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मां 'ज्वालाजी' एक ऐसा रहस्य जो अकबर, अंग्रेज और वैज्ञानिक भी पता नहीं लगा पाए

ज्वालामुखी मंदिर जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्तिथ कालीधार पहाड़ी पर स्तिथ है. यह समुद्र से 600 मीटर ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्तिथ है. विश्व में एक ऐसा स्थान जो की प्राकृतिक ही नहीं अपितु चमत्कारी भी है.

beliefs about jawala ji Temple Kangra
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Published : Jul 21, 2019, 10:29 PM IST

कांगड़ा: ईटीवी भारत की रहस्य सीरीज में एक बार फिर हम हाजिर हैं एक और कहानी के साथ. आज हम बात करेंगे न केवल देश में बल्कि विदेशों में ख्याति प्राप्त, देहरा में स्थित विश्व प्रसिद्ध शक्तिपीठ ज्वालामुखी मंदिर की. ये मंदिर करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतिक है.


ज्वालामुखी मंदिर जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्तिथ कालीधार पहाड़ी पर स्तिथ है. यह समुद्र से 600 मीटर ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्तिथ है. विश्व में एक ऐसा स्थान जो की प्राकृतिक ही नहीं अपितु चमत्कारी भी है.


हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ ज्वालामुखी अपने आप मे अद्भुत मंदिर है. यहां ज्योति रूप में ही मां ज्वाला भक्तों को दर्शन देती हैं. मां ज्वाला का ये मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है.

स्पेशल रिपोर्ट


पौराणिक कथा
इतिहास पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति द्वारा एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया परंतु अपनी पुत्री सती व उसके पति शिव को यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया. सती बिना बुलाये ही यज्ञ में पहुंच गई. इस यज्ञ में शिव के भारी अपमान स्वरूप सती यज्ञ कुंड में कूद पड़ी और अपनी देह त्याग दी.


भगवान शिव ने व्याकुल होकर सती के शव को कंधे पर उठाया व हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए भगवान शिव अर्धांगिनी के इस प्रकार हुए देह त्याग पर बहुत व्यथित थे. शिव के इस प्रकार के भयंकर रूप को देखकर देवगणों ने भगवान विष्णु से शिव का क्रोध शांत करने की प्रार्थना की.


सती के तांडव प्रहार से बचाने के लिए विष्णु जी ने सती के शव के अनेकों टुकड़े कर दिए. सती के अंग अलग-अलग स्थानों पर गिरते रहे. सत्ती माता के अंग के टूकड़े जहां-जहां पर गिरे उन्ही स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई. जिस स्थान पर सती की जीभ गिरी वहां पर देवी ज्वाला के रूप में प्रकट हुई व यही स्थान कालांतर में श्री ज्वालामुखी के नाम से विख्यात हुआ.
इस मंदिर को लेकर एक और दंत कथा भी है. के अनुसार जब माता ज्वाला प्रकट हुईं, तब ग्वालों की एक टोली को सबसे पहले पहाड़ी पर ज्योति के दिव्य दर्शन हुए.


तारीख-ए-फिरोजशाही में मंदिर का जिक्र
तारीख-ए-फिरोजशाही में वर्णित फरिश्ता के अनुसार ज्वालामुखी मंदिर में हिंदू किताबों का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था, जिसमे 1300 किताबें थी. फिरोजशाह तुगलक ने इनमें से एक पुस्तक का पर्शियन में अनुवाद करवाया व इसका नाम दलील-ए-फिरोजशाही रखा. इसका अनुवाद इजुद्दीन खालिद खानी द्वारा किया गया व इसमें दर्शन शास्त्र, फलित ज्योतिष व देवत्व के वारे में विस्तार पूर्वक चर्चा की गई है.


कहा जाता है कि ज्वालामुखी में प्रकट दिव्य ज्योतियों की जानकारी मुगल सम्राट अकबर को मिली तो उसने एक नहर का निर्माण करवा कर ज्वालाओं को बुझाने के लिए उन पर पानी छोड़ा, लेकिन ज्वालाएं ज्यों की त्यों जलती रही.


इसके बाद ज्वालाओं को मिटा देने के लिए अकबर ने इन्हें लोहे के तवे से ढक देने का प्रयास किया, लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. आखिरकार माता भगवती की चमत्कारिक शक्ति से हार मान कर अकबर नंगे पांव स्वयं ज्वालाजी मंदिर गया व सोने का छत्र भेंट किया.


जब राजा अकबर ने माता को सोने का छत्र भेंट किया तो उसकी भेंट को न स्वीकारते हुए मां ज्वाला ने उसे अज्ञात धातु में परिवर्तित कर दिया, जो आज भी मोदी भवन मंदिर में विद्यमान है.


राजा अकबर के समय ही माता से जुड़ी एक और कहानी है उनके परम भक्त ध्यानु भगत की. धयानु भगत माता ज्वाला का परम सेवक था. उन्होंने ही माता ज्वाला की महिमा दूर-दूर तक पहुंचाई. अभी धयानु भगत की समाधि नादौन में मौजूद है, जो कि ज्वालाजी से 12 किलोमीटर दूर हमीरपुर रोड पर स्थित है.


मंदिर का निर्माण
51 शक्तिपीठों में ज्वालाजी का महत्व कालांतर से सर्वाधिक रहा है. किवदंती के अनुसार पांडवों के समय मंदिर का निर्माण हुआ. जिसके बाद में राजा भूमिचन्द्र ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया. मंदिर मंडप शैली में निर्मित है. इसके ऊपर सोने का पॉलिश चढ़ा है. इसे महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासन काल में चढ़वाया था. उनके पौत्र कुंवर नौनिहाल सिंह ने मंदिर के मुख्य दरवाजों को चांदी के पतरों से बनवाया जो आज भी मंदिर में विद्यमान हैं.


सात ज्योतियों की होती है पूजा
मंदिर के गर्भ गृह के अंदर सात ज्योतियां विद्यमान हैं, सबसे बड़ी ज्योति महाकाली का रूप है जिसे ज्वालामुखी भी कहा जाता है. दूसरी ज्योति मां अन्नपूर्णा, तीसरी ज्योति मां चंडी, चौथी मां हिंगलाज, पांचवी विंध्यावासनी, छठी महालक्ष्मी व सातवीं मां सरस्वती है.


वहीं, इस मंदिर में दिन में पांच बार आरती की जाती है. एक मंदिर के कपाट खुलते ही सूर्योदय के साथ सुबह 5 बजे की जाती है, दूसरी मंगल आरती सुबह की आरती के बाद. दोपहर की आरती 12 बजे की जाती है. आरती के साथ-साथ माता को भोग भी लगाया जाता है.


फिर संध्या रात आरती 7 बजे होती है. इसके पश्चात रात्रि आरती होती है. इसके बाद देवी की शयन आरती रात 9:30 बजे की जाती है. माता की शय्या को फूलों, आभूषणों और सुगंधित सामग्रियों से सजाया जाता है और पुजारी द्वारा मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं.


प्रमुख देवालय स्थान
मंदिर के प्रमुख देवालयों में शैया भवन, गोरख डिब्बी, श्री तारा देवी मंदिर, श्री मुरली मनोहर मंदिर, शिव शक्ति, लाल शिवालय, सिद्ध नागर्जुन मंदिर, अम्बिकेश्वर महादेव, काल भैरव मंदिर, सन्तोषी माता मंदिर व टेढ़ा मंदिर शामिल हैं. ये मंदिर ज्वालामुखी मंदिर के इर्द गिर्द ही हैं.


ज्वाला प्राकृतिक नहीं अपितु चमत्कारिक भी
यहां पर ज्वाला प्राकृतिक न होकर चमत्कारिक भी है. अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन से निकलती 'ऊर्जा' का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस 'ऊर्जा' को नहीं ढूंढ पाए. वहीं, अकबर लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाया.


यह दोनों बाते यह सिद्ध करती हैं कि यहां ज्वाला चमत्कारी रूप से ही निकलती है न कि प्राकृतिक रूप से, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता.


छत्र किस धातु का है किसी को नहीं पता
मंदिर में ज्योतियों के अलावा एक चीज और है जो रहस्य बना हुआ है. ये है राजा अकबर द्वारा चढ़ाया हुआ छत्र. बादशाह अकबर की ओर से चढ़ाया गया छत्र आखिर किस धातु में बदल गया इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का एक दल पहुंचा.


इसके बाद छत्र के एक हिस्‍से का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आये. वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया. बहरहाल, आज भी यह छत्र और अकबर नहर यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए कौतुहल और विज्ञान के लिए रहस्‍य का विषय बना हुआ.


अकबर के बाद ONGC जुटी रहस्य जानने में
आजादी के बाद इस मंदिर में ज्वाला निकलने के रहस्य को जानने के लिए हमारे देश के वैज्ञानिकों ने प्रयास शुरू किए. 1959 से ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड ज्वालामुखी व इसके आसपास के क्षेत्रों में कुएं खोदकर इस कार्य में जुटी. ज्वालामुखी के टेढ़ा मंदिर में 1959 में पहली बार कुआं खोदा गया था. उसके बाद 1965 में सुराणी में, बग्गी, बंडोल, घीणा, लंज, सुराणी व कालीधार के जंगलों में खुदाई की गई थी.


जो भी श्रद्धालु देवी मां के इस शक्‍तिपीठ में आता है वो अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर अपनी यात्रा को अधूरा ही मानता है. आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ लगते मोदी भवन में रखा हुआ है.


पंजा-पंजा पांडवां तेरा भवन बनाया.
मंदिर से जुड़ा एक लोकगीत भी है जिसे भक्त अक्सर गाते हुए मंदिर में प्रवेश करते हैं. वो गीत है.... पंजा पंजा पांडवां तेरा भवन बनाया. राजा अकबर ने सोने दा छत्र चढ़ाया. मां ज्वाला और उनके इस मंदिर का महिमामंडन पूरे संसाह में होता है.

कांगड़ा: ईटीवी भारत की रहस्य सीरीज में एक बार फिर हम हाजिर हैं एक और कहानी के साथ. आज हम बात करेंगे न केवल देश में बल्कि विदेशों में ख्याति प्राप्त, देहरा में स्थित विश्व प्रसिद्ध शक्तिपीठ ज्वालामुखी मंदिर की. ये मंदिर करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतिक है.


ज्वालामुखी मंदिर जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्तिथ कालीधार पहाड़ी पर स्तिथ है. यह समुद्र से 600 मीटर ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्तिथ है. विश्व में एक ऐसा स्थान जो की प्राकृतिक ही नहीं अपितु चमत्कारी भी है.


हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ ज्वालामुखी अपने आप मे अद्भुत मंदिर है. यहां ज्योति रूप में ही मां ज्वाला भक्तों को दर्शन देती हैं. मां ज्वाला का ये मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है.

स्पेशल रिपोर्ट


पौराणिक कथा
इतिहास पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति द्वारा एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया परंतु अपनी पुत्री सती व उसके पति शिव को यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया. सती बिना बुलाये ही यज्ञ में पहुंच गई. इस यज्ञ में शिव के भारी अपमान स्वरूप सती यज्ञ कुंड में कूद पड़ी और अपनी देह त्याग दी.


भगवान शिव ने व्याकुल होकर सती के शव को कंधे पर उठाया व हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए भगवान शिव अर्धांगिनी के इस प्रकार हुए देह त्याग पर बहुत व्यथित थे. शिव के इस प्रकार के भयंकर रूप को देखकर देवगणों ने भगवान विष्णु से शिव का क्रोध शांत करने की प्रार्थना की.


सती के तांडव प्रहार से बचाने के लिए विष्णु जी ने सती के शव के अनेकों टुकड़े कर दिए. सती के अंग अलग-अलग स्थानों पर गिरते रहे. सत्ती माता के अंग के टूकड़े जहां-जहां पर गिरे उन्ही स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई. जिस स्थान पर सती की जीभ गिरी वहां पर देवी ज्वाला के रूप में प्रकट हुई व यही स्थान कालांतर में श्री ज्वालामुखी के नाम से विख्यात हुआ.
इस मंदिर को लेकर एक और दंत कथा भी है. के अनुसार जब माता ज्वाला प्रकट हुईं, तब ग्वालों की एक टोली को सबसे पहले पहाड़ी पर ज्योति के दिव्य दर्शन हुए.


तारीख-ए-फिरोजशाही में मंदिर का जिक्र
तारीख-ए-फिरोजशाही में वर्णित फरिश्ता के अनुसार ज्वालामुखी मंदिर में हिंदू किताबों का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था, जिसमे 1300 किताबें थी. फिरोजशाह तुगलक ने इनमें से एक पुस्तक का पर्शियन में अनुवाद करवाया व इसका नाम दलील-ए-फिरोजशाही रखा. इसका अनुवाद इजुद्दीन खालिद खानी द्वारा किया गया व इसमें दर्शन शास्त्र, फलित ज्योतिष व देवत्व के वारे में विस्तार पूर्वक चर्चा की गई है.


कहा जाता है कि ज्वालामुखी में प्रकट दिव्य ज्योतियों की जानकारी मुगल सम्राट अकबर को मिली तो उसने एक नहर का निर्माण करवा कर ज्वालाओं को बुझाने के लिए उन पर पानी छोड़ा, लेकिन ज्वालाएं ज्यों की त्यों जलती रही.


इसके बाद ज्वालाओं को मिटा देने के लिए अकबर ने इन्हें लोहे के तवे से ढक देने का प्रयास किया, लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. आखिरकार माता भगवती की चमत्कारिक शक्ति से हार मान कर अकबर नंगे पांव स्वयं ज्वालाजी मंदिर गया व सोने का छत्र भेंट किया.


जब राजा अकबर ने माता को सोने का छत्र भेंट किया तो उसकी भेंट को न स्वीकारते हुए मां ज्वाला ने उसे अज्ञात धातु में परिवर्तित कर दिया, जो आज भी मोदी भवन मंदिर में विद्यमान है.


राजा अकबर के समय ही माता से जुड़ी एक और कहानी है उनके परम भक्त ध्यानु भगत की. धयानु भगत माता ज्वाला का परम सेवक था. उन्होंने ही माता ज्वाला की महिमा दूर-दूर तक पहुंचाई. अभी धयानु भगत की समाधि नादौन में मौजूद है, जो कि ज्वालाजी से 12 किलोमीटर दूर हमीरपुर रोड पर स्थित है.


मंदिर का निर्माण
51 शक्तिपीठों में ज्वालाजी का महत्व कालांतर से सर्वाधिक रहा है. किवदंती के अनुसार पांडवों के समय मंदिर का निर्माण हुआ. जिसके बाद में राजा भूमिचन्द्र ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया. मंदिर मंडप शैली में निर्मित है. इसके ऊपर सोने का पॉलिश चढ़ा है. इसे महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासन काल में चढ़वाया था. उनके पौत्र कुंवर नौनिहाल सिंह ने मंदिर के मुख्य दरवाजों को चांदी के पतरों से बनवाया जो आज भी मंदिर में विद्यमान हैं.


सात ज्योतियों की होती है पूजा
मंदिर के गर्भ गृह के अंदर सात ज्योतियां विद्यमान हैं, सबसे बड़ी ज्योति महाकाली का रूप है जिसे ज्वालामुखी भी कहा जाता है. दूसरी ज्योति मां अन्नपूर्णा, तीसरी ज्योति मां चंडी, चौथी मां हिंगलाज, पांचवी विंध्यावासनी, छठी महालक्ष्मी व सातवीं मां सरस्वती है.


वहीं, इस मंदिर में दिन में पांच बार आरती की जाती है. एक मंदिर के कपाट खुलते ही सूर्योदय के साथ सुबह 5 बजे की जाती है, दूसरी मंगल आरती सुबह की आरती के बाद. दोपहर की आरती 12 बजे की जाती है. आरती के साथ-साथ माता को भोग भी लगाया जाता है.


फिर संध्या रात आरती 7 बजे होती है. इसके पश्चात रात्रि आरती होती है. इसके बाद देवी की शयन आरती रात 9:30 बजे की जाती है. माता की शय्या को फूलों, आभूषणों और सुगंधित सामग्रियों से सजाया जाता है और पुजारी द्वारा मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं.


प्रमुख देवालय स्थान
मंदिर के प्रमुख देवालयों में शैया भवन, गोरख डिब्बी, श्री तारा देवी मंदिर, श्री मुरली मनोहर मंदिर, शिव शक्ति, लाल शिवालय, सिद्ध नागर्जुन मंदिर, अम्बिकेश्वर महादेव, काल भैरव मंदिर, सन्तोषी माता मंदिर व टेढ़ा मंदिर शामिल हैं. ये मंदिर ज्वालामुखी मंदिर के इर्द गिर्द ही हैं.


ज्वाला प्राकृतिक नहीं अपितु चमत्कारिक भी
यहां पर ज्वाला प्राकृतिक न होकर चमत्कारिक भी है. अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन से निकलती 'ऊर्जा' का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस 'ऊर्जा' को नहीं ढूंढ पाए. वहीं, अकबर लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाया.


यह दोनों बाते यह सिद्ध करती हैं कि यहां ज्वाला चमत्कारी रूप से ही निकलती है न कि प्राकृतिक रूप से, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता.


छत्र किस धातु का है किसी को नहीं पता
मंदिर में ज्योतियों के अलावा एक चीज और है जो रहस्य बना हुआ है. ये है राजा अकबर द्वारा चढ़ाया हुआ छत्र. बादशाह अकबर की ओर से चढ़ाया गया छत्र आखिर किस धातु में बदल गया इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का एक दल पहुंचा.


इसके बाद छत्र के एक हिस्‍से का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आये. वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया. बहरहाल, आज भी यह छत्र और अकबर नहर यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए कौतुहल और विज्ञान के लिए रहस्‍य का विषय बना हुआ.


अकबर के बाद ONGC जुटी रहस्य जानने में
आजादी के बाद इस मंदिर में ज्वाला निकलने के रहस्य को जानने के लिए हमारे देश के वैज्ञानिकों ने प्रयास शुरू किए. 1959 से ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड ज्वालामुखी व इसके आसपास के क्षेत्रों में कुएं खोदकर इस कार्य में जुटी. ज्वालामुखी के टेढ़ा मंदिर में 1959 में पहली बार कुआं खोदा गया था. उसके बाद 1965 में सुराणी में, बग्गी, बंडोल, घीणा, लंज, सुराणी व कालीधार के जंगलों में खुदाई की गई थी.


जो भी श्रद्धालु देवी मां के इस शक्‍तिपीठ में आता है वो अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर अपनी यात्रा को अधूरा ही मानता है. आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ लगते मोदी भवन में रखा हुआ है.


पंजा-पंजा पांडवां तेरा भवन बनाया.
मंदिर से जुड़ा एक लोकगीत भी है जिसे भक्त अक्सर गाते हुए मंदिर में प्रवेश करते हैं. वो गीत है.... पंजा पंजा पांडवां तेरा भवन बनाया. राजा अकबर ने सोने दा छत्र चढ़ाया. मां ज्वाला और उनके इस मंदिर का महिमामंडन पूरे संसाह में होता है.

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