आज की प्रेरणा - हनुमान भजन
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जिस काल में साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं को अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आप से, अपने-आप में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह दिव्य चेतना प्राप्त कहलाता है. जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदल को तर जाएगी, उसी समय तुम सुने हुए और सुनने में आने वाले भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाओगे. मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं. किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है. इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है. इन्द्रियां इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है. जो पुरुष न तो कर्म फलों से घृणा करता है और न ही इसकी इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है. ऐसा मनुष्य द्वन्द्वों से रहित भवबन्धन को पार कर मुक्त हो जाता है. भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता. परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है.