नई दिल्ली : भारत सरकार ने फ्रांस के साथ महत्वाकांक्षी डिफेंस डील की है. दिवंगत पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में शुरू हुई ये डील नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में पूरी हुई. हालांकि, ये डील सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे तक भी पहुंचा है.
दरअसल, राफेल डील में कई अहम पड़ाव आए हैं. कांग्रेस पार्टी ने केंद्र सरकार पर इस डिफेंस डील में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए हैं. जानें इस केस का सिलसिलेवार विवरण
कब हुई थी सौदे की शुरुआत
- 126 लड़ाकू विमान खरीदने का प्रस्ताव वाजपेयी सरकार ने रखा था
- यूपीए सरकार ने इसे आगे बढ़ाया
- रक्षा खरीद परिषद ने इस सौदे को मंजूरी दी
- तब इसके अध्यक्ष रक्षा मंत्री एके एंटोनी थे
- बोली लगाने की प्रक्रिया शुरू, आरएफपी जारी किया गया
किन-किन कंपनियों ने बोली में लिया था हिस्सा
- अमेरिका की बोइंग और लॉकहीड मार्टिन, रूस का मिखायोन मिग, स्वीडन का साबजैस, फ्रांस की दसॉल्ट, ब्रिटेन की कंपनी यूरोफाइटर
- 2011 में यूरोफाइटर टाइफून और राफेल भारतीय मानदंड पर खरा उतरा
- 2012 में राफेल को एल-1 बिडर घोषित किया गया
- 2014 तक बातचीत आगे नहीं बढ़ी, तकनीक ट्रांसफर पर विवाद
- 2015 में भारत-फ्रांस के बीच अंतर सरकारी समझौता
- 36 राफेल फ्लाइ-अवे स्थिति में सौंपने पर सहमति
- 2016 में आईजीए पर हस्ताक्षर
विवाद की वजह
- मीडिया के अनुसार पूरा सौदा 7.8 अरब रुपये यानि 58,000 करोड़ रुपये का है
- अगर सरकार ने हजारों करोड़ रुपए बचाए, तो पूरा आंकड़ा सार्वजनिक करे
- कांग्रेस के अनुसार मोदी सरकार ने एक विमान को 1555 करोड़ रुपये में खरीदा, जबकि उनकी सरकार ने 428 करोड़ में रुपये में समझौता किया था
- कांग्रेस के अनुसार 108 विमानों की एसेंबली भारत में होनी थी, लेकिन अभी के समझौता में यह शर्त नहीं है
- कांग्रेस के अनुसार निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए एचएएल को कोई टेंडर नहीं दिया
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