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अद्भुत, अलौलिक, रहस्यमयी और अविस्मरणीय, कुछ ऐसा है मणिमहेश कैलाश पर्वत

आज हम अपनी सीरीज 'रहस्य' में आपको बताएंगे प्रसिद्ध धार्मिक स्थल और शिव धाम मणिमहेश के बारे में. ये शिव धाम जिला चंबा से करीब 60 किलोमीटर दूर भरमौर उप मंडल में स्थित है. मणिमहेश में कैलाश पर्वत भगवान शिव का वास स्थान माना जाता है.

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Published : Aug 25, 2019, 1:02 PM IST

Updated : Aug 25, 2019, 1:13 PM IST

Manimahesh Kailash

चंबा: दुनिया के लिए शोध का विषय बन चुके कैलाश पर्वत के रहस्य बेशक अभी तक सामने नहीं आ पाए हों, लेकिन जन्माष्टमी और राधाअष्टमी के दिन, चौथे पहर में कैलाश पर दिखाई पड़ती दिव्य ज्योति और फिर इसके डल झील में समा जाने के अदभुत, अलौलिक और अविस्मरणीय क्षण में गूंजते भोले नाथ के उदघोष भगवान की मौजूदगी की गवाही अभी भी देते हैं.

आज हम अपनी सीरीज 'रहस्य' में आपको बताएंगे प्रसिद्ध धार्मिक स्थल और शिव धाम मणिमहेश के बारे में. ये शिव धाम जिला चंबा से करीब 60 किलोमीटर दूर भरमौर उप मंडल में स्थित है. मणिमहेश में कैलाश पर्वत भगवान शिव का वास स्थान माना जाता है.

मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर भगवान भोले नाथ शेषमणि के रूप में विराजमान है. भगवान शिव लोगों को दर्शन भी मणि के रूप में देते है. इसलिए इस धार्मिक स्थल का नाम मणिमहेश पड़ा. वहीं, धौलाधार, पांगी व जांस्कर पर्वत शृंखलाओं से घिरा यह कैलाश पर्वत मणिमहेश-कैलाश के नाम से जाना जाता है.

वीडियो.

कहा जाता है कि सच्चे मन से भगवान भोले नाथ की भक्ति के साथ डल झील में पहुंचने वाले श्रद्वालुओं को ही यहां मणि के दर्शन होते हैं. वहीं, एक और किवंदती के अनुसार भगवान शंकर ने पार्वती के साथ रहने के लिए इस मणिमहेश पर्वत की रचना की थी.

भगवान शिव आज भी चौथे पहर में अपने भक्तों को मणि के रूप में दर्शन देते हैं. इस स्वर्णिम लम्हें के इंतजार में कई शिवभक्त पूरी रात नहीं सोते और जैसे ही चौथे पहर में चांद की रोशनी से मणि चमकती है तो पूरी डल झील और आसपास का क्षेत्र भगवान भोले नाथ के जयकारों और उदघोष से गूंज उठता है.

चमत्कारों और रहस्यों से भरे कैलाश पर्वत में दिखने वाले इस अदभुत नजारे के आगे डल झील पर मौजूद हर कोई शख्स नतमस्तक हो जाता है. रोचक है कि हर वर्ष यहां जन्माष्टमी से राधाअष्टमी तक आयोजित होने वाली मणिमहेश यात्रा के दौरान लाखों की संख्या में श्रद्वालु डल झील में आस्था की डुबकी लगाते हैं.

पढ़ेंः हिमाचल की बेताल गुफा में छिपे हैं कई रहस्य, जानें क्या है लोगों की आस्था

विशेषकर जन्माष्टमी और राधाअष्टमी वाले दिन डल झील में मणि के दर्शनों के लिए एक साथ लाखों की संख्या में लोग जुटते हैं. जन्माष्टमी के दिन डल झील में छोटे न्हौण का आयोजन किया जाता है. इसके अलावा राधाअष्टमी के दिन बड़े न्हौण या शाही स्नान होता है.

टरकोइज माउंटेन के नाम से भी है प्रसिद्व
कैलाश पर्वत को टरकोइज माउंटेन भी कहा जाता है. टरकोइज का अर्थ है नीलमणि. सूर्योदय के समय क्षितिज में लालिमा छा जाती है और उसके साथ ही प्रकाश की सुनहरी किरणों निकलती है, लेकिन मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है, तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती है.

अलबता इस दौरान यहां का पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश में ओत-प्रोत हो जाता है. यह इस बात का प्रमाण है कि कैलाश पर्वत पर नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद है. जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली हो जाती है.

पर्वत पर चढ़ने से अदृश्य शक्तियां रोक देती है कदम
कहा जाता है कि कैलाश पर्वत पर चढ़ाई करने के लिए कई बार प्रयास हो चुके हैं, लेकिन यहां अदृश्य शक्तियां है, जो कदमों को रोक देती हैं. वर्ष 1968 में इंडो-जापान की एक टीम ने एक महिला के नेतृत्व में इस पर्वत पर चढने का असफल प्रयास किया था.

वहीं, किवदंतियों के मुताबिक एक गडरिए ने अपनी भेडों के साथ पर्वत पर चढने की कोशिश की थी, लेकिन वह पर्वत की चोटी तक पहुंचने से पहले ही पत्थर के रूप में तब्दील हो गया था. कहा जाता है कि इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी कैलाश पर्वत पर छोटे-छोटे पत्थरों के रूप में देखने को मिलता है. इनके अलावा भी इस पर्वत पर कई पर्वतारोहियों द्वारा चढ़ाई करने के असफल प्रयास हो चुके हैं.

मणिमहेश डल झील की खोज
भरमौर उपमंडल से 13 किलोमीटर दूर हड़सर से करीब 13746 फीट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश झील की खोज सबसे पहले बाबा चरपट नाथ ने की थी. किंवदंती है कि बाबा चरपट नाथ ने ही छठी शताब्दी में मणिमहेश की पवित्र डल झील के किनारे शिवलिंग की स्थापना की थी.

बताया जाता है कि यह शिवलिंग भरमौर रियासत के तत्कालीन राजा मेरूवर्मन को राजस्थान रियासत के एक राजा ने भेंट किया था. इसके बाद राजा मेरूवर्मन ने इस शिवलिंग को बाबा चरपट नाथ को दिया और उन्होंने इसे राधाष्टमी के दिन मणिमहेश झील के किनारे विधिवत पूजा-अर्चना के बाद स्थापित कर दिया.

पढ़ेंः मां 'ज्वालाजी' एक ऐसा रहस्य जो अकबर, अंग्रेज और वैज्ञानिक भी पता नहीं लगा पाए

इसके बाद बाबा चरपट नाथ हर साल अपने चेलों के साथ राधाष्टमी को झील किनारे पूजा-अर्चना एवं स्नान करने के लिए जाते रहे. हड़सर से धन्छो व सुंदरासी से होते हुए गौरी कुंड पहुंचने के बाद करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित मणिमहेश झील में स्नान करने के बाद श्रद्धालु यहां स्थापित शिवलिंग पर जल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करते हैं और यहीं से कैलाश पर्वत यानी मणिमहेश का भव्य नजारा भी देखने को मिलता है.

हिमाचल के चंबा जिला के लोगों के अलावा मणिमहेश यात्रा जम्मू-कश्मीर के लोगों खासकर जम्मू के लिए भी आस्था का केंद्र है. हर साल जम्मू-कश्मीर के डोडा-भद्रवाह से हजारों की संख्या में श्रद्धालु मणिमहेश यात्रा के लिए आते हैं.

यात्रा के पड़ाव
मणिमहेश के लिए पैदल यात्रा हड़सर से शुरू होती है और धन्छो, सुंदरासी, शिवघराट व गौरीकुंड के पड़ाव के बाद खड़ी चढ़ाई चढ़कर डल झील पहुंचा जा सकता है. कुछ यात्री हड़सर से कुगती होकर मणिमहेश पहुंचते हैं, इसे परिक्रमा की संज्ञा भी दी जाती है,क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कुगती से होकर डल डील में पहुंचने से कैलाश पर्वत की परिक्रमा हो जाती है, जिसे पहाड़ी भाषा में कुछ लोग फेरी भी कहते हैं. कुछ यात्री डल झील में स्नान करने के बाद कमल कुंड में जाकर भी पूजा-अर्चना करते हैं.

महिलाएं गौरीकुंड में करती हैं स्नान
गौरीकुंड पहुंचने पर प्रथम कैलाश शिखर के दर्शन होते हैं. गौरीकुंड माता गौरी का स्नान स्थल है. यात्रा में आने वाली स्त्रियां यहां स्नान करती हैं. यहां से डेढ़ किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील पहुंचा जाता है. यह झील चारों ओर से पहाड़ों से घिरी हुई, देखने वालों की थकावट को क्षण भर में दूर कर देती है. बादलों में घिरा कैलाश पर्वत शिखर दर्शन देने के लिए कभी-कभी ही बाहर आता है.

यात्रा के दौरान जगह-जगह सामाजिक संगठनों की ओर से लगाए लंगर एवं निःशुल्क चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाई जाती है. यात्रा शुरू करने से पहले लोग भरमौर से डूग्गा सार पहाड़ी पर स्थित माता ब्रह्माणी के दर्शनों के लिए जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि मणिमहेश यात्रा से पहले माता ब्रह्माणी के दरबार में हाजिरी लगाना जरूरी है.

पढ़ेंः नाको झील की खूबसूरती में छिपा है गहरा 'रहस्य', तांत्रिक गुरु पद्म संभव से जुड़ा है इतिहास

कहा जाता है कि कभी ब्रह्मपुर के नाम से विख्यात भरमौर में ब्रह्मा की पुत्री ब्रह्माणी का वास हुआ करता था. भगवान भोले नाथ ने माता ब्रह्माणी को यह वरदान दिया था कि जो भी व्यक्ति मेरे दर्शन के लिए मणिमहेश आएगा, वह पहले माता ब्रह्माणी के दर्शन करेगा, तभी उसकी यात्रा सफल होगी.

ऐसे पहुंचे भरमौर
भरमौर से जिला मुख्यालय चंबा की दूरी 60 किलोमीटर है. वहीं, मणिमहेश यात्रा हड़सर से पैदल शुरू होती है. हड़सर से डल झील की दूरी 13 किलोमीटर है वहीं, हड़सर से भरमौर करीब 10 किलोमीटर है. कुल मिलाकर चंबा मुख्यालय से मणिमहेश की दूरी 83 किलोमीटर होती है.

वहीं, पठानकोट से चंबा की दूरी 120 किलोमीटर और पठानकोट-भरमौर-मणिमहेश की दूरी होती है 200 किलोमीटर से ज्यादा. पठानकोट, मणिमहेश कैलाश यात्रा के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन है, जबकि कांगड़ा हवाई अड्डा सबसे नजदीकी हवाई अड्डा है.

ये भी पढ़ेंः अनोखा है ये भगवान शिव का ये मंदिर, हर 12 साल में यहां गिरती है आकाशीय बिजली

चंबा: दुनिया के लिए शोध का विषय बन चुके कैलाश पर्वत के रहस्य बेशक अभी तक सामने नहीं आ पाए हों, लेकिन जन्माष्टमी और राधाअष्टमी के दिन, चौथे पहर में कैलाश पर दिखाई पड़ती दिव्य ज्योति और फिर इसके डल झील में समा जाने के अदभुत, अलौलिक और अविस्मरणीय क्षण में गूंजते भोले नाथ के उदघोष भगवान की मौजूदगी की गवाही अभी भी देते हैं.

आज हम अपनी सीरीज 'रहस्य' में आपको बताएंगे प्रसिद्ध धार्मिक स्थल और शिव धाम मणिमहेश के बारे में. ये शिव धाम जिला चंबा से करीब 60 किलोमीटर दूर भरमौर उप मंडल में स्थित है. मणिमहेश में कैलाश पर्वत भगवान शिव का वास स्थान माना जाता है.

मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर भगवान भोले नाथ शेषमणि के रूप में विराजमान है. भगवान शिव लोगों को दर्शन भी मणि के रूप में देते है. इसलिए इस धार्मिक स्थल का नाम मणिमहेश पड़ा. वहीं, धौलाधार, पांगी व जांस्कर पर्वत शृंखलाओं से घिरा यह कैलाश पर्वत मणिमहेश-कैलाश के नाम से जाना जाता है.

वीडियो.

कहा जाता है कि सच्चे मन से भगवान भोले नाथ की भक्ति के साथ डल झील में पहुंचने वाले श्रद्वालुओं को ही यहां मणि के दर्शन होते हैं. वहीं, एक और किवंदती के अनुसार भगवान शंकर ने पार्वती के साथ रहने के लिए इस मणिमहेश पर्वत की रचना की थी.

भगवान शिव आज भी चौथे पहर में अपने भक्तों को मणि के रूप में दर्शन देते हैं. इस स्वर्णिम लम्हें के इंतजार में कई शिवभक्त पूरी रात नहीं सोते और जैसे ही चौथे पहर में चांद की रोशनी से मणि चमकती है तो पूरी डल झील और आसपास का क्षेत्र भगवान भोले नाथ के जयकारों और उदघोष से गूंज उठता है.

चमत्कारों और रहस्यों से भरे कैलाश पर्वत में दिखने वाले इस अदभुत नजारे के आगे डल झील पर मौजूद हर कोई शख्स नतमस्तक हो जाता है. रोचक है कि हर वर्ष यहां जन्माष्टमी से राधाअष्टमी तक आयोजित होने वाली मणिमहेश यात्रा के दौरान लाखों की संख्या में श्रद्वालु डल झील में आस्था की डुबकी लगाते हैं.

पढ़ेंः हिमाचल की बेताल गुफा में छिपे हैं कई रहस्य, जानें क्या है लोगों की आस्था

विशेषकर जन्माष्टमी और राधाअष्टमी वाले दिन डल झील में मणि के दर्शनों के लिए एक साथ लाखों की संख्या में लोग जुटते हैं. जन्माष्टमी के दिन डल झील में छोटे न्हौण का आयोजन किया जाता है. इसके अलावा राधाअष्टमी के दिन बड़े न्हौण या शाही स्नान होता है.

टरकोइज माउंटेन के नाम से भी है प्रसिद्व
कैलाश पर्वत को टरकोइज माउंटेन भी कहा जाता है. टरकोइज का अर्थ है नीलमणि. सूर्योदय के समय क्षितिज में लालिमा छा जाती है और उसके साथ ही प्रकाश की सुनहरी किरणों निकलती है, लेकिन मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है, तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती है.

अलबता इस दौरान यहां का पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश में ओत-प्रोत हो जाता है. यह इस बात का प्रमाण है कि कैलाश पर्वत पर नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद है. जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली हो जाती है.

पर्वत पर चढ़ने से अदृश्य शक्तियां रोक देती है कदम
कहा जाता है कि कैलाश पर्वत पर चढ़ाई करने के लिए कई बार प्रयास हो चुके हैं, लेकिन यहां अदृश्य शक्तियां है, जो कदमों को रोक देती हैं. वर्ष 1968 में इंडो-जापान की एक टीम ने एक महिला के नेतृत्व में इस पर्वत पर चढने का असफल प्रयास किया था.

वहीं, किवदंतियों के मुताबिक एक गडरिए ने अपनी भेडों के साथ पर्वत पर चढने की कोशिश की थी, लेकिन वह पर्वत की चोटी तक पहुंचने से पहले ही पत्थर के रूप में तब्दील हो गया था. कहा जाता है कि इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी कैलाश पर्वत पर छोटे-छोटे पत्थरों के रूप में देखने को मिलता है. इनके अलावा भी इस पर्वत पर कई पर्वतारोहियों द्वारा चढ़ाई करने के असफल प्रयास हो चुके हैं.

मणिमहेश डल झील की खोज
भरमौर उपमंडल से 13 किलोमीटर दूर हड़सर से करीब 13746 फीट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश झील की खोज सबसे पहले बाबा चरपट नाथ ने की थी. किंवदंती है कि बाबा चरपट नाथ ने ही छठी शताब्दी में मणिमहेश की पवित्र डल झील के किनारे शिवलिंग की स्थापना की थी.

बताया जाता है कि यह शिवलिंग भरमौर रियासत के तत्कालीन राजा मेरूवर्मन को राजस्थान रियासत के एक राजा ने भेंट किया था. इसके बाद राजा मेरूवर्मन ने इस शिवलिंग को बाबा चरपट नाथ को दिया और उन्होंने इसे राधाष्टमी के दिन मणिमहेश झील के किनारे विधिवत पूजा-अर्चना के बाद स्थापित कर दिया.

पढ़ेंः मां 'ज्वालाजी' एक ऐसा रहस्य जो अकबर, अंग्रेज और वैज्ञानिक भी पता नहीं लगा पाए

इसके बाद बाबा चरपट नाथ हर साल अपने चेलों के साथ राधाष्टमी को झील किनारे पूजा-अर्चना एवं स्नान करने के लिए जाते रहे. हड़सर से धन्छो व सुंदरासी से होते हुए गौरी कुंड पहुंचने के बाद करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित मणिमहेश झील में स्नान करने के बाद श्रद्धालु यहां स्थापित शिवलिंग पर जल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करते हैं और यहीं से कैलाश पर्वत यानी मणिमहेश का भव्य नजारा भी देखने को मिलता है.

हिमाचल के चंबा जिला के लोगों के अलावा मणिमहेश यात्रा जम्मू-कश्मीर के लोगों खासकर जम्मू के लिए भी आस्था का केंद्र है. हर साल जम्मू-कश्मीर के डोडा-भद्रवाह से हजारों की संख्या में श्रद्धालु मणिमहेश यात्रा के लिए आते हैं.

यात्रा के पड़ाव
मणिमहेश के लिए पैदल यात्रा हड़सर से शुरू होती है और धन्छो, सुंदरासी, शिवघराट व गौरीकुंड के पड़ाव के बाद खड़ी चढ़ाई चढ़कर डल झील पहुंचा जा सकता है. कुछ यात्री हड़सर से कुगती होकर मणिमहेश पहुंचते हैं, इसे परिक्रमा की संज्ञा भी दी जाती है,क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कुगती से होकर डल डील में पहुंचने से कैलाश पर्वत की परिक्रमा हो जाती है, जिसे पहाड़ी भाषा में कुछ लोग फेरी भी कहते हैं. कुछ यात्री डल झील में स्नान करने के बाद कमल कुंड में जाकर भी पूजा-अर्चना करते हैं.

महिलाएं गौरीकुंड में करती हैं स्नान
गौरीकुंड पहुंचने पर प्रथम कैलाश शिखर के दर्शन होते हैं. गौरीकुंड माता गौरी का स्नान स्थल है. यात्रा में आने वाली स्त्रियां यहां स्नान करती हैं. यहां से डेढ़ किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील पहुंचा जाता है. यह झील चारों ओर से पहाड़ों से घिरी हुई, देखने वालों की थकावट को क्षण भर में दूर कर देती है. बादलों में घिरा कैलाश पर्वत शिखर दर्शन देने के लिए कभी-कभी ही बाहर आता है.

यात्रा के दौरान जगह-जगह सामाजिक संगठनों की ओर से लगाए लंगर एवं निःशुल्क चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाई जाती है. यात्रा शुरू करने से पहले लोग भरमौर से डूग्गा सार पहाड़ी पर स्थित माता ब्रह्माणी के दर्शनों के लिए जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि मणिमहेश यात्रा से पहले माता ब्रह्माणी के दरबार में हाजिरी लगाना जरूरी है.

पढ़ेंः नाको झील की खूबसूरती में छिपा है गहरा 'रहस्य', तांत्रिक गुरु पद्म संभव से जुड़ा है इतिहास

कहा जाता है कि कभी ब्रह्मपुर के नाम से विख्यात भरमौर में ब्रह्मा की पुत्री ब्रह्माणी का वास हुआ करता था. भगवान भोले नाथ ने माता ब्रह्माणी को यह वरदान दिया था कि जो भी व्यक्ति मेरे दर्शन के लिए मणिमहेश आएगा, वह पहले माता ब्रह्माणी के दर्शन करेगा, तभी उसकी यात्रा सफल होगी.

ऐसे पहुंचे भरमौर
भरमौर से जिला मुख्यालय चंबा की दूरी 60 किलोमीटर है. वहीं, मणिमहेश यात्रा हड़सर से पैदल शुरू होती है. हड़सर से डल झील की दूरी 13 किलोमीटर है वहीं, हड़सर से भरमौर करीब 10 किलोमीटर है. कुल मिलाकर चंबा मुख्यालय से मणिमहेश की दूरी 83 किलोमीटर होती है.

वहीं, पठानकोट से चंबा की दूरी 120 किलोमीटर और पठानकोट-भरमौर-मणिमहेश की दूरी होती है 200 किलोमीटर से ज्यादा. पठानकोट, मणिमहेश कैलाश यात्रा के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन है, जबकि कांगड़ा हवाई अड्डा सबसे नजदीकी हवाई अड्डा है.

ये भी पढ़ेंः अनोखा है ये भगवान शिव का ये मंदिर, हर 12 साल में यहां गिरती है आकाशीय बिजली

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Special Story on Manimahesh yatra


Conclusion:
Last Updated : Aug 25, 2019, 1:13 PM IST
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