फतेहाबाद: 1965 में भारत-पाक युद्ध का फतेहाबाद जिले के टोहाना शहर का योद्धा हरि सिंह की शहादत जहां गुमनाम है, वहीं उनका परिवार भी एक ऐसी जिंदगी जी रहा है जहाँ देश के जवानों के शौर्य से महसूस होने वाला गर्व सिर्फ कागजी दिखता है.
युद्ध में गए शहीद हरि सिंह की अस्थियां तक परिवार को नसीब नहीं हुई और उससे बड़ा मजाक परिवार के साथ ये हुआ कि सरकार ने गैलेंट्री अवार्ड की घोषणा तो की, लेकिन आज तक अवार्ड नहीं दिया.
वहीं मुआवजे के तौर पर मिली जमीन भी वर्ष 1998 में लोगों ने छीन ली और ये छीना हुआ हक दिलाने के लिए अफसर से लेकर नेताओं की चौखट पर माथा पीटने के बाद भी परिवार को आज तक कोई हक नहीं दिला पाया.
अपने पिता हरि सिंह की शहादत और शहादत के बाद परिवार के हालात बयान करते हुए वीरेंद्र सिंह बताते हैं कि पाकिस्तान से युद्ध के दौरान 1 सितम्बर 1965 को उनके पिता हरि सिंह को पहले बन्दी बताया गया, फिर लापता और 6 महीने बाद प्रशासन द्वारा मृत घोषित किया गया,लेकिन परिवार को सर्टिफिकेट के अलावा उसका पार्थिक शव भी नसीब नहीं हुआ.
देश और प्रदेश में अनेक सरकारे आई व गई पर इस योद्धा की कहानी गुमनामी में खो गई व तकनीकी दिक्कतों की शिकार होकर रह गई. पीछे रह गया उनका परेशान होता परिवार, उनकी बेसहारा पत्नी जिसने बेहद दिक्कतों में अपने चार बेटियों व दो बेटों का पालन -पोषण किया.
ये कहानी हैं टोहाना के हरी सिंह सैनी की जिन्होंने भारत-पाक 1965 के युद्ध मे देश के लिए लड़ाई लड़ी. वीरेन्द्र सिंह सैनी ने बताया उस समय देश मे बीएसएफ/पैरामिलिट्री फोर्स नहीं होती थी. उनके पिता संयुक्त पंजाब पुलिस में इंस्पेक्टर के पद पर थे. देश पर संकट की घड़ी आई तो वो भारत की केंद्र सरकार ने तुरन्त युद्ध में शामिल होने के आदेश थामकर जम्मू के चंबा में चले गए. वीरेंद्र सैनी ने बताया कि पहले पिता के बारे में सूचना परिवार को दी गई कि वो युद्ध बन्दी हैं, पर 6 महीने के बाद उन्हें मृत घोषित करते हुए मृत्यु पत्र जारी किया गया.
उन्होंने बताया कि परिवार टूट कर रह गया क्योंकि उनका दिल कैसे इसे स्वीकार करताक्योंकि उनके वीर पिता का मृतक पार्थिव देह या अस्थियां भी उन्हें नहीं मिली थीं.
परिवार को हालात से समझौता किया, अब विकट परिस्थिति में खड़ी हो गई कि कैसे परिवार का पालन हो. परिवार को तत्कालीन गवर्नर की ओर से गैलेंट्री अवार्ड की घोषणा हुआ जिसका सिर्फ पत्र मिला, अवार्ड आज तक नहीं दिया गया.
सहूलियत के नाम पर संघर्ष और रुसवाई के सिवा कुछ नहीं मिला. वीरेंद्र ने बताया कि वो अपने शहीद पिता के लिए पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पुलिस, सेना, राजनीतिक कार्यालयों के चक्कर काट-काट कर थककर निराश होकर बैठ गए. रुंधे हुए गले से उन्होंने कहा कि उनके दिल में देशभक्ति आज भी जिंदा हैं. उसे गर्व है कि उसके पिता देश की सेवा में काम आए, पर इस बात का गम भी है कि आज अभिनन्दन के लिए पूरा देश चिंतित हैं पर उसके पिता जिनके बारे में युद्ध बंदी बताने के बाद मृत होने का पत्र थमा दिया, लेकिन उनका कुछ पता नहीं लगा.
उन्होंने कहा कि सरकार वायदे बहुत करती हैं पर धरातल पर शहीद परिवारों को शहीद का दर्जा भी नहीं मिलता. उनके हिस्से आती हैं रुसवाई, बेकद्री. इस शहीद परिवार के जीवन की गाथा सुनकर तो ऐसा ही कहा जा सकता हैं. आखिर में सिद्धार्थ सिंह के बेटे वीरेंद्र सिंह अब सरकार से सिर्फ इतनी सी मान करते हैं कि उनके शहीद पिता के नाम पर सरकार कुछ ऐसी स्मृति बनवाए जिससे एक शहीद का गौरव उसके अपने लोगों की आंखों के सामने जिंदा रहे.