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क्या किसानों को भरोसा देने का यही तरीका है? - किसान कल्याण

सुनिश्चित और लगातार आय नहीं होने की वजह से देश में खेती छोड़ने वाले किसानों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है. इस पृष्ठभूमि में जिन सरकारों के पास किसानों को भरोसा देने की जिम्मेदारी है, वह इसके बजाय कल्याणकारी योजनाओं के साथ उम्मीदें तो दे रही हैं, लेकिन कृषि सुधारों की एकीकृत शुरुआत नहीं कर रही हैं.

farm bills
कृषि बिल
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Published : Sep 23, 2020, 6:59 AM IST

हैदराबाद : केंद्र सरकार का कहना है कि हाल ही में लोक सभा में पेश किए गए विधेयकों से किसानों को बहुत लाभ होगा. सरकार का रवैया जमीनी हकीकत और खेती की परेशानियों को समझे बगैर बड़े कॉर्पोरेट घरानों की मदद करने वाला है. इससे किसान यूनियनों का गुस्सा बढ़ रहा है.

कटाई वाली जगह से बिक्री
जून में जारी किए गए अध्यादेशों को किसानों के कल्याण के लिए कानूनी रूप में मंजूरी देने के लिए केंद्र सरकार ने संसद में तीन बिल पारित करवाए हैं. यह विधेयक हैं-

  1. किसानों को देश में कहीं भी अपनी उपज बेचने की स्वतंत्रता.
  2. व्यापारियों के साथ किसानों के समझौते को कानूनी दर्जा
  3. दलहन और तेलहन जैसी आवश्यक वस्तुओं के स्टॉक पर प्रतिबंध हटाना

पहला विधेयक
सरकार का कहना है कि किसानों के पास देश में कहीं भी अपनी उपज बेचने की स्वतंत्रता होगी. विडंबनापूर्ण प्रश्न है - छोटे किसान (86 फीसद) जो अपने कर्ज उतारने के लिए दुखी होकर फसल काटते हैं और वहीं बेच देते हैं, क्या वह अन्य राज्यों को बेचने के लिए अपनी फसल ले जाने की स्थिति में होंगे?

व्यापारी आपस में एक सिंडिकेट बनाते हैं और उचित दर पर फसल नहीं बेचने देकर किसानों के हितों में बाधा डालते हैं, जो तंत्र नियंत्रित बाजार में भी कोई कार्रवाई नहीं करता. क्या वह देश में निजी व्यापारियों को नियंत्रित करेगा? हम तेलंगाना कपास बाजार में इस तरह के शोषण के साक्षी रहे हैं. हम व्यापारियों को नियंत्रित करने को लेकर विपणन अधिकारियों की अक्षमता पर किसानों के आंदोलन को देख चुके हैं.

किसानों ने आखिरकार शासकों पर दबाव बढ़ाकर समर्थन मूल्य हासिल किया. अगर किसानों को अपनी उपज को बाजार शुल्क दिए बिना कहीं भी बेचने की आजादी दी जाती है, तो आमदनी के अभाव में यार्ड बंद कर दिए जाएंगे. मुक्त व्यापार के नाम पर लोग किसानों की आड़ में माल बेचते हैं.

अंत में यह कि सरकार के कार्यों से जो व्यक्ति लाभान्वित होंगे, यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है और वह व्यक्ति व्यापारी हैं. इस साल जब रबी की फसल मक्का की 2,000 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिलने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन ऐसा नहीं किया हुआ और 1,300 रुपये प्रति क्विंटल का भाव भी नहीं मिला.

इस स्थिति में अगर केंद्र और राज्य सरकारें इसे अधिक दर देकर खुद खरीदने के बजाय किसानों से कहें कि देश में कहीं भी ले जाकर बेच दें, तो क्या वह किसानों की मदद करेंगी? यहां तक कि यदि एक छोटा किसान जिसके पास एक या दो एकड़ जमीन है, अधिक दाम पाने के लिए अपनी फसल को अन्यत्र बेचने का प्रयास करता है, वह वहां तक जाएगा और दूर बाजार की छल प्रपंच से कैसे निपटेगा? सरकार निश्चित रूप से इन तथ्यों से अवगत है.

दूसरा विधेयक
यदि हम दूसरे विधेयक की छानबीन करते हैं तो पता चलता है कि जब कंपनियों से खरीदे गए कुछ बीज खराब गुणवत्ता वाले साबित हुए, तो सरकार दयनीय स्थिति में थी कि वह किसानों को मुआवजा भी नहीं दे सकती. किसानों के साथ समझौते किए जाएंगे कि यह कंपनियां इस आश्वासन के साथ कुछ बीज देंगी कि वह खेती करें, फसल वह खरीद लेंगी, इस बारे में होने वाले करार भी इस विधेयक के तहत आएंगे.

पिछली कुछ कंपनियों ने किसानों को विश्वास दिलाया था कि वह मैंगियम, जाफरा, सागौन के पौधे, एलोवेरा जैसे पौधों की खेती करें और लाखों में लाभ कमाएं, वह सारी उपज खरीद लेंगी. यह कंपनियां दुलागोंडी, रामा रोजा, सफेद मुसली आदि औषधीय पौधों के बीज किसानों को बेचने के बाद गायब हो गईं और सरकार इस संबंध में कुछ भी नहीं कर पाई.

किसानों का आरोप है कि अगर कंपनियों के साथ करार किए जाएं और इनका हमें कानूनी दर्जा दिया जाता है, हम कंपनियों द्वारा धोखाधड़ी की जांच करा सकते हैं, लेकिन यह अप्रत्यक्ष रूप से 'करारी खेती' की ओर ले जाता है. इससे यह डर बढ़ जाता है कि अगर 'करारी खेती' का देश में विस्तार होता है, तो खेती कॉर्पोरेट के हाथ में चली जाएगी और किसान महज मजदूर बनकर रह जाएंगे.

इस विधेयक की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें व्यापारियों या कंपनियों के साथ किसानों द्वारा किए जाने वाले समझौतों में कहीं भी कृषि विभाग की जिम्मेदारी नहीं है. गुजरात में आलू किसानों के खिलाफ पेप्सी कंपनी ने मुकदमा दायर किया है, यह कानूनी मामले उल्लेखनीय हैं.

तीसरा विधेयक
तीसरा विधेयक माल के स्टॉक रखने में संशोधन के बारे में है. आवश्यक वस्तु अधिनियम का मुख्य उद्देश्य युद्ध या इस तरह के संकट के समय को छोड़कर तेलहन, दलहन, फल व सब्जियों जैसी वस्तुओं के भंडारण पर कोई प्रतिबंध नहीं रखना है, लेकिन बहुत अधिक मात्रा में स्टॉक करने से इससे किसानों के बजाय कृषि उपज का व्यवसाय करने वाले फर्मों को लाभ होगा.

कृषि और खाद्य प्रसंस्करण कंपनियां उन गरीब किसानों का लाभ उठाएंगी जो उन्हें खेत की कटाई वाली जगह से ही अपनी फसल बेच देंगे. यह विधेयक उन्हें किसानों से उत्पाद खरीद कर और भारी मात्रा जमा करने की गुंजाइश देता है. वह जब कीमतें कम होती हैं तो किसानों से उपज खरीदते हैं और उन्हें भारी मात्रा में स्टॉक करते हैं और रेट अधिक होने पर बेच देते हैं.

नए विधेयक उन्हें एक तरह से बेलगाम आजादी देते हैं. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि खुदरा विपणन एजेंसियां इस बिल के साथ प्रावधान से लाभान्वित होंगी. सरकार को खुद खरीदना चाहिए.

किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य को पाने के लिए केंद्र सरकार की ओर से किए उपाय किसी भी तरह से उपयोगी नहीं हैं. यह कठोर हैं, वास्तविकता यह है कि वह व्यापार करने वाले लोगों और कॉर्पोरेट की आय में दस गुना वृद्धि करेंगे.

अगर कोई वास्तव में किसानों की मदद करना चाहता है तो उन्हें लाभदायक समर्थन मूल्य दिया जाना पर्याप्त है. यदि वह किसानों को लाभान्वित करना चाहते हैं तो उन्हें डॉ. स्वामीनाथन की सिफारिशें लागू करना चाहिए, जिसमें उत्पादन लागत के अलावा किसानों को 50 प्रतिशत अतिरिक्त भुगतान करने की बात कही गई है. उन्हें केवल 22 प्रकारों के लिए नहीं, बल्कि उन सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य देना चाहिए जो इस देश में उगाई जाती हैं.

यह भी पढ़ें- मोदी सरकार ने गेहूं का एमएसपी ₹50 बढ़ाकर 1,975 प्रति क्विंटल किया

यदि कम कीमत पंजीकृत है तो सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों को नुकसान न हो. कृषि उपज को सरकार द्वारा खरीदा जाना चाहिए या उन्हें महिला समितियों को सौंपा जाना चाहिए. कई फसलों के खाद्य प्रसंस्करण के लिए समझौते कराते समय सरकार को बिचौलिए की भूमिका निभानी चाहिए.

फूड प्रोसेसिंग सेक्टर का विस्तार इस तरह होना चाहिए कि यह किसानों के लिए फायदेमंद हो और उनको लगातार लाभ मिलता रहे. इसके बजाय ऐसे उपाय करने चाहिए, जो किसानों को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करें. व्यापारियों और उद्योगपति को मदद करने का निर्णय किसानों को कठिनाई के समय उनके समक्ष आत्मसमर्पण करने के बराबर होगा. उसी समय वोट के लिए अगर वह 'पीएम किसान' की तरह योजनाएं पेश करते हैं, तो यह किसानों को और खुद को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं होगा.

(अमीरनेनी हरिकृष्ण)

हैदराबाद : केंद्र सरकार का कहना है कि हाल ही में लोक सभा में पेश किए गए विधेयकों से किसानों को बहुत लाभ होगा. सरकार का रवैया जमीनी हकीकत और खेती की परेशानियों को समझे बगैर बड़े कॉर्पोरेट घरानों की मदद करने वाला है. इससे किसान यूनियनों का गुस्सा बढ़ रहा है.

कटाई वाली जगह से बिक्री
जून में जारी किए गए अध्यादेशों को किसानों के कल्याण के लिए कानूनी रूप में मंजूरी देने के लिए केंद्र सरकार ने संसद में तीन बिल पारित करवाए हैं. यह विधेयक हैं-

  1. किसानों को देश में कहीं भी अपनी उपज बेचने की स्वतंत्रता.
  2. व्यापारियों के साथ किसानों के समझौते को कानूनी दर्जा
  3. दलहन और तेलहन जैसी आवश्यक वस्तुओं के स्टॉक पर प्रतिबंध हटाना

पहला विधेयक
सरकार का कहना है कि किसानों के पास देश में कहीं भी अपनी उपज बेचने की स्वतंत्रता होगी. विडंबनापूर्ण प्रश्न है - छोटे किसान (86 फीसद) जो अपने कर्ज उतारने के लिए दुखी होकर फसल काटते हैं और वहीं बेच देते हैं, क्या वह अन्य राज्यों को बेचने के लिए अपनी फसल ले जाने की स्थिति में होंगे?

व्यापारी आपस में एक सिंडिकेट बनाते हैं और उचित दर पर फसल नहीं बेचने देकर किसानों के हितों में बाधा डालते हैं, जो तंत्र नियंत्रित बाजार में भी कोई कार्रवाई नहीं करता. क्या वह देश में निजी व्यापारियों को नियंत्रित करेगा? हम तेलंगाना कपास बाजार में इस तरह के शोषण के साक्षी रहे हैं. हम व्यापारियों को नियंत्रित करने को लेकर विपणन अधिकारियों की अक्षमता पर किसानों के आंदोलन को देख चुके हैं.

किसानों ने आखिरकार शासकों पर दबाव बढ़ाकर समर्थन मूल्य हासिल किया. अगर किसानों को अपनी उपज को बाजार शुल्क दिए बिना कहीं भी बेचने की आजादी दी जाती है, तो आमदनी के अभाव में यार्ड बंद कर दिए जाएंगे. मुक्त व्यापार के नाम पर लोग किसानों की आड़ में माल बेचते हैं.

अंत में यह कि सरकार के कार्यों से जो व्यक्ति लाभान्वित होंगे, यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है और वह व्यक्ति व्यापारी हैं. इस साल जब रबी की फसल मक्का की 2,000 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिलने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन ऐसा नहीं किया हुआ और 1,300 रुपये प्रति क्विंटल का भाव भी नहीं मिला.

इस स्थिति में अगर केंद्र और राज्य सरकारें इसे अधिक दर देकर खुद खरीदने के बजाय किसानों से कहें कि देश में कहीं भी ले जाकर बेच दें, तो क्या वह किसानों की मदद करेंगी? यहां तक कि यदि एक छोटा किसान जिसके पास एक या दो एकड़ जमीन है, अधिक दाम पाने के लिए अपनी फसल को अन्यत्र बेचने का प्रयास करता है, वह वहां तक जाएगा और दूर बाजार की छल प्रपंच से कैसे निपटेगा? सरकार निश्चित रूप से इन तथ्यों से अवगत है.

दूसरा विधेयक
यदि हम दूसरे विधेयक की छानबीन करते हैं तो पता चलता है कि जब कंपनियों से खरीदे गए कुछ बीज खराब गुणवत्ता वाले साबित हुए, तो सरकार दयनीय स्थिति में थी कि वह किसानों को मुआवजा भी नहीं दे सकती. किसानों के साथ समझौते किए जाएंगे कि यह कंपनियां इस आश्वासन के साथ कुछ बीज देंगी कि वह खेती करें, फसल वह खरीद लेंगी, इस बारे में होने वाले करार भी इस विधेयक के तहत आएंगे.

पिछली कुछ कंपनियों ने किसानों को विश्वास दिलाया था कि वह मैंगियम, जाफरा, सागौन के पौधे, एलोवेरा जैसे पौधों की खेती करें और लाखों में लाभ कमाएं, वह सारी उपज खरीद लेंगी. यह कंपनियां दुलागोंडी, रामा रोजा, सफेद मुसली आदि औषधीय पौधों के बीज किसानों को बेचने के बाद गायब हो गईं और सरकार इस संबंध में कुछ भी नहीं कर पाई.

किसानों का आरोप है कि अगर कंपनियों के साथ करार किए जाएं और इनका हमें कानूनी दर्जा दिया जाता है, हम कंपनियों द्वारा धोखाधड़ी की जांच करा सकते हैं, लेकिन यह अप्रत्यक्ष रूप से 'करारी खेती' की ओर ले जाता है. इससे यह डर बढ़ जाता है कि अगर 'करारी खेती' का देश में विस्तार होता है, तो खेती कॉर्पोरेट के हाथ में चली जाएगी और किसान महज मजदूर बनकर रह जाएंगे.

इस विधेयक की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें व्यापारियों या कंपनियों के साथ किसानों द्वारा किए जाने वाले समझौतों में कहीं भी कृषि विभाग की जिम्मेदारी नहीं है. गुजरात में आलू किसानों के खिलाफ पेप्सी कंपनी ने मुकदमा दायर किया है, यह कानूनी मामले उल्लेखनीय हैं.

तीसरा विधेयक
तीसरा विधेयक माल के स्टॉक रखने में संशोधन के बारे में है. आवश्यक वस्तु अधिनियम का मुख्य उद्देश्य युद्ध या इस तरह के संकट के समय को छोड़कर तेलहन, दलहन, फल व सब्जियों जैसी वस्तुओं के भंडारण पर कोई प्रतिबंध नहीं रखना है, लेकिन बहुत अधिक मात्रा में स्टॉक करने से इससे किसानों के बजाय कृषि उपज का व्यवसाय करने वाले फर्मों को लाभ होगा.

कृषि और खाद्य प्रसंस्करण कंपनियां उन गरीब किसानों का लाभ उठाएंगी जो उन्हें खेत की कटाई वाली जगह से ही अपनी फसल बेच देंगे. यह विधेयक उन्हें किसानों से उत्पाद खरीद कर और भारी मात्रा जमा करने की गुंजाइश देता है. वह जब कीमतें कम होती हैं तो किसानों से उपज खरीदते हैं और उन्हें भारी मात्रा में स्टॉक करते हैं और रेट अधिक होने पर बेच देते हैं.

नए विधेयक उन्हें एक तरह से बेलगाम आजादी देते हैं. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि खुदरा विपणन एजेंसियां इस बिल के साथ प्रावधान से लाभान्वित होंगी. सरकार को खुद खरीदना चाहिए.

किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य को पाने के लिए केंद्र सरकार की ओर से किए उपाय किसी भी तरह से उपयोगी नहीं हैं. यह कठोर हैं, वास्तविकता यह है कि वह व्यापार करने वाले लोगों और कॉर्पोरेट की आय में दस गुना वृद्धि करेंगे.

अगर कोई वास्तव में किसानों की मदद करना चाहता है तो उन्हें लाभदायक समर्थन मूल्य दिया जाना पर्याप्त है. यदि वह किसानों को लाभान्वित करना चाहते हैं तो उन्हें डॉ. स्वामीनाथन की सिफारिशें लागू करना चाहिए, जिसमें उत्पादन लागत के अलावा किसानों को 50 प्रतिशत अतिरिक्त भुगतान करने की बात कही गई है. उन्हें केवल 22 प्रकारों के लिए नहीं, बल्कि उन सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य देना चाहिए जो इस देश में उगाई जाती हैं.

यह भी पढ़ें- मोदी सरकार ने गेहूं का एमएसपी ₹50 बढ़ाकर 1,975 प्रति क्विंटल किया

यदि कम कीमत पंजीकृत है तो सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों को नुकसान न हो. कृषि उपज को सरकार द्वारा खरीदा जाना चाहिए या उन्हें महिला समितियों को सौंपा जाना चाहिए. कई फसलों के खाद्य प्रसंस्करण के लिए समझौते कराते समय सरकार को बिचौलिए की भूमिका निभानी चाहिए.

फूड प्रोसेसिंग सेक्टर का विस्तार इस तरह होना चाहिए कि यह किसानों के लिए फायदेमंद हो और उनको लगातार लाभ मिलता रहे. इसके बजाय ऐसे उपाय करने चाहिए, जो किसानों को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करें. व्यापारियों और उद्योगपति को मदद करने का निर्णय किसानों को कठिनाई के समय उनके समक्ष आत्मसमर्पण करने के बराबर होगा. उसी समय वोट के लिए अगर वह 'पीएम किसान' की तरह योजनाएं पेश करते हैं, तो यह किसानों को और खुद को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं होगा.

(अमीरनेनी हरिकृष्ण)

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