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Published : Sep 15, 2021, 4:03 AM IST

जो परमेश्वर के कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता, वह परमेश्वर को ही प्राप्त होता है. राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित, परमात्मा में ही तल्लीन और आश्रित तथा ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए बहुत-से भक्त परमात्मा के भाव प्राप्त को हो चुके हैं. जिस भाव से सारे लोग परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप परमात्मा उन्हें फल देता है. निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है. कर्मों की सिद्धि चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं. प्रकृति के तीनों गुण और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार परमेश्वर के द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गए हैं. यद्यपि परमेश्वर उसका कर्ता है, फिर भी परमेश्वर अकर्ता और अविनाशी है. परमात्मा पर किसी कर्म और कर्मफल का प्रभाव नहीं पड़ता, जो परमात्मा के सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कभी भी कर्मों के पाश में नहीं बंधता. प्राचीन काल में समस्त मुक्तात्माओं ने परमात्मा की दिव्य प्रकृति को जान कर ही कर्म किया, अतः मानव को चाहिए कि उनके पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करे. प्रत्येक कार्य प्रयास दोष पूर्ण होता है, जैसे अग्नि धुएं से आवृत रहती है. मनुष्य को स्वभाव से उत्पन्न दोष पूर्ण कर्म को कभी नहीं त्यागना चाहिए. जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है. जिसके सम्पूर्ण कर्मों का आरम्भ संकल्प और कामना से रहित है तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञान रूपी अग्नि से जल गए हैं, उसको ज्ञानीजन भी बुद्धिमान कहते हैं. जो कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मों में अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता.

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