शिमला: छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में चुनावी बिसात में मतदाता करीब-करीब एक जैसी चाल चलते आए हैं. यहां पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन की परंपरा है. हिमाचल की जनता बारी-बारी से कांग्रेस और भाजपा को सत्ता के सिंहासन पर बिठाती आई है. भाजपा ने 2012 में मिशन रिपीट का नारा दिया था, लेकिन मतदाताओं ने सत्ता कांग्रेस के हाथ सौंप दी. इसी तरह भाजपा अब 2022 में भी मिशन रिपीट का नारा बुलंद (Himachal Assembly Election 2022) कर रही है, लेकिन आम आदमी पार्टी के चुनावी मैदान में ताल ठोकने के बाद मुकाबला रोचक होने के आसार हैं.
दोनों प्रमुख दलों के साथ तीसरे दल की मौजूदगी से हिमाचल में ये चर्चा चलने लगी है कि आप की दस्तक किसके किले में सेंध लगाएगी. रोचक बात ये है कि हिमाचल में सत्ता का गणित केवल चार से पांच फीसदी के अंतर से ही बदलाव ला देता है. पिछले चुनाव में 51 लाख से अधिक वोटर्स थे. हिमाचल में वोटिंग परसेंट 70 फीसदी (Voting Percentage in Himachal) से अधिक ही रहता है. ऐसे में हर पार्टी के लिए वोट परसेंटेज महत्वपूर्ण है. मामूली से स्विंग से ही यहां राजनीतिक तूफान आ जाता है और जमी जमाई सत्ता उखड़ जाती है.
इस साल हिमाचल और गुजरात में विधानसभा चुनाव होने हैं. चार राज्यों में सत्ता में वापसी के बाद से भाजपा के हौसले बुलंद हैं. खासकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जीत से भाजपा उत्साह में है. अनुराग ठाकुर ने हाल ही में दावा किया कि चार राज्यों की जीत का चौका गुजरात और हिमाचल में जीत के छक्के में बदलेगा. वैसे हिमाचल प्रदेश में चार दशक से कोई सरकार सत्ता में रिपीट नहीं हुई है. भाजपा ने गंभीरता से इसके लिए प्रयास भी किए, लेकिन कामयाबी नहीं मिली. मौजूदा समय में वीरभद्र सिंह के कुशल नेतृत्व के बिना कांग्रेस एक नई परिस्थितियों में चुनाव लड़ेगी. ऐसे में कांग्रेस की चुनौती और आम आदमी पार्टी के पहाड़ की राजनीति में आगमन को भी देखना दिलचस्प होगा.
इतिहास से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य की संभावित परिस्थितियों का आकलन किया जा सकता है. इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1980 के बाद दोनों दल बारी-बारी से सत्ता संभालते रहे हैं. हिमाचल में वर्ष 1980 में ठाकुर रामलाल के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी. वर्ष 1982 में उन्हें आंध्र प्रदेश का गवर्नर बनाकर भेजा गया और वीरभद्र सिंह ने हिमाचल प्रदेश के सीएम के रूप में अपनी पारी शुरू की. फिर 1985 में विधानसभा चुनाव के बाद फिर से वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. हिमाचल में उसके बाद से कोई भी पार्टी सरकार रिपीट नहीं कर पाई है.
हिमाचल में चार से पांच फीसदी वोट कर देता है सत्ता का फैसला: हिमाचल प्रदेश छोटा पहाड़ी राज्य है. यहां लोकसभा की चार और विधानसभा की 68 सीटें हैं. साक्षरता के मोर्चे पर हिमाचल देश का दूसरा सबसे साक्षर राज्य है. विगत विधानसभा चुनाव में 9 नवंबर 2017 को सियासी भाग्य ईवीएम में बंद हो गया था. तब हिमाचल प्रदेश में 74.61 फीसदी मतदान हुआ था. हिमाचल में चार से पांच फीसदी वोट का स्विंग ही सत्ता को उलट-पलट देता है. यही कारण है कि कांग्रेस हो या भाजपा, विगत 42 साल से हिमाचल में कोई भी दल सरकार को रिपीट नहीं कर पाया है.
इस ट्रेंड का अपवाद एकमात्र 1993 का चुनाव रहा है, जहां ये गणित नहीं चला था. वर्ष 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने 42.8 प्रतिशत वोट लेकर सरकार बनाई थी. उस समय भाजपा को 39 फीसदी मत मिले थे. इस तरह करीब चार फीसदी मतों के अंतर यानी स्विंग ने ही सत्ता का फैसला किया. इससे पूर्व वर्ष 2007 के चुनाव में भाजपा को 43.78 प्रतिशत मत पड़े और कांग्रेस ने 38.90 फीसदी मत हासिल किए. इस तरह वर्ष 2007 के चुनाव में भी जीत-हार का अंतर पांच फीसदी से जरा सा अधिक था.
प्रदेश में 1998 के चुनाव में भी स्थिति कुछ-कुछ ऐसी ही थी, जब सत्ता का परिवर्तन इसी तरह के ट्रेंड से हुआ था. वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बेशक भाजपा से अधिक था, लेकिन उसे सत्ता नहीं मिली. कारण ये था कि उस समय हिमाचल में कांग्रेस तथा भाजपा के अलावा हिमाचल विकास कांग्रेस के तौर पर एक अन्य मजबूत क्षेत्रीय दल था. पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखराम ने कांग्रेस से अलग होकर हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन किया था.
हिमाचल विकास कांग्रेस ने पांच सीटों पर जीत हासिल की और बीजेपी हिमाचल विकास कांग्रेस के सहयोग से सत्ता में आई. वोटिंग के इस ट्रेंड को लेकर एकमात्र अपवाद वर्ष 1993 का विधानसभा चुनाव था. इस चुनाव में कांग्रेस को 48 और भाजपा को महज 36 फीसदी मत मिले. ये परंपरागत चार से पांच फीसदी स्विंग से कहीं अधिक 12 फीसदी था. हिमाचल में इससे पूर्व वर्ष 1990 के चुनाव में भाजपा को 41.7 और कांग्रेस को 36.54 फीसदी मत मिले थे.
पिछले चुनाव में भाजपा को मिला था प्रचंड बहुमत: वर्ष 2017 के चुनाव परिणाम पर नजर डालना दिलचस्प है. तब भाजपा को 18 लाख से अधिक वोट पड़े थे. भाजपा को 44 व कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं. एक सीट माकपा और दो प्रत्याशी निर्दलीय जीते थे. भाजपा को चुनाव में 18 लाख, 46 हजार, 432 वोट मिले. ये कुल मतदान का 48.8 फीसदी था. इसी तरह कांग्रेस को 41 .7 फीसदी मत मिले थे. चूंकि मतदान प्रतिशत रिकॉर्ड दर्ज किया गया, लिहाजा वोट स्विंग भी सात फीसदी के करीब रहा.
यदि वोटिंग परसेंट पर नजर डालें तो हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2003 के चुनाव में 74.51 फीसदी मतदान का रिकॉर्ड बना था. ये रिकॉर्ड 2017 के चुनाव में ध्वस्त हो गया है. वर्ष 2017 में हिमाचल में पचास लाख से अधिक मतदाताओं में से कुल 37 लाख, 21 हजार, 647 ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. सबसे अधिक मतदान सोलन जिला के दून विधानसभा क्षेत्र में दर्ज किया गया. दून में 88.95 प्रतिशत मतदान हुआ. शिमला शहरी विधान सभा क्षेत्र में सबसे कम 63.76 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया.
भारी वोटिंग के बाद प्रदेश में बदलती है सत्ता: हिमाचल प्रदेश में वर्ष 1985 से अब तक लगातार भाजपा व कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता सुख भोगती आ रही हैं, लेकिन मतदान के आंकड़े बताते हैं कि भारी वोटिंग के बाद प्रदेश में सत्ता बदलती ही है. हिमाचल में वर्ष 1998 के चुनाव में भाजपा को सत्ता मिली. फिर वर्ष 2003 के चुनाव में 1998 के 71.23 फीसदी के मुकाबले 74.51 प्रतिशत मतदानन हुआ और भाजपा की हार हुई. इसके बाद भाजपा सत्ता में आई. फिर 2012 में मतदाताओं ने 2007 में सत्तारूढ़ हुई भाजपा के खिलाफ जनादेश दिया तो मतदान 2007 के 71.61 प्रतिशत के मुकाबले 73.51 प्रतिशत हुआ. फिर 2017 में हिमाचल प्रदेश में 74.61 प्रतिशत मतदान हुआ. ये रिकॉर्ड मतदान था और इसी कारण वोट स्विंग भी सात फीसदी रहा.
आप ने लगाई सेंध तो किसे होगा नुकसान: हिमाचल की राजनीति दो पार्टियों के आसपास घूमती रही है. चार राज्यों के चुनाव में जीत के बाद भाजपा उत्साह में है. जयराम ठाकुर बयान दे रहे हैं कि उन्हें पार्टी ने मिशन रिपीट की जिम्मेदारी दी है तो वे इसे पूरा करके दिखाएंगे. देश की बात करें तो कांग्रेस कार्यकर्ता यूपी में करारी हार के बाद हताशा में हैं. फिर हिमाचल प्रदेश में भी इस चुनाव में कांग्रेस के पास दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह का मार्गदर्शन नहीं है.
एन्टी इनकम्बेंसी के सहारे रहेगी कांग्रेस: मौजूदा समय में पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता गंवाई है. कांग्रेस का हश्र पंजाब में बुरा हुआ है. यही हाल उत्तराखंड में भी हुआ. यूपी में तो पार्टी गर्त में चली गयी. इसका मनोवैज्ञानिक असर हिमाचल में जरूर देखने को मिलेगा. नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री कहते हैं कि हिमाचल में जनता मौजूदा सरकार से नाराज है. यहां की परिस्थितियों की देश के अन्य राज्यों से तुलना नहीं कर सकते. वैसे राजनीति में मनोवैज्ञानिक असर अहम भूमिका निभाता है. कांग्रेस का मनोबल जरूर टूटा है. चुनाव में भाजपा मजबूत कैडर व समय से पहले चुनावी तैयारी करने की वजह से आत्मविश्वास में है. वहीं, कांग्रेस एन्टी इनकम्बेंसी के सहारे (Himachal assembly elections) रहेगी.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ: वरिष्ठ मीडिया कर्मी धनंजय शर्मा का कहना है कि हिमाचल में चार से पांच फीसदी वोट स्विंग सत्ता बदल देता है, लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी भी मैदान में है. चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी कितना मजबूत ढांचा खड़ा करती है और कितने कार्यकर्ताओं को जोड़ती है, इस पर नजर रहेगी. यदि आम आदमी पार्टी ने पांच से आठ फीसदी मत हासिल किए तो उसका नुकसान किस दल को होगा, ये भी देखना होगा.
पिछले चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस के मुकाबले सात फीसदी अधिक मत हासिल किए थे. सात फीसदी के स्विंग ने दोनों दलों के बीच 23 सीटों का फर्क डाल दिया.वहीं, इस बार आम आदमी पार्टी यदि सात फीसदी वोट लेने में कामयाब हो जाती है तो भाजपा व कांग्रेस दोनों दल 25 से 28 सीटों तक आ जाएंगे. ऐसे में यदि कांग्रेस को नुकसान अधिक हुआ तो भाजपा की लॉटरी लग सकती है. फिलहाल, अभी आम आदमी पार्टी की सक्रियता और उससे जुडऩे वाले नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को देखना जरूरी है. चुनावी राजनीति में समय के करवट लेने में एक दिन भी काफी होता है.
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