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वर्तमान में कितने प्रासंगिक हैं गांधी के आर्थिक दर्शन

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज नौवीं कड़ी.

गांधी की फाइल फोटो
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Published : Aug 24, 2019, 7:01 AM IST

Updated : Sep 28, 2019, 1:55 AM IST

आर्थिक क्षेत्र में गांधी के विचारों को आदर्श और अव्यावहारिक माना जाता है. वस्तविकता ये है कि उनके विचार बिल्कुल सरल हैं. इसमें समाजवाद का एक अंश दिखता है. बहुत सारे पहलुओं में उनकी आर्थिक सोच आर्थिक विकास से जुड़े परस्पर विरोधी पहलुओं को एक साथ लाने का एक प्रयास है. उन्होंने नैतिकता और अर्थशास्त्र, विकास और समानता, सृजन और धन के वितरण की सोच पर जोर दिया था, जो किसी भी मॉडल के तहत आर्थिक विकास के तार्किक लेकिन परस्पर विरोधी व्युत्पन्न हैं. उन्होंने कहा कि एक आर्थिक प्रणाली को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रतिभागियों को काम करने और अपने दैनिक जीवन यापन के साधन प्राप्त करने का समान अवसर मिले. एक साधारण जीवन जीने की वकालत करके, उन्होंने विलासिता के जीवन को प्रोत्साहित नहीं किया और महसूस किया कि लोगों को अत्यधिक उपभोग से बचकर, सरल जीवन का सहारा लेना चाहिए.

गांधी ने बेतरतीब औद्योगिकरण का विरोध किया था. वास्तव में वह ग्रामीण उद्योग के विकास की परिकल्पना को बढ़ावा देते थे. उनके अनुसार इस वजह से कृषि गतिविधि और कुटीर उद्योगों को बल मिलेगा. गांव की बेरोजगारी दूर होगी. गांधी ऐसा इसलिए सोचते थे क्योंकि तब हमारी बड़ी आबादी कृषि पर आधारित थी. भारत में मजदूरों की बहुतायत थी. दरअसल, गांधी विकेन्द्रीकृत विकास व्यवस्था में यकीन करते थे. इससे सामाजिक सौहार्दता और समानता दोनों को बढ़ावा मिलेगा और हर व्यक्ति तक विकास की पहुंच होगी. दूसरी ओर वह व्यवसाय पर सामाजिक नियंत्रण चाहते थे. उनका मानना था कि जो भी लाभ मिलेगा, उसे इससे जुड़े सभी हितधारकों के बीच समानता से बांटा जा सकेगा. इससे गरीबों का शोषण नहीं होगा और धन का संकेन्द्रण भी नहीं हो सकेगा.
क्या अब भी प्रासंगिक है गांधीवादी अर्थशास्त्र

क्या आज भी गांधी के आदर्श और अर्थव्यवस्था पर उनके विचार प्रासंगिक हैं. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आज अर्थव्यवस्था पहले से ज्यादा एकीकृत है, उदारवादी आर्थिक नीतियां उन्हें संचालति करती हैं और उसके वित्त और व्यापार को वैश्विक समर्थन हासिल है. इस सवाल पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि गांधी के समय की तुलना में आज अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव आ चुका है.

कितने सारे बदलाव आए हैं, इसे एक साथ प्रस्तुत करना बहुत कठिन कार्य है. फिर भी आजादी के बाद दो संदर्भों की चर्चा करना बेहतर होगा. पहला है नेहरू के द्वारा उठाया गया कदम. नेहरू खुद गांधी के सबसे बड़े अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने पंचवर्षीय योजना पर जोर दिया और बड़े-बड़े उद्योंगों और फैक्ट्रियों पर बल दिया. नेहरू ने इसे विकास का बेहतर मॉडल माना. यह गांधी की विचारधारा से हटकर था. यह इस तथ्य के कारण था कि भारत को एक बड़ी आबादी विरासत में मिली थी, जो काफी गरीब थी, बड़े पैमाने पर निरक्षर थी, और मुख्य रूप से ब्रिटिश राज द्वारा शोषित थी और विभाजन के दौरान सांप्रदायिक दंगों से डर गई थी. इसे देखते हुए, आदर्शवादी आर्थिक मॉडल को लागू करना असंभव था. वास्तव में गांधी के धन के पुनर्वितरण की अवधारणा तभी आएगी, जब आपके पास धन रहेगा.

जाहिर है, ऐसे में तत्कालीन सरकारी व्यवस्था ने औद्योगिकरण की ओर रूख दिखाया. जिससे संपत्ति का निर्माण हो सके. हालांकि बाद में आर्थिक चुनौतियां बनी रहीं और वह प्रभावित भी हुईं. आखिरकार उन्होंने भारत को बाजार की ताकतों द्वारा संचालित उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया. इसे हम 'सुधार' कहते हैं.
यह नीति गांधी के सिद्धांतों और अर्थव्यवस्था के विचारों से विचलन था. हालांकि दूसरी बार भी यह एक जानबूझकर नीतिगत विकल्प नहीं था, यह घरेलू आर्थिक मजबूरियां थीं. इसने भारत को गांधी की आर्थिक विचारधारा से दूर कर दिया. इन नीतियों के परिणामस्वरूप, भारत धीमी आर्थिक विकास दर के चंगुल से बाहर आ सका और सुधार के बाद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में बदलाव आया. इसका तकनीकी तौर पर मतलब था..धन का सृजन.

लेकिन इन नीतियों द्वारा बनाई गई संपत्ति को समान रूप से पुनर्वितरित नहीं किया जा सकता था, अंतर्निहित रूपरेखा और नव उदारवादी नीतियों के कामकाज की प्रकृति को देखते हुए, इस प्रक्रिया में कृषि क्षेत्र ने सेवा उद्योग का मार्ग प्रशस्त किया, साधारण जीवन को उपभोक्तावाद द्वारा बदल दिया गया और लघु उद्योगों का बहु-राष्ट्रीय कंपनियों पर वर्चस्व हो गया, इससे यह प्रतीत हुआ कि गांधी देश के नीतिगत विमर्श में कम प्रासंगिक बन गए, जिनकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने पूरे जीवन संघर्ष किया.

हालांकि ऐसा नहीं है. इन नीतियों के अपने तार्किक दुष्प्रभाव थे, सुधार के बाद भारत में असमानताएं बढ़ीं. ग्रामीण क्षेत्रों में संकट बढ़े. शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ. बेरोजगारी दर पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक है. कृषि क्षेत्र संकटग्रस्त है. गरीबी अभी भी कायम है. मिसाल के तौर पर भारत में दुनिया भर में रहने वाले 30.3 प्रतिशत बेहद गरीब बच्चे हैं और भारत की स्थिति अफ्रीकन देशों जैसी है. देश में कितने गरीब बच्चे रहते हैं, यूनिसेफ और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी एक संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया है.

दूसरी ओर कृषि क्षेत्र वास्तविक मजदूरी वृद्धि दर, बढ़ती इनपुट लागत, अस्थिर कीमतों, न्यूनतम समर्थन मूल्यों की कमी के कारण बीमार है. इससे उनका मुनाफा कम हो रहा है. वे कृषि को एक विकल्प के तौर पर नहीं अपना रहे हैं. इसकी वजह से ग्रामीण आबादी खेती से दूर होते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए, 48 प्रतिशत कृषक परिवार कृषि को आगे नहीं बढ़ाना चाहते हैं, ग्रामीण मीडिया मंच, गांव कनेक्शन द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, यह एक गंभीर विषय है. राज्यों के बीच और राज्यों के अंदर आय की असमानताएं अलार्म पैदा कर रही हैं. यह अतिश्योक्ति होगा, लेकिन हकीकत है कि हम आज वहीं पर पहुंच गए हैं, जहां से चले थे, यानि आजादी के तुरंत बाद वाली स्थिति. अंतर सिर्फ उस भावना की तीव्रता की है.

इस संदर्भ में गांधी की प्रासंगिकता बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि उन्होंने इन चुनौतियों से निपटने के लिए समाजवाद, नैतिकता, समानता पर ध्यान केंद्रित करने के तरीकों का सुझाव दिया था, जो धन पुनर्वितरण पर केंद्रित है, जो आगे सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देगा. इस प्रकार, गांधीवादी अर्थशास्त्र के सिद्धांत अभी भी अच्छे हैं और महत्वपूर्ण नीतिगत अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, बशर्ते कि उन्हें उनकी भावना के नजरिए से देखा जाए. खासकर यह कि जिस प्रकार से भारत ने 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा है.

इस प्रकार जब हम गांधीवादी आर्थिक विचार से कुछ भी ग्रहण करते हैं, तो यह विकास के लिए बहुत अधिक महत्वूपर्ण होता ही है, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है विकास के घटक तत्व. अभी भी ग्रामीण संकट और कृषि में संकट की वर्तमान समस्याओं को दूर करने के लिए गांधी का मार्ग सहायक है. यह कृषि और ग्रामीण उद्योगों के साथ विकास मॉडल के केंद्र के सिद्धांत को केंद्र बिंदु के रूप में रखता है. तर्क यह नहीं है कि बड़े पैमाने पर उद्योंगों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बंद कर दिया जाए. बात सिर्फ इतनी है कि आप वापस लौटें. ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जोर दें. जिसको लंबे समय तक उपेक्षित रखा गया है.

दूसरी ओर जैसे-जैसे जीडीपी का आकार बड़ा होता जा रहा है, इससे जुड़ी समस्याएं भी सामने आ रही हैं. एक तरफ यह रोजगार और विकास प्रदान करता है, तो वहीं दूसरी ओर यह अपने साथ असमानता की समस्या भी लेकर आता है. यहां गांधी का समावेशी सिद्धांत समाधान प्रदान करता है. यहां विकास प्रक्रिया में भागीदारी और विकास के फल वितरण इसके मॉडल में निहित हैं. यह अभी भी देश में गरीबी और असमानता को संबोधित करने को लेकर विचार-विमर्श के स्तर पर पथ प्रदर्शक साबित होगा. 'स्वदेशी ’और 'स्व-आत्मनिर्भरता’ के गांधीवादी आदर्श सार्वजनिक नीति में जगह पा रहे हैं. भारत सरकार खादी और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास कर रही है.

ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी के सिद्धांत आर्थिक नीति में दोबारा जगह पा रहे हैं और ये बदलाव भी ला रहे हैं, क्योंकि बाजार संचालित पूंजीवादी विचारधारा उन अंतर्निहित संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने में विफल रही है, जिसे हमलोग आजादी के बाद से ही देखते आ रहे हैं.

इसमें कोई शक नहीं है कि गांधीवादी सिद्धांत कठोर है. व्यावहारिक रूप से उन्हें लागू करना संभव नहीं हो सकता है, समाज की जमीनी हकीकत और अर्थव्यवस्था की मजबूरियों को देखते हुए. लेकिन उनके विचार अभी भी सामाजिक सद्भाव के साथ मिलकर भारत के आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में एक प्रदर्शक के रूप में काम कर सकते हैं. यह एक बड़ी वजह है कि लोग आज भी गांधी को पूरी श्रद्धा से याद करते हैं.

(लेखक- प्रोफेसर डॉ महेन्द्र बाबू कुरुवा, एनएनबी गढ़वाल सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, उत्तराखंड)

आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

आर्थिक क्षेत्र में गांधी के विचारों को आदर्श और अव्यावहारिक माना जाता है. वस्तविकता ये है कि उनके विचार बिल्कुल सरल हैं. इसमें समाजवाद का एक अंश दिखता है. बहुत सारे पहलुओं में उनकी आर्थिक सोच आर्थिक विकास से जुड़े परस्पर विरोधी पहलुओं को एक साथ लाने का एक प्रयास है. उन्होंने नैतिकता और अर्थशास्त्र, विकास और समानता, सृजन और धन के वितरण की सोच पर जोर दिया था, जो किसी भी मॉडल के तहत आर्थिक विकास के तार्किक लेकिन परस्पर विरोधी व्युत्पन्न हैं. उन्होंने कहा कि एक आर्थिक प्रणाली को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रतिभागियों को काम करने और अपने दैनिक जीवन यापन के साधन प्राप्त करने का समान अवसर मिले. एक साधारण जीवन जीने की वकालत करके, उन्होंने विलासिता के जीवन को प्रोत्साहित नहीं किया और महसूस किया कि लोगों को अत्यधिक उपभोग से बचकर, सरल जीवन का सहारा लेना चाहिए.

गांधी ने बेतरतीब औद्योगिकरण का विरोध किया था. वास्तव में वह ग्रामीण उद्योग के विकास की परिकल्पना को बढ़ावा देते थे. उनके अनुसार इस वजह से कृषि गतिविधि और कुटीर उद्योगों को बल मिलेगा. गांव की बेरोजगारी दूर होगी. गांधी ऐसा इसलिए सोचते थे क्योंकि तब हमारी बड़ी आबादी कृषि पर आधारित थी. भारत में मजदूरों की बहुतायत थी. दरअसल, गांधी विकेन्द्रीकृत विकास व्यवस्था में यकीन करते थे. इससे सामाजिक सौहार्दता और समानता दोनों को बढ़ावा मिलेगा और हर व्यक्ति तक विकास की पहुंच होगी. दूसरी ओर वह व्यवसाय पर सामाजिक नियंत्रण चाहते थे. उनका मानना था कि जो भी लाभ मिलेगा, उसे इससे जुड़े सभी हितधारकों के बीच समानता से बांटा जा सकेगा. इससे गरीबों का शोषण नहीं होगा और धन का संकेन्द्रण भी नहीं हो सकेगा.
क्या अब भी प्रासंगिक है गांधीवादी अर्थशास्त्र

क्या आज भी गांधी के आदर्श और अर्थव्यवस्था पर उनके विचार प्रासंगिक हैं. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आज अर्थव्यवस्था पहले से ज्यादा एकीकृत है, उदारवादी आर्थिक नीतियां उन्हें संचालति करती हैं और उसके वित्त और व्यापार को वैश्विक समर्थन हासिल है. इस सवाल पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि गांधी के समय की तुलना में आज अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव आ चुका है.

कितने सारे बदलाव आए हैं, इसे एक साथ प्रस्तुत करना बहुत कठिन कार्य है. फिर भी आजादी के बाद दो संदर्भों की चर्चा करना बेहतर होगा. पहला है नेहरू के द्वारा उठाया गया कदम. नेहरू खुद गांधी के सबसे बड़े अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने पंचवर्षीय योजना पर जोर दिया और बड़े-बड़े उद्योंगों और फैक्ट्रियों पर बल दिया. नेहरू ने इसे विकास का बेहतर मॉडल माना. यह गांधी की विचारधारा से हटकर था. यह इस तथ्य के कारण था कि भारत को एक बड़ी आबादी विरासत में मिली थी, जो काफी गरीब थी, बड़े पैमाने पर निरक्षर थी, और मुख्य रूप से ब्रिटिश राज द्वारा शोषित थी और विभाजन के दौरान सांप्रदायिक दंगों से डर गई थी. इसे देखते हुए, आदर्शवादी आर्थिक मॉडल को लागू करना असंभव था. वास्तव में गांधी के धन के पुनर्वितरण की अवधारणा तभी आएगी, जब आपके पास धन रहेगा.

जाहिर है, ऐसे में तत्कालीन सरकारी व्यवस्था ने औद्योगिकरण की ओर रूख दिखाया. जिससे संपत्ति का निर्माण हो सके. हालांकि बाद में आर्थिक चुनौतियां बनी रहीं और वह प्रभावित भी हुईं. आखिरकार उन्होंने भारत को बाजार की ताकतों द्वारा संचालित उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया. इसे हम 'सुधार' कहते हैं.
यह नीति गांधी के सिद्धांतों और अर्थव्यवस्था के विचारों से विचलन था. हालांकि दूसरी बार भी यह एक जानबूझकर नीतिगत विकल्प नहीं था, यह घरेलू आर्थिक मजबूरियां थीं. इसने भारत को गांधी की आर्थिक विचारधारा से दूर कर दिया. इन नीतियों के परिणामस्वरूप, भारत धीमी आर्थिक विकास दर के चंगुल से बाहर आ सका और सुधार के बाद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में बदलाव आया. इसका तकनीकी तौर पर मतलब था..धन का सृजन.

लेकिन इन नीतियों द्वारा बनाई गई संपत्ति को समान रूप से पुनर्वितरित नहीं किया जा सकता था, अंतर्निहित रूपरेखा और नव उदारवादी नीतियों के कामकाज की प्रकृति को देखते हुए, इस प्रक्रिया में कृषि क्षेत्र ने सेवा उद्योग का मार्ग प्रशस्त किया, साधारण जीवन को उपभोक्तावाद द्वारा बदल दिया गया और लघु उद्योगों का बहु-राष्ट्रीय कंपनियों पर वर्चस्व हो गया, इससे यह प्रतीत हुआ कि गांधी देश के नीतिगत विमर्श में कम प्रासंगिक बन गए, जिनकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने पूरे जीवन संघर्ष किया.

हालांकि ऐसा नहीं है. इन नीतियों के अपने तार्किक दुष्प्रभाव थे, सुधार के बाद भारत में असमानताएं बढ़ीं. ग्रामीण क्षेत्रों में संकट बढ़े. शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ. बेरोजगारी दर पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक है. कृषि क्षेत्र संकटग्रस्त है. गरीबी अभी भी कायम है. मिसाल के तौर पर भारत में दुनिया भर में रहने वाले 30.3 प्रतिशत बेहद गरीब बच्चे हैं और भारत की स्थिति अफ्रीकन देशों जैसी है. देश में कितने गरीब बच्चे रहते हैं, यूनिसेफ और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी एक संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया है.

दूसरी ओर कृषि क्षेत्र वास्तविक मजदूरी वृद्धि दर, बढ़ती इनपुट लागत, अस्थिर कीमतों, न्यूनतम समर्थन मूल्यों की कमी के कारण बीमार है. इससे उनका मुनाफा कम हो रहा है. वे कृषि को एक विकल्प के तौर पर नहीं अपना रहे हैं. इसकी वजह से ग्रामीण आबादी खेती से दूर होते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए, 48 प्रतिशत कृषक परिवार कृषि को आगे नहीं बढ़ाना चाहते हैं, ग्रामीण मीडिया मंच, गांव कनेक्शन द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, यह एक गंभीर विषय है. राज्यों के बीच और राज्यों के अंदर आय की असमानताएं अलार्म पैदा कर रही हैं. यह अतिश्योक्ति होगा, लेकिन हकीकत है कि हम आज वहीं पर पहुंच गए हैं, जहां से चले थे, यानि आजादी के तुरंत बाद वाली स्थिति. अंतर सिर्फ उस भावना की तीव्रता की है.

इस संदर्भ में गांधी की प्रासंगिकता बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि उन्होंने इन चुनौतियों से निपटने के लिए समाजवाद, नैतिकता, समानता पर ध्यान केंद्रित करने के तरीकों का सुझाव दिया था, जो धन पुनर्वितरण पर केंद्रित है, जो आगे सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देगा. इस प्रकार, गांधीवादी अर्थशास्त्र के सिद्धांत अभी भी अच्छे हैं और महत्वपूर्ण नीतिगत अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, बशर्ते कि उन्हें उनकी भावना के नजरिए से देखा जाए. खासकर यह कि जिस प्रकार से भारत ने 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा है.

इस प्रकार जब हम गांधीवादी आर्थिक विचार से कुछ भी ग्रहण करते हैं, तो यह विकास के लिए बहुत अधिक महत्वूपर्ण होता ही है, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है विकास के घटक तत्व. अभी भी ग्रामीण संकट और कृषि में संकट की वर्तमान समस्याओं को दूर करने के लिए गांधी का मार्ग सहायक है. यह कृषि और ग्रामीण उद्योगों के साथ विकास मॉडल के केंद्र के सिद्धांत को केंद्र बिंदु के रूप में रखता है. तर्क यह नहीं है कि बड़े पैमाने पर उद्योंगों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बंद कर दिया जाए. बात सिर्फ इतनी है कि आप वापस लौटें. ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जोर दें. जिसको लंबे समय तक उपेक्षित रखा गया है.

दूसरी ओर जैसे-जैसे जीडीपी का आकार बड़ा होता जा रहा है, इससे जुड़ी समस्याएं भी सामने आ रही हैं. एक तरफ यह रोजगार और विकास प्रदान करता है, तो वहीं दूसरी ओर यह अपने साथ असमानता की समस्या भी लेकर आता है. यहां गांधी का समावेशी सिद्धांत समाधान प्रदान करता है. यहां विकास प्रक्रिया में भागीदारी और विकास के फल वितरण इसके मॉडल में निहित हैं. यह अभी भी देश में गरीबी और असमानता को संबोधित करने को लेकर विचार-विमर्श के स्तर पर पथ प्रदर्शक साबित होगा. 'स्वदेशी ’और 'स्व-आत्मनिर्भरता’ के गांधीवादी आदर्श सार्वजनिक नीति में जगह पा रहे हैं. भारत सरकार खादी और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास कर रही है.

ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी के सिद्धांत आर्थिक नीति में दोबारा जगह पा रहे हैं और ये बदलाव भी ला रहे हैं, क्योंकि बाजार संचालित पूंजीवादी विचारधारा उन अंतर्निहित संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने में विफल रही है, जिसे हमलोग आजादी के बाद से ही देखते आ रहे हैं.

इसमें कोई शक नहीं है कि गांधीवादी सिद्धांत कठोर है. व्यावहारिक रूप से उन्हें लागू करना संभव नहीं हो सकता है, समाज की जमीनी हकीकत और अर्थव्यवस्था की मजबूरियों को देखते हुए. लेकिन उनके विचार अभी भी सामाजिक सद्भाव के साथ मिलकर भारत के आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में एक प्रदर्शक के रूप में काम कर सकते हैं. यह एक बड़ी वजह है कि लोग आज भी गांधी को पूरी श्रद्धा से याद करते हैं.

(लेखक- प्रोफेसर डॉ महेन्द्र बाबू कुरुवा, एनएनबी गढ़वाल सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, उत्तराखंड)

आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

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Last Updated : Sep 28, 2019, 1:55 AM IST
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