शिमलाः छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश को देश के अग्रणी राज्यों की कतार में खड़ा करने में डॉ. वाईएस परमार का अमूल्य योगदान रहा है. हिमाचल निर्माता और प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ. परमार न केवल दूरदर्शी राजनेता थे, बल्कि कलम के धनी होने के साथ कई खूबियों को खुद में समेटे हुए प्रेरक व्यक्तित्व के स्वामी थे.
हिमाचली संस्कृति से था जुड़ाव
परमार ने हिमाचल को विकास की जिस राह पर डाला, प्रदेश अब हिमाचल उस राह पर सरपट दौड़ रहा है. डॉ. परमार कई ऊंचे पदों पर रहने के बावजूद जड़ों से जुड़े रहे. वे लोक नाट्य करियाला का शौकीन होने के साथ परमार लोकगीतों और लोक नृत्य के भी शौकीन थे. पहाड़ के पकवान अस्कलू, पटांडे, लुशके आदि डॉ. परमार बहुत पसंद थे.
उच्च कोटि के विद्वान थे परमार
4 अगस्त 1906 को शिवानंद सिंह के घर पर जिला सिरमौर के एक पिछड़े गांव चन्हालग में पैदा हुए यशवंत सिंह के भीतर उच्च स्तर की राजनीतिक चेतना थी. परमार परंपरागत परिधान लोइया पहनने में गर्व महसूस करते थे.
हिमाचल के निर्माण में डॉ. वाईएस परमार की अहम भूमिका के कारण ही उन्हें हिमाचल निर्माता कहा जाता है. बहुमुखी प्रतिभा के धनी परमार हिंदी और अंग्रेजी के साथ उर्दू भाषा के भी विद्वान थे.
परमार की शिक्षा
यशवंत सिंह ने अपनी शिक्षा लखनऊ और लाहौर में रहकर हासिल की. उन्होंने साल 1926 में लाहौर से बीए ऑनर्स की परीक्षा पास की. इसके बाद उन्होंने लखनऊ से एमए के साथ एलएलबी की पढ़ाई की. परमार ने लखनऊ से पीएचडी की और फिर हिमाचल विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ लॉ भी बने.
रियासती समय में न्यायाधीश भी रहे डॉ. परमार
आजादी से पहले हिमाचल प्रदेश छोटी-छोटी रियासतों में बंटा था. उस समय डॉ. परमार साल 1930 में सिरमौर रियासत के न्यायाधीश बने. उन्होंने साल 1937 तक रियासत में न्यायाधीश के तौर पर काम किया.
बाद में जिला व सत्र न्यायाधीश बने और साल 1941 तक इस पद पर रहे. एक समय में जब प्रजा मंडल आंदोलन के क्रांतिकारियों के खिलाफ झूठे मामले न्यायालय में आने लगे तो डॉ. परमार ने उनके हक में फैसले दिए.
न्यायाधीश के पद से परमार का इस्तीफा
रियासतों के राजाओं को यह नागवार गुजरा. राजाओं की नाराजगी देखते हुए परमार ने खुद ही जज के पद से त्यागपत्र दे दिया. इसके बाद परमार ने राजशाही के खिलाफ खुलकर काम करना शुरु किया.
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ठियोग रियासत में कंसल्टेंट भी रहे परमार
आजादी के बाद प्रजामंडल आंदोलन के सदस्यों का ठियोग रियासत पर अधिकार हो गया. वहां, स्वतंत्र सरकार का गठन कर सूरजराम प्रकाश को रियासत को मुख्यमंत्री और परमार को कंसल्टेंट नियुक्त किया गया. यहां परमार लंबे समय तक प्रजामंडल आंदोलन से जुड़े रहे.कई रियासतें देश में विलीन हुईं. बाद में परमार 1948 से 1952 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी रहे.
हिमाचल निर्माता परमार
डॉ. परमार 3 मार्च 1952 से 31 अक्टूबर 1956 तक हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री रहे. साल 1956 में जब हिमाचल यूनियन टेरिटोरियल बना, तो परमार साल 1956 से साल 1963 तक संसद सदस्य रहे.
विधानसभा गठित होने के बाद जुलाई 1963 में परमार फिर से मुख्यमंत्री बने. परमार ने ही पंजाब के क्षेत्रों जैसे कांगड़ा और शिमला के कुछ हिस्सों को हिमाचल में शामिल करने में अहम भूमिका निभाई. कुछ नेता हिमाचल को पंजाब का हिस्सा बनाना चाहते थे, लेकिन परमार ने उनके मंसूबे कामयाब नहीं होने दिए.
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जनवरी 1971 में हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और इसमें परमार का बड़ा योगदान था. उन्होंने 1977 में मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिया और सरकारी बस में बैठकर घर चले गए.
डॉ. परमार ने जब संसार छोड़ा तो उनके बैंक खाते में महज 563 रुपए की रकम थी. उन्होंने अपने लिए कोई आलीशान घर भी नहीं बनाया.
पहाड़ की भाग्य रेखा सडक़
डॉ. परमार सडक़ को पहाड़ की भाग्य रेखा कहा करते थे. उनके प्रयासों से ही प्रदेश में सडक़ों का जाल बिछना शुरु हुआ जिसका काम आज तक निरंतर जारी है. परमार ईमानदारी के पर्याय थे. उनकी गहरी राजनीतिक समझ के विरोधी भी कायल थे.
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