शिमलाः शोध संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी (आईआईएएस) सोमवार को अपना 55वां स्थापना दिवस मनाया. कोरोना वायरस के चलते इस बार संस्थान में कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं हुआ, लेकिन सादगी के साथ संस्थान ने अपना स्थापना दिवस मनाया और संस्थापकों को याद किया.
आज यह संस्थान 55 साल का सफर पूरा कर चुका है और दुनिया भर में इसकी एक अलग पहचान है. संस्थान की स्थापना का मसकद मानविकी व सामाजिक अध्ययन के लिए वातावरण तैयार करना और उसे प्रोत्साहित करना था और संस्थान अपने इस लक्ष्य को बखूबी हासिल कर रहा है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी का भवन राजधानी शिमला के चौड़ा मैदान में स्थित है. भारत की आजादी से पहले ये भवन वायसरीगल लॉज यानी राष्ट्रपति निवास के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था.
1884 में हुआ था भवन का निर्माण
इस भवन का निर्माण 1884 में हुआ था. अंग्रेज शासकों ने अपने देश की आब-ओ-हवा सरीखी जगह की तलाश की और यहां 38 लाख की लागत से स्टॉकिश बेरोनियन शैली की इमारत खड़ी की गई. 4 साल में इमारत का काम पूरा हो गया. इमारत में कहीं-कहीं मिक्स्ड निर्माण शैली की झलक भी मिलती है जबकि इसकी भीतरी सज्जा के लिए बर्मा से टीक की लकड़ी लाई गई थी. इमारत ने कुल मिलाकर 120 कमरे हैं.
ब्रिटिश कालीन समय में इस इमारत में उस समय के तत्कालीन वायसरॉय रहा करते थे और आजादी के बाद इस भवन को राष्ट्रपति के निवास के रूप में इस्तेमाल किया गया, लेकिन देश के दूसरे राष्ट्रपति व शिक्षाविद सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने कार्यकाल में यह अनुभव किया कि इस भव्य इमारत को शोध और उच्च अध्ययन का एक ऐसा संस्थान बनाया जाना चाहिए जिसकी विश्व भर में एक अलग पहचान हो.
20 अक्टूबर 1965 को उच्च अध्ययन केंद्र के रूप में हुई स्थापना
इसके बाद इस भवन को उच्च अध्ययन का संस्थान बनाने के लिए संस्थान की सोसायटी का पंजीकरण 6 अक्टूबर 1964 को किया गया और 20 अक्टूबर 1965 में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान को शुरू किया गया. देश के आजाद होने के बाद स्वर्गीय डॉ. राधाकृष्णन की दुर्गामी सोच ही थी कि उन्होंने इस भवन को उच्च अध्ययन का एक ऐसा संस्थान बनाने की चाह रखी, जिसमें आज शोध के नए आयाम स्थापित हो रहे हैं.
डॉ. जाकिर हुसैन संस्थान के बने पहले अध्यक्ष
तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन संस्थान के पहले अध्यक्ष बने थे और वहीं, तत्कालीन शिक्षा मंत्री एमसी छागला को उपाध्यक्ष बनाया गया, जबकि संस्थान के प्रथम निदेशक प्रोफेसर निहार रंजन रॉय थे.
यहां की लाइब्रेरी में हैं डेढ़ लाख किताबें
स्थापना के समय से ही देश और विदेश की विख्यात बौद्धिक हस्तियां यहां अध्येता और राष्ट्रीय अध्येता शोध करते हैं. संस्थान की लाइब्रेरी भी अपने आप में ही एक ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें डेढ़ लाख किताबों का खजाना है.तिब्बती भाषा सहित संस्कृत, गुरुमुखी के हस्तलिखित दुर्लभ ग्रंथ यहां रखे गए हैं. लाइब्रेरी की सारी किताबों की जानकारी ऑनलाइन है. वहीं, संस्थान में केंद्र सरकार ने देश का पहला टैगोर सेंटर भी स्थापित किया है.
आंग सान सू की ने यहीं पूरी की थी किताब
दशकों से फौजियों के बूटों की धमक सुनने को मजबूर बर्मा को लोकतंत्र की राह दिखाने और वहां आमजन के शासन का मार्ग प्रशस्त करने वाली नेता आंग सान सू की में लोकतांत्रिक संस्कारों का बीज गहरा करने में संस्थान का योगदान अहम है.
आंग सान सू की भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो यानी अध्येता रही है. यहीं रहकर उन्होंने अपनी चर्चित पुस्तक 'बर्मा एंड इंडिया सम आस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल लाइफ अंडर कोलोनियललिज्म' पूरी की. इसका पहला संस्करण साल 1989 में प्रकाशित हुआ.
इस किताब की इतनी मांग हुई कि इसका दूसरा संस्करण भी छापना पड़ा. जब दिल्ली में नेहरू जयंती के मौके पर साल 2012 में किताब का दूसरा संस्करण छपा तो आंग सान सू की ने अपने भाषण में करीब 5 मिनट तक शिमला व संस्थान का जिक्र किया और कहा था 'दी बेस्ट पार्ट ऑफ माय लाइफ इज द टाइम व्हिच आई स्पेंड इन शिमला.' सू की फरवरी 1987 से लेकर अगस्त 1987 तक यहां अध्येता रही उनके पति माइकल एरिस भी यहां फैलो रहे.
अब देश विदेश के सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र है यह संस्थान
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी हिमाचल में एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल के रूप में भी जाना जाता है. भवन की ऐतिहासिकता, भव्य वास्तुकला और प्राकृतिक सौंदर्य को देखने के लिए देश और विदेश से हर साल लाखों की संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं.
विदेशी सैलानियों की संख्या भी इस संस्थान को देखने के लिए आने वालों में सबसे ज्यादा रहती है. हालांकि इस बार कोविड-19 की वजह से संस्थान बीते 8 महीने से बंद है और यहां पर्यटकों को आने की अनुमति नहीं दी जा रही है. यही वजह है कि इस बार यहां कोई पर्यटक आकर संस्थान की भव्य इतिहास के बारे में नहीं जान पा रहा हैं.
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