रुड़की: प्रदेश में बन रही प्राकृतिक असंतुलन की वजह पर रुड़की आईआईटी के वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं. आईआईटी के वैज्ञानिकों का मानना है कि जल विद्युत परियोजना ग्लोबल वार्मिंग की वजह बन रही हैं. नेशनल हाईड्रो पावर कॉरपोरशन नई दिल्ली की ओर से आईआईटी रुड़की और संस्थान के एक स्टार्ट अप इनोवेंट वाटर सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड को एक प्रोजेक्ट सौंपा गया है. इसके तहत संस्थान के पूर्व वैज्ञानिक डॉ नयन शर्मा, डॉ बीआर गुर्जर बांधों से बनी झीलों से उत्सर्जित होने वाली मीथेन, कार्बन डाईऑक्साइड और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा और इसके दुष्प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं.
अध्ययन के लिए हिमाचल प्रदेश के चमेरा डैम को चुना गया
दरअसल, अध्ययन के लिए हिमाचल प्रदेश में रावी नदी पर डलहौजी के पास बने चमेरा डैम को चुना गया है. यहां कई किलोमीटर लंबी झील बनी है. वैज्ञानिक डॉ नयन शर्मा ने बताया कि वैश्विक स्तर पर हुए अध्ययन में यह साबित हुआ है कि पिछले 20 वर्षों में मीथेन, कार्बन डाईऑक्साइड के मुकाबले जलवायु परिवर्तन में 86 गुना ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है. ऐसे में देशभर में बनी पांच हजार से अधिक झीलों का अध्ययन और मीथेन के उत्सर्जन को कम करने के उपायों को अमल में लाया जाना जरूरी है.
सर्दी, गर्मी, मानसून और पोस्ट मॉनसून में 15 स्थानों से सैंपल भी लिए गए हैं. जिनकी जांच चल रही है. साथ ही पानी की गहराई, हवा की गति, तलछट भार का भी मूल्यांकन किया जा रहा है. डॉ. नयन शर्मा के अनुसार माइक्रो क्लाइमेट की वजह से उत्तराखंड में टिहरी झील से निकलने वाली मीथेन गैस का हिमालयीय क्षेत्र पर भी प्रभाव पड़ रहा है. लेकिन यह प्रभाव कितना है, इसका अध्ययन के बाद ही आकलन किया जा सकेगा.
जानिए क्या कहते है डॉ. नयन शर्मा ?
डॉ. नयन शर्मा ने बताया कि मीथेन उत्सर्जन को रोकने के लिए कई उपाय अमल में लाए जाते हैं. जैसे जम्मू कश्मीर की डल झील में पानी को अन्य जगह पर निकासी करने से इस समस्या को कम किया गया. इसके अलावा कुछ केमिकल का भी प्रयोग किया जाता है. झीलों की तलहटी में जमा सेडीमेंट को कम कर गैसों के उत्सर्जन को रोका जा सकता है.
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