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क्यों हैं वैक्सीन को लेकर लोगों में हिचकिचाहट

कोविड-19 की वैक्सीन लगवाने को लेकर कुछ लोगों में विभिन्न कारणों से हिचकिचाहट देखने में आ रही है वहीं दूसरी ओर कुछ लोग वैक्सीन के फ़ायदों को मानते हुए उन्हे खुले दिल से अपना रहें हैं । टीकों को लेकर लोगों में अस्वीकारता कोई नई बात नही है।

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Published : Aug 14, 2021, 5:16 PM IST

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वैक्सीन को लेकर हिचकिचाहट

कोरोना का वैक्सीन लगवाने को लेकर लोगों में अभी भी हिचकिचाहट देखने में आ रही है। ऐसा पहली बार नही हो रहा है । सदियों से लोगों में किसी भी नई दवाई विशेषकर वैक्सीन के इस्तेमाल को लेकर डर और झिझक देखी जाती रही है । इसका कारण क्या है और वैक्सीन से जुड़ी अन्य जरूरी बातों के बारें में जानने के लियए ETV भारत सुखीभवा ने आयुर्वेद के इतिहास में पीएचडी डॉ. पी वी रंगनायकुलु से जानकारी ली

क्या है वैक्सीन

वैक्सीन को लेकर डर को समझने के लिये जरूरी है पहले यह समझा जाय की वैक्सीन क्या है। यह एक ऐसा दवाई है जिसका उपयोग एंटीबॉडी के उत्पादन को प्रोत्साहित करने और शरीर में किसी विशेष बीमारी के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता है। यह वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा किसी रोग के प्रेरक एजेंट, उसके उत्पादों, या एक सिंथेटिक विकल्प से तैयार की जाती है, जो रोग को प्रेरित किए बिना एंटीजन के रूप में कार्य करता है। ये सिर्फ कोरोना ही नही बल्कि किसी भी रोग में टीकाकरण के माध्यम से शरीर में संबंधित बीमारी के लिये एंटीबॉडी के निर्माण का कार्य करता है।

नयी बात नही है वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में संशय

डॉ. रंगनायकुलु बताते हैं की वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में डर या संशय होना कोई नई बात नही है। 1790 के दशक में ग्लूस्टरशायर, इंग्लैंड के एडवर्ड जेनर ने चेचक का टीके की खोज की थी । जिसने लाखों लोगों को मृत्यु के जोखिम से बचाया था। हालांकि जब 19वीं शताब्दी की शुरुआत में इस तकनीक को भारत लाया गया तो लोगों ने विभिन्न, संदेहों, भ्रमों और अफवाहों के चलते टीकाकरण कराने से इनकार कर दिया था । ऐसे में उस समय के कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने एक रास्ता निकाला और उन्होंने एक संस्कृत विद्वान को गाय के थन से चेचक के टीके के निर्माण की विधि का वर्णन करते हुए संस्कृत में एक आलेख लिखने के लिए कहा। बाद में जब इस संस्कृत 'संदर्भ' को आयुर्वेद के साहित्य में उल्लेखित किया गया जिससे लोगों को यह विश्वास हो सके कि यह तकनीक स्वदेशी है।

बैक्टीरियोलॉजी और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चरण डर चरण होती प्रगति के फलस्वरूप 1930 के दशक में डिप्थीरिया, टेटनस, एंथ्रेक्स, हैजा, प्लेग, टाइफाइड, तपेदिक, और अधिक के खिलाफ एंटीटॉक्सिन और टीके विकसित किए गए।

हालांकि, वैक्सीन को संजीवनी बूटी नही माना जा सकता है ,अर्थात यह जरूरी नही है की वैक्सीन हमेशा शरीर में रोग के लिये सुरक्षा तैयार करने में सफल हो। डॉ. रंगनायकुलु बताते हैं की वर्ष 1955 में अमेरिका के कटर में टीकाकरण के कारण हुई एक दुर्घटना ने वैक्सीन के अस्तित्व को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया था । दरअसल इस दुर्घटना में वैक्सीन के रूप में निष्क्रिय किए गए वायरस के स्थान पर गलती से, अमेरिका में हजारों बच्चों में जीवित वायरस का इंजेक्शन लगा दिया गया था। जिसके चलते बड़ी संख्या में लोगों में संबंधित बीमारी विकसित हो गई वही इस कारण कुछ की मृत्यु भी हो गई।

यहीं नही ऐसे बहुत से अनगिनत कारण हैं जिनके कारण न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में 5-10% लोग टीके लगवाने से इनकार करते हैं । वहीं 60% आबादी टीकों की सफलता के प्रतिशत तथा उनकी जरूरत जानने के बाद ही टीका लगवाने के लिये सहमत होती है। बाकी, 30 से 35% लोग आसानी से टीकों को स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि वे विज्ञान में विश्वास करते हैं।

कैसे बनती है वैक्सीन

वैक्सीन निर्माण के कई चरण होते हैं जैसे हार्वेस्टिंग, शुद्धिकरण, निष्क्रियता, फ्रीज-डाइंग तथा वैलेंसी असेंबली आदि। चूंकि वैक्सीन निर्माण में इस्तेमाल होने वाले वायरस उच्च तापमान पर सुसंस्कृत होते हैं इसलिए वे वास्तविक बीमारी पैदा नहीं कर सकते हैं। यह विधि क्षीणन (एटेन्यूएशन) के रूप में जानी जाती है। टीकों को कई सहायक तत्वों से मिलाकर बनाया जाता है। जो उनकी की शक्ति को बढ़ाने में मदद करते हैं । लेकिन आमतौर पर लोगों को इस बात की जानकारी नही होती है की ये सहायक तत्व कौन कौन से होते हैं और कैसे कार्य करते है। उदारहण के लिये कई वैक्सीन में एल्युमिनियम और स्क्वैलेन प्रचलित सहायक तत्व माने जाते है। दक्षिण अमेरिका से किलाजा के पेड़ की छाल का अर्क भी टीकों के निर्माण में उपयोगी सहायक माना जाता है।

हालांकि वैज्ञानिक अभी भी टीकों में इस्तेमाल किए जाने वाले विभिन्न सहायकों की प्रभावकारिता को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इन सहायक तत्वों को लेकर कई बार विरोधाभासी बातें भी सामने आती हैं जैसे एल्युमिनियम बच्चों में ऑटिज़्म का कारण बनते हैं। यह विश्वास सार्वभौमिक टीकाकरण के लिए स्वास्थ्य सेवा उद्योग में प्रमुख बाधाओं में से एक है। हालांकि दावे का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। वहीं 1970 के दशक में, लंदन के रॉयल कॉलेज के एक चिकित्सक ने घोषणा की कि बच्चों में पर्टुसिस के खिलाफ दिए गए टीके ने मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन, बाद में शोध में इस कथन को सिद्ध नहीं किया जा सका।

कोविड-19 टीकाकरण

पूरी दुनिया में इस संक्रमण के शुरू होने के बाद से ही वैक्सीन का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। हैरानी और गर्व की बात है कि भारत सहित कई देशों के शोध संस्थान बहुत ही कम समय में इस संक्रामक रोग के खिलाफ टीके के उत्पादन में सफल रहे। हालांकि टीको के बाजार में उपलब्ध होने के उपरांत भी बहुत से लोग अफवाहों और भ्रम के प्रभाव में आकर टीकों को लगवाने में संकोच कर रहें है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बहुत से लोगों ने टीकाकरण अभियान का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। यह संकोच और विरोध सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि कई पश्चिमी देशों में भी नजर आया।

हालांकि इस आशंका से चिकित्सक इनकार नही करते हैं की वैक्सीन के कुछ अस्थाई पार्श्व प्रभाव भी नजर आते हैं लेकिन यह भी सत्य है वैक्सीन के फायदे इन अस्थाई प्रभावों से काफी ज्यादा है।

पढ़ें: क्या इनफ्लुएंजा वैक्सीन बच्चों में कोरोना के खतरे को कर सकती है कम?

कोरोना का वैक्सीन लगवाने को लेकर लोगों में अभी भी हिचकिचाहट देखने में आ रही है। ऐसा पहली बार नही हो रहा है । सदियों से लोगों में किसी भी नई दवाई विशेषकर वैक्सीन के इस्तेमाल को लेकर डर और झिझक देखी जाती रही है । इसका कारण क्या है और वैक्सीन से जुड़ी अन्य जरूरी बातों के बारें में जानने के लियए ETV भारत सुखीभवा ने आयुर्वेद के इतिहास में पीएचडी डॉ. पी वी रंगनायकुलु से जानकारी ली

क्या है वैक्सीन

वैक्सीन को लेकर डर को समझने के लिये जरूरी है पहले यह समझा जाय की वैक्सीन क्या है। यह एक ऐसा दवाई है जिसका उपयोग एंटीबॉडी के उत्पादन को प्रोत्साहित करने और शरीर में किसी विशेष बीमारी के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता है। यह वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा किसी रोग के प्रेरक एजेंट, उसके उत्पादों, या एक सिंथेटिक विकल्प से तैयार की जाती है, जो रोग को प्रेरित किए बिना एंटीजन के रूप में कार्य करता है। ये सिर्फ कोरोना ही नही बल्कि किसी भी रोग में टीकाकरण के माध्यम से शरीर में संबंधित बीमारी के लिये एंटीबॉडी के निर्माण का कार्य करता है।

नयी बात नही है वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में संशय

डॉ. रंगनायकुलु बताते हैं की वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में डर या संशय होना कोई नई बात नही है। 1790 के दशक में ग्लूस्टरशायर, इंग्लैंड के एडवर्ड जेनर ने चेचक का टीके की खोज की थी । जिसने लाखों लोगों को मृत्यु के जोखिम से बचाया था। हालांकि जब 19वीं शताब्दी की शुरुआत में इस तकनीक को भारत लाया गया तो लोगों ने विभिन्न, संदेहों, भ्रमों और अफवाहों के चलते टीकाकरण कराने से इनकार कर दिया था । ऐसे में उस समय के कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने एक रास्ता निकाला और उन्होंने एक संस्कृत विद्वान को गाय के थन से चेचक के टीके के निर्माण की विधि का वर्णन करते हुए संस्कृत में एक आलेख लिखने के लिए कहा। बाद में जब इस संस्कृत 'संदर्भ' को आयुर्वेद के साहित्य में उल्लेखित किया गया जिससे लोगों को यह विश्वास हो सके कि यह तकनीक स्वदेशी है।

बैक्टीरियोलॉजी और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चरण डर चरण होती प्रगति के फलस्वरूप 1930 के दशक में डिप्थीरिया, टेटनस, एंथ्रेक्स, हैजा, प्लेग, टाइफाइड, तपेदिक, और अधिक के खिलाफ एंटीटॉक्सिन और टीके विकसित किए गए।

हालांकि, वैक्सीन को संजीवनी बूटी नही माना जा सकता है ,अर्थात यह जरूरी नही है की वैक्सीन हमेशा शरीर में रोग के लिये सुरक्षा तैयार करने में सफल हो। डॉ. रंगनायकुलु बताते हैं की वर्ष 1955 में अमेरिका के कटर में टीकाकरण के कारण हुई एक दुर्घटना ने वैक्सीन के अस्तित्व को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया था । दरअसल इस दुर्घटना में वैक्सीन के रूप में निष्क्रिय किए गए वायरस के स्थान पर गलती से, अमेरिका में हजारों बच्चों में जीवित वायरस का इंजेक्शन लगा दिया गया था। जिसके चलते बड़ी संख्या में लोगों में संबंधित बीमारी विकसित हो गई वही इस कारण कुछ की मृत्यु भी हो गई।

यहीं नही ऐसे बहुत से अनगिनत कारण हैं जिनके कारण न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में 5-10% लोग टीके लगवाने से इनकार करते हैं । वहीं 60% आबादी टीकों की सफलता के प्रतिशत तथा उनकी जरूरत जानने के बाद ही टीका लगवाने के लिये सहमत होती है। बाकी, 30 से 35% लोग आसानी से टीकों को स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि वे विज्ञान में विश्वास करते हैं।

कैसे बनती है वैक्सीन

वैक्सीन निर्माण के कई चरण होते हैं जैसे हार्वेस्टिंग, शुद्धिकरण, निष्क्रियता, फ्रीज-डाइंग तथा वैलेंसी असेंबली आदि। चूंकि वैक्सीन निर्माण में इस्तेमाल होने वाले वायरस उच्च तापमान पर सुसंस्कृत होते हैं इसलिए वे वास्तविक बीमारी पैदा नहीं कर सकते हैं। यह विधि क्षीणन (एटेन्यूएशन) के रूप में जानी जाती है। टीकों को कई सहायक तत्वों से मिलाकर बनाया जाता है। जो उनकी की शक्ति को बढ़ाने में मदद करते हैं । लेकिन आमतौर पर लोगों को इस बात की जानकारी नही होती है की ये सहायक तत्व कौन कौन से होते हैं और कैसे कार्य करते है। उदारहण के लिये कई वैक्सीन में एल्युमिनियम और स्क्वैलेन प्रचलित सहायक तत्व माने जाते है। दक्षिण अमेरिका से किलाजा के पेड़ की छाल का अर्क भी टीकों के निर्माण में उपयोगी सहायक माना जाता है।

हालांकि वैज्ञानिक अभी भी टीकों में इस्तेमाल किए जाने वाले विभिन्न सहायकों की प्रभावकारिता को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इन सहायक तत्वों को लेकर कई बार विरोधाभासी बातें भी सामने आती हैं जैसे एल्युमिनियम बच्चों में ऑटिज़्म का कारण बनते हैं। यह विश्वास सार्वभौमिक टीकाकरण के लिए स्वास्थ्य सेवा उद्योग में प्रमुख बाधाओं में से एक है। हालांकि दावे का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। वहीं 1970 के दशक में, लंदन के रॉयल कॉलेज के एक चिकित्सक ने घोषणा की कि बच्चों में पर्टुसिस के खिलाफ दिए गए टीके ने मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन, बाद में शोध में इस कथन को सिद्ध नहीं किया जा सका।

कोविड-19 टीकाकरण

पूरी दुनिया में इस संक्रमण के शुरू होने के बाद से ही वैक्सीन का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। हैरानी और गर्व की बात है कि भारत सहित कई देशों के शोध संस्थान बहुत ही कम समय में इस संक्रामक रोग के खिलाफ टीके के उत्पादन में सफल रहे। हालांकि टीको के बाजार में उपलब्ध होने के उपरांत भी बहुत से लोग अफवाहों और भ्रम के प्रभाव में आकर टीकों को लगवाने में संकोच कर रहें है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बहुत से लोगों ने टीकाकरण अभियान का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। यह संकोच और विरोध सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि कई पश्चिमी देशों में भी नजर आया।

हालांकि इस आशंका से चिकित्सक इनकार नही करते हैं की वैक्सीन के कुछ अस्थाई पार्श्व प्रभाव भी नजर आते हैं लेकिन यह भी सत्य है वैक्सीन के फायदे इन अस्थाई प्रभावों से काफी ज्यादा है।

पढ़ें: क्या इनफ्लुएंजा वैक्सीन बच्चों में कोरोना के खतरे को कर सकती है कम?

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