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मोहर्रम पर इस बार नहीं निकला राजधानी में जुलूस, मस्जिदों में ही मनाया मातम-ए-हुसैन

राजधानी शिमला में शिया समुदाय ने इमाम बाड़ा लद्दाखी मोहल्ले में मस्जिद में ही ताजिया निकाला और वहीं रखा गया. इसके अलावा लोगों ने वहां पर इमाम हुसैन को याद किया और मातम-ए-हुसैन मनाया गया.

Muharram celebrated  in Shimla mosques
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Published : Aug 30, 2020, 3:48 PM IST

शिमलाः आज देशभर में मोहर्रम मनाया जा रहा है. कोरोना महामारी को देखते हुए इस बार मोहर्रम की ताजिया नहीं निकाली गई. सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करने के लिए और लोगों की सेहत और जीवन के जोखिम को देखते हुए ये निर्णय लिया गया है.

राजधानी शिमला में शिया समुदाय ने इमाम बाड़ा लद्दाखी मोहल्ले में मस्जिद में ही ताजिया निकाला और वहीं रखा गया. इसके अलावा लोगों ने वहां पर इमाम हुसैन को याद किया और मातम-ए-हुसैन मनाया गया. हालांकि हर साल शिमला में लद्दाखी मुहल्ले से बैरियर तक जुलूस निकाला जाता था. साथ ही हुसैन की याद में खून बहाया जाता था, लेकिन कोरोना के चलते पहली बार ऐसा हुआ कि शहर में जुलूस नहीं निकला गया.

वीडियो रिपोर्ट

शिमला में रहे 75 साल के मोहम्मद अब्दुल्ला का कहना है कि वे हर साल मोहर्रम पर यहां जलूस का आयोजन करते आए थे, लेकिन इस बार कोरोना के चलते कोई कार्यक्रम का आयोजित नहीं किया गया.

मस्जिद में ही अमन शांति और कोरोना से निजात के लिए दुआ मांगी गई. कोरोना वायरस का लोगों में संक्रमण का फैलाव न हो, फातिहा और निशान चढ़ाने जैसे कार्यक्रम शारीरिक दूरी के नियमों का पालन करते हुए किया गया.

बता दें इसे गम का महीना कहा जाता है. पैगंबर-ए-इस्‍लाम हजरत मोहम्‍मद के नाती हजरत इमाम हुसैन समेत कर्बला के 72 शहीदों की शहादत की याद में मुस्लिम समाज खासकर शिया समुदाय मातम मनाता है और जुलूस निकालता है. इस दौरान मोहर्रम माह के नौवें या दसवें दिन को रोजा रखा जाता है. मोहर्रम के जुलूस के साथ ताजिए दफन किए जाते हैं.

कर्बला की जंग और मातम

हजरत इमाम हुसैन और बादशाह यजीद की सेना के बीच कर्बला में जंग हुई थी. हजरत इमाम हुसैन अपने परिवार और दोस्तों के साथ इसमें शहीद हो गए थे. इमाम हुसैन का मकबरा बगदाद से 120 किमी दूर उस स्थान पर ही बना है, जहां पर जंग हुई थी.

इसके स्थान को बेहद ही श्रद्धा और सम्मान के साथ देखा जाता है. बताया जाता है ​कि हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम की रक्षा के लिए मोहर्रम के 10वें दिन स्वयं को कर्बला में कुर्बान कर दिया था.

इस दिन को आशूरा के रूप में भी जाना जाता है. इसकी याद में ही हर वर्ष ताजिए निकाले जाते हैं और मातम मनाया जाता है. उन ताजियों को शहीदों के प्रतीक के रूप में दफनाया जाता है.

ये भी पढ़ें: हिमाचल में कोरोना से 33वीं मौत, 65 वर्षीय महिला ने टांडा में तोड़ा दम

शिमलाः आज देशभर में मोहर्रम मनाया जा रहा है. कोरोना महामारी को देखते हुए इस बार मोहर्रम की ताजिया नहीं निकाली गई. सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करने के लिए और लोगों की सेहत और जीवन के जोखिम को देखते हुए ये निर्णय लिया गया है.

राजधानी शिमला में शिया समुदाय ने इमाम बाड़ा लद्दाखी मोहल्ले में मस्जिद में ही ताजिया निकाला और वहीं रखा गया. इसके अलावा लोगों ने वहां पर इमाम हुसैन को याद किया और मातम-ए-हुसैन मनाया गया. हालांकि हर साल शिमला में लद्दाखी मुहल्ले से बैरियर तक जुलूस निकाला जाता था. साथ ही हुसैन की याद में खून बहाया जाता था, लेकिन कोरोना के चलते पहली बार ऐसा हुआ कि शहर में जुलूस नहीं निकला गया.

वीडियो रिपोर्ट

शिमला में रहे 75 साल के मोहम्मद अब्दुल्ला का कहना है कि वे हर साल मोहर्रम पर यहां जलूस का आयोजन करते आए थे, लेकिन इस बार कोरोना के चलते कोई कार्यक्रम का आयोजित नहीं किया गया.

मस्जिद में ही अमन शांति और कोरोना से निजात के लिए दुआ मांगी गई. कोरोना वायरस का लोगों में संक्रमण का फैलाव न हो, फातिहा और निशान चढ़ाने जैसे कार्यक्रम शारीरिक दूरी के नियमों का पालन करते हुए किया गया.

बता दें इसे गम का महीना कहा जाता है. पैगंबर-ए-इस्‍लाम हजरत मोहम्‍मद के नाती हजरत इमाम हुसैन समेत कर्बला के 72 शहीदों की शहादत की याद में मुस्लिम समाज खासकर शिया समुदाय मातम मनाता है और जुलूस निकालता है. इस दौरान मोहर्रम माह के नौवें या दसवें दिन को रोजा रखा जाता है. मोहर्रम के जुलूस के साथ ताजिए दफन किए जाते हैं.

कर्बला की जंग और मातम

हजरत इमाम हुसैन और बादशाह यजीद की सेना के बीच कर्बला में जंग हुई थी. हजरत इमाम हुसैन अपने परिवार और दोस्तों के साथ इसमें शहीद हो गए थे. इमाम हुसैन का मकबरा बगदाद से 120 किमी दूर उस स्थान पर ही बना है, जहां पर जंग हुई थी.

इसके स्थान को बेहद ही श्रद्धा और सम्मान के साथ देखा जाता है. बताया जाता है ​कि हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम की रक्षा के लिए मोहर्रम के 10वें दिन स्वयं को कर्बला में कुर्बान कर दिया था.

इस दिन को आशूरा के रूप में भी जाना जाता है. इसकी याद में ही हर वर्ष ताजिए निकाले जाते हैं और मातम मनाया जाता है. उन ताजियों को शहीदों के प्रतीक के रूप में दफनाया जाता है.

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