क मार्ग से लवी मेले में व्यापार के लिए आते थे. इस सड़क के बनने से इस व्यापार में और तेजी आई. सड़क किनारे कई नई गांव बसे. अंग्रेजों ने इसे सिल्क रूट का नाम दिया था.

1952 में पहली बार इस सड़क से गाड़ी किन्नौर के रोघी तक पहुंची थी. आजादी के बाद 1962 के इंडो चीन युद्ध में भारतीय सेना ने इसका इस्तेमाल किया था. भारत में ये ही एकमात्र ऐसी सड़क थी जो सीमांत क्षेत्रों तक भारतीय सेना के पास गोला बारूद समेत राशन इत्यादि पहुंचाने में सक्ष्म थी. वर्ष 2000 में किन्नौर में सतलुज नदी में भयंकर बाढ़ आई थी. इस बाढ़ में सभी सड़कें ध्वस्त हो गई थी. किसानों बागवानों की सेब और मटर की फसल खेतो में पड़ी हुई थी. इन्हें मंडियों तक पहुंचाना किसी चुनौती से कम नहीं था.

ऐसे में सरकार ने इसी सड़क को सुधार कर लोगों की आवाजाही को सुचारू करने के साथ सेब व मटर की फसल को मंडी तक पहुंचाया था, लेकिन दूसरी सड़कों की मरम्मत होने के बाद इस सड़क की कभी सुध नहीं ली गई. सरकार आज इसके महत्व को भूल चुकी है. आज ये सड़क कई स्थानों पर बंद पड़ी है. इसकी खस्ताहालत पर स्थानीय लोगों ने कई बार रोष जताया है. सड़क के बंद होने के कारण सेना को 60 किलोमीटर का अतिरिक्त रास्ता तय कर इंडो चीन बॉर्डर तक पहुंचना पड़ता है.

सुंदर घाटियों और नदियों के साथ साथ गुजरती ये सड़क दिल में रोमांच पैदा करती है. इस सड़क ने सालों से पर्यटकों को किन्नौर की हरी भरी वादियों के दर्शन करवाए हैं, लेकिन अफसोस इतिहास को समेटे हुए सड़क आज बदहाली के आंसु रो रही है और प्रशासन इसकी हालत सुधारने का अभी भी कागजों में ही प्रयास कर रहा है. डीसी किन्नौर आबिद हुसैन ने कहा कि इस सड़क की डीपीआर तैयार की जाएगी. विश्व वैंक से इसे फाइनेंस करवाया जाएगा. राज्य सरकार के बजट से इसका सुधारीकरण मुश्किल है.

अगर इस सड़क की हालत को सुधारा जाता है तो ये सड़क किन्नौर को पर्यटन की दृष्टि से भी मजबूत करने के साथ साथ स्थानीय किसानों बागवानों के लिए भी वरदान साबित होगी. इसके साथ ही चीन के साथ तनाव पूर्ण स्थिति पैदा होने पर इस सड़क का सेना इस्तेमाल कर सकती है. सेना की रशद इस मार्ग के जरिए आसानी से बॉर्डर तक पहुंचाई जा सकती है.

ये भी पढ़ें: भारत एक और मेडल के करीब...सेमीफाइनल में पहुंचीं PV सिंधु

किन्नौर: आज सड़कों के बिना जीवन की कल्पना करना भी बेईमानी है. इन्हीं सड़कों से ही आर्थिक और सामाजिक जीवन का विकास संभव है. अंग्रेजों ने भारत में अपना अधिपत्य स्थापित करने के बाद व्यापार को बढ़ाने के लिए तेजी से सड़कें बनाने शुरू की. इन्हीं में से एक थी इंडो तिब्बत सड़क मार्ग. इसकी डीपीआर 1850 में तत्कालीन भारतीय वायसरॉय लॉर्ड डलहौजी ने तैयार की थी. उस समय ये विश्व की सबसे ऊंची सड़क थी. आज इसे एनएच 5 के नाम से जाना जाता है. हिंदुस्तान तिब्बत सड़क मार्ग का निर्माण कालका से शुरू हुआ था. इसका सबसे ऊंचा हिस्सा किन्नौर में बना था.

लेखक टाशी नेगी कहते हैं कि हिंदुस्तान तिब्बत रोड जिसे आज हम राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 5 के नाम से जानते हैं. ब्रिटिश भारत के समय में बनी इस सड़क का इतिहास बहुत रोचक है. 1848 ई. में लॉर्ड डलहौजी ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल बनकर आए थे. इनके कार्यकाल 1856 ई. तक रहा था. इनके कार्यकाल में ही जून 1850 ई. में नेशनल हाईवे नंबर 5 हिंदुस्तान तिब्बत रोड को बनाए जाने की कवायद शुरू हुई थी. इस काम का जिम्मा डलहौजी ने कमांडर इन चार्ल नेफियर को सौंपा था. चार्ल नेफियर ने आगे इस काम को अपने सचिव कैनेडी को सौंपा. इसलिए इस सड़क को कैनेडी के नाम से भी जाना जाता है.

वीडियो.

इस सड़क को बनाते समय कई रोचक घटना घटी. इसमे एक है संजौली टनल. इसे बनाने में 18 हजार मजदूर लगे थे. मिस्टर ब्रिक्स के नेतृत्व में टनल का काम बहुत ही कम समय में पूरा हुआ था. इस सड़क के निर्माण के समय 122 लोगों की मौत हुई थी.

ये सड़क तिब्बत के अंदर तक जाती थी. उस समय तकनीकी रूप से मानव इतना सक्षम नहीं था. हजारों लाखों मजदूरों ने हाथों से चट्टानों को काटकर इस सड़क को बनाया था. इस सड़क का मुख्य मकसद तिब्बत के साथ व्यापार को बढ़ावा देना था. एक वो समय था जब तिब्बत और भारत के बीच रोटी बेटी का संबंध था.

तिब्बत के व्यापारी भारत में ऊन,रेशम,मखमल,तिब्बती नक्काशी की वस्तुएं, चमड़े से बने जूते चप्पल का व्यापार करते थे, जबकि भारत के व्यपारी तिब्बत में चावल,नमक, तेल राजमाह जैसी चीजों का व्यापार तिब्बत में करते थे. तिब्बत से व्यापारी इस सड़क मार्ग से लवी मेले में व्यापार के लिए आते थे. इस सड़क के बनने से इस व्यापार में और तेजी आई. सड़क किनारे कई नई गांव बसे. अंग्रेजों ने इसे सिल्क रूट का नाम दिया था.

1952 में पहली बार इस सड़क से गाड़ी किन्नौर के रोघी तक पहुंची थी. आजादी के बाद 1962 के इंडो चीन युद्ध में भारतीय सेना ने इसका इस्तेमाल किया था. भारत में ये ही एकमात्र ऐसी सड़क थी जो सीमांत क्षेत्रों तक भारतीय सेना के पास गोला बारूद समेत राशन इत्यादि पहुंचाने में सक्ष्म थी. वर्ष 2000 में किन्नौर में सतलुज नदी में भयंकर बाढ़ आई थी. इस बाढ़ में सभी सड़कें ध्वस्त हो गई थी. किसानों बागवानों की सेब और मटर की फसल खेतो में पड़ी हुई थी. इन्हें मंडियों तक पहुंचाना किसी चुनौती से कम नहीं था.

ऐसे में सरकार ने इसी सड़क को सुधार कर लोगों की आवाजाही को सुचारू करने के साथ सेब व मटर की फसल को मंडी तक पहुंचाया था, लेकिन दूसरी सड़कों की मरम्मत होने के बाद इस सड़क की कभी सुध नहीं ली गई. सरकार आज इसके महत्व को भूल चुकी है. आज ये सड़क कई स्थानों पर बंद पड़ी है. इसकी खस्ताहालत पर स्थानीय लोगों ने कई बार रोष जताया है. सड़क के बंद होने के कारण सेना को 60 किलोमीटर का अतिरिक्त रास्ता तय कर इंडो चीन बॉर्डर तक पहुंचना पड़ता है.

सुंदर घाटियों और नदियों के साथ साथ गुजरती ये सड़क दिल में रोमांच पैदा करती है. इस सड़क ने सालों से पर्यटकों को किन्नौर की हरी भरी वादियों के दर्शन करवाए हैं, लेकिन अफसोस इतिहास को समेटे हुए सड़क आज बदहाली के आंसु रो रही है और प्रशासन इसकी हालत सुधारने का अभी भी कागजों में ही प्रयास कर रहा है. डीसी किन्नौर आबिद हुसैन ने कहा कि इस सड़क की डीपीआर तैयार की जाएगी. विश्व वैंक से इसे फाइनेंस करवाया जाएगा. राज्य सरकार के बजट से इसका सुधारीकरण मुश्किल है.

अगर इस सड़क की हालत को सुधारा जाता है तो ये सड़क किन्नौर को पर्यटन की दृष्टि से भी मजबूत करने के साथ साथ स्थानीय किसानों बागवानों के लिए भी वरदान साबित होगी. इसके साथ ही चीन के साथ तनाव पूर्ण स्थिति पैदा होने पर इस सड़क का सेना इस्तेमाल कर सकती है. सेना की रशद इस मार्ग के जरिए आसानी से बॉर्डर तक पहुंचाई जा सकती है.

ये भी पढ़ें: भारत एक और मेडल के करीब...सेमीफाइनल में पहुंचीं PV सिंधु

Last Updated : Jul 30, 2021, 4:36 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.