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शिवरात्रि स्पेशल: सराज में शिवरात्रि से पहले धूमधाम से मनाया जाता है खारका उत्सव, इस फल की होती है पूजा

सराज घाटी के लोग आज भी शिवरात्रि की दुर्लभ परंपराओं को बचाए हुए हैं. भगवान भोलेनाथ का प्रिय फल कुपू (ये संतरे की तरह दिखने वाला फल) होता है जिसे नैर नामक पौधे की पत्तियों में पिरोया जाता है. स्थानीय भाषा में इसे जंदोह कहा जाता है. स्थानीय लोग जंदोह को भगवान भोलेनाथ का स्वरूप मानकर पूजते हैं.

खारका उत्सव
Kharka festival
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Published : Feb 23, 2020, 8:31 PM IST

मंडी: शिवरात्रि पर्व से जुड़ी हुई अनेकों परंपराएं देश में प्रचलित हैं. इनमें से कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो आपको केवल हिमाचल की छोटी काशी के नाम से मशहूर मंडी जिला के सराज घाटी में देखने को मिलेंगी.

सराज घाटी के लोग आज भी शिवरात्रि की दुर्लभ परंपराओं को बचाए हुए हैं. ईटीवी भारत आपको मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह विधानसभा क्षेत्र सराज की ऐसी ही अनूठी परंपराओं से रूबरू करवाने जा रहा है. भगवान भोलेनाथ का प्रिय फल कुपू (ये संतरे की तरह दिखने वाला फल) होता है जिसे नैर नामक पौधे की पत्तियों में पिरोया जाता है.

स्थानीय भाषा में इसे जंदोह कहा जाता है. स्थानीय लोग जंदोह को भगवान भोलेनाथ का स्वरूप मानकर पूजते हैं. फल का पूजन होता है इसे खाया नहीं जाता. ये फल सराज में पाया जाने वाला दुर्लभ फल है. शिवरात्रि महोत्सव के नजदीक स्थानीय लोग खारका उत्सव मनाते हैं. उत्सव के दौरान इस फल की पूजा होती है.

अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव के दौरान भी राज दरबार में इस फल और नैर नामक पौधे की पत्तियों से बनने वाले जंदोह को लगाया जाता है, जिसे मंडयाली भाषा में सईंया कहा जाता है. अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव में इसका खास महत्व है.

भगवान भोलेनाथ के इस स्वरुप को सराज के प्रमुख देवता मगरू महादेव के गुर स्थापित करते हैं. राजा के बेहड़े में इसे स्थापित किया जाता है, जिसके बाद शिवरात्रि महोत्सव के समापन पर इस प्रक्रिया को पूरा किया जाता है.

पढ़ें: 5 साल बाद शिवरात्रि में कुल्लू से छोटी काशी पहुंचे देवता बड़ा छमाहू

राज दरबार में शिवरात्रि महोत्सव के दौरान इसे देखा जा सकता है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसके बारे में जानकारी है. जो लोग देव संस्कृति के जानकार हैं. वही इसकी परंपरा और महत्व को भलीभांति जानते और मानते हैं.

परंपरा है कि शिवरात्रि से पहले मनाया जाने वाला खारका उत्सव खुशी का प्रतीक है. जब किसी के घर में कोई इंसान या पालतू जानवर शिवरात्रि के दिन में जन्म लेता है तो उस परिवार के मामा के घर से लोग इस परंपरा का निर्वहन करने पहुंचते हैं. इसके अलावा मनोकामना पूरी होने पर भी इस उत्सव का आयोजन सराज क्षेत्र में किया जाता है. इस दौरान उत्सव से जुड़े हुए विशेष लोकगीतों को गाया जाता है.

ये लोकगीत महादेव को समर्पित होते हैं जिन पर स्थानीय लोग नाटी डालते हैं. नाटी करने के बाद घर में जंदोह की स्थापना की जाती है. वहीं, पारंपरिक व्यंजनों का भोग भगवान भोलेनाथ को लगाया जाता है. रात भर भजन-कीर्तन का दौर चलता है और सुबह होते ही जंदोह की स्थापना के बाद फिर तय स्थान पर जंदोह को बांध दिया जाता है. अक्सर जंदोह को दीवार या फिर पेड़ से बांधा जाता है.

इस दैवीय प्रक्रिया में सावधानी बरतनी पड़ती है. यदि तय समय अवधि में स्थापना के दौरान परिवार के किसी सदस्य को नींद आ जाती है तो अगली रात का इंतजार परिवार को करना होता है. उसके बाद ही ये स्थापना पूर्ण मानी जाती है.

वीडियो रिपोर्ट

मान्यता है कि भगवान भोलेनाथ के इस स्वरुप के सुरक्षा कवच से बुरी और असुरी शक्तियां घर के इर्द-गिर्द नहीं आती. वहीं, मगरू महादेव के पुजारी का कहना है कि सराज के साथ ही मंडी शिवरात्रि में भी इस पर्व का विशेष महत्व है और इस दौरान दैवीय प्रक्रिया को पूरा किया जाता है.राजाओं के दौर से देवता शिवरात्रि महोत्सव में भाग लेने के लिए मंडी आ रहे हैं. पांच दिन का पैदल सफर करके देवलू देवता के साथ शिवरात्रि महोत्सव में इस कार्य को संपन्न करने के लिए पहुंचते हैं.

पढ़ें:देवताओं का नजराना और बजंतरियों का मानदेय 10 प्रतिशत बढ़ा, सीएम ने की घोषणा

मंडी: शिवरात्रि पर्व से जुड़ी हुई अनेकों परंपराएं देश में प्रचलित हैं. इनमें से कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो आपको केवल हिमाचल की छोटी काशी के नाम से मशहूर मंडी जिला के सराज घाटी में देखने को मिलेंगी.

सराज घाटी के लोग आज भी शिवरात्रि की दुर्लभ परंपराओं को बचाए हुए हैं. ईटीवी भारत आपको मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह विधानसभा क्षेत्र सराज की ऐसी ही अनूठी परंपराओं से रूबरू करवाने जा रहा है. भगवान भोलेनाथ का प्रिय फल कुपू (ये संतरे की तरह दिखने वाला फल) होता है जिसे नैर नामक पौधे की पत्तियों में पिरोया जाता है.

स्थानीय भाषा में इसे जंदोह कहा जाता है. स्थानीय लोग जंदोह को भगवान भोलेनाथ का स्वरूप मानकर पूजते हैं. फल का पूजन होता है इसे खाया नहीं जाता. ये फल सराज में पाया जाने वाला दुर्लभ फल है. शिवरात्रि महोत्सव के नजदीक स्थानीय लोग खारका उत्सव मनाते हैं. उत्सव के दौरान इस फल की पूजा होती है.

अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव के दौरान भी राज दरबार में इस फल और नैर नामक पौधे की पत्तियों से बनने वाले जंदोह को लगाया जाता है, जिसे मंडयाली भाषा में सईंया कहा जाता है. अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव में इसका खास महत्व है.

भगवान भोलेनाथ के इस स्वरुप को सराज के प्रमुख देवता मगरू महादेव के गुर स्थापित करते हैं. राजा के बेहड़े में इसे स्थापित किया जाता है, जिसके बाद शिवरात्रि महोत्सव के समापन पर इस प्रक्रिया को पूरा किया जाता है.

पढ़ें: 5 साल बाद शिवरात्रि में कुल्लू से छोटी काशी पहुंचे देवता बड़ा छमाहू

राज दरबार में शिवरात्रि महोत्सव के दौरान इसे देखा जा सकता है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसके बारे में जानकारी है. जो लोग देव संस्कृति के जानकार हैं. वही इसकी परंपरा और महत्व को भलीभांति जानते और मानते हैं.

परंपरा है कि शिवरात्रि से पहले मनाया जाने वाला खारका उत्सव खुशी का प्रतीक है. जब किसी के घर में कोई इंसान या पालतू जानवर शिवरात्रि के दिन में जन्म लेता है तो उस परिवार के मामा के घर से लोग इस परंपरा का निर्वहन करने पहुंचते हैं. इसके अलावा मनोकामना पूरी होने पर भी इस उत्सव का आयोजन सराज क्षेत्र में किया जाता है. इस दौरान उत्सव से जुड़े हुए विशेष लोकगीतों को गाया जाता है.

ये लोकगीत महादेव को समर्पित होते हैं जिन पर स्थानीय लोग नाटी डालते हैं. नाटी करने के बाद घर में जंदोह की स्थापना की जाती है. वहीं, पारंपरिक व्यंजनों का भोग भगवान भोलेनाथ को लगाया जाता है. रात भर भजन-कीर्तन का दौर चलता है और सुबह होते ही जंदोह की स्थापना के बाद फिर तय स्थान पर जंदोह को बांध दिया जाता है. अक्सर जंदोह को दीवार या फिर पेड़ से बांधा जाता है.

इस दैवीय प्रक्रिया में सावधानी बरतनी पड़ती है. यदि तय समय अवधि में स्थापना के दौरान परिवार के किसी सदस्य को नींद आ जाती है तो अगली रात का इंतजार परिवार को करना होता है. उसके बाद ही ये स्थापना पूर्ण मानी जाती है.

वीडियो रिपोर्ट

मान्यता है कि भगवान भोलेनाथ के इस स्वरुप के सुरक्षा कवच से बुरी और असुरी शक्तियां घर के इर्द-गिर्द नहीं आती. वहीं, मगरू महादेव के पुजारी का कहना है कि सराज के साथ ही मंडी शिवरात्रि में भी इस पर्व का विशेष महत्व है और इस दौरान दैवीय प्रक्रिया को पूरा किया जाता है.राजाओं के दौर से देवता शिवरात्रि महोत्सव में भाग लेने के लिए मंडी आ रहे हैं. पांच दिन का पैदल सफर करके देवलू देवता के साथ शिवरात्रि महोत्सव में इस कार्य को संपन्न करने के लिए पहुंचते हैं.

पढ़ें:देवताओं का नजराना और बजंतरियों का मानदेय 10 प्रतिशत बढ़ा, सीएम ने की घोषणा

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