केस 1: 8 साल का सार्थक एक होशियार तथा कक्षा में अव्वल रहने वाला बच्चा था. सार्थक कोरोना के डर के चलते घर में बंद रहकर परेशान हो गया और काफी चिड़चिड़ा भी हो गया था. हालांकि वह बगैर मन के ही सही लेकिन अपने स्कूल की तरफ से लगने वाली बोरिंग ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थित रहता था. लेकिन न तो वह कुछ समझ पा रहा था, न ही कुछ याद कर पा रहा है. अपनी कुंठा को छिपाने के लिए वह ज्यादातर अपने गैजेट्स के साथ ही व्यस्त रहता है.
केस 2: 12 साल की मेधावी नियमित रूप से ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होने तथा माता-पिता के भरपूर प्रयासों के बाद भी कुछ खास समझ नहीं पा रही थी. यही नहीं जैसे ही कक्षा समाप्त होती, वह तुरंत अपने मोबाइल में वीडियो देखना शुरू कर देती है. जिससे उसकी उम्र के बच्चों की अपेक्षा उसमें रचनात्मकता की कमी आने लगी है.
उपर दिए गए दोनों ही केस दो होशियार बच्चों के हैं, जो विभिन्न कारणों से इन नए पढ़ाई के तरीकों तथा वर्तमान कोरोना से बनी परिस्थितियों के चलते न सिर्फ पढ़ाई में पिछड़ गए, बल्कि उन्हें व्यवहारात्मक समस्याओं का भी सामना करना पड़ा. आखिर कैसे इन परिस्थितियों में बच्चों को न सिर्फ पढ़ाई बल्कि हर क्षेत्र में दिमागी रूप से चुस्त बना सकते हैं. इस बारे में ETV भारत सुखीभवा टीम ने माइंड सेट, माइंड आर्ट तथा प्रफुल्लता मनोचिकित्सा केंद्र बोरीवली मुंबई के थेरेपिस्ट व करियर काउंसलर, मनोचिकित्सक काजन यू दवे से बात की.
परिवार पर बढ़ी जिम्मेदारी
डॉ. दवे बताती हैं कि पिछले कुछ समय से उनके पास सार्थक और मेधावी जैसे कई बच्चों के माता-पिता के फोन आ रहें हैं. जो परेशान हैं, बच्चों की बदलती आदतों और उनकी परेशानियों को लेकर. वे बताती हैं कि सबसे पहले यदि हम पढ़ाई की बात करें, तो 14 साल से बड़े बच्चे अमूमन पढ़ाई के मामले में आत्मनिर्भर हो जाते हैं. लेकिन छोटे बच्चे को हर स्तर पर मदद की जरूरत होती है. साधारण परिस्थितियों में जब बच्चा नियमित तौर पर स्कूल जा रहा था, तो वह अपने अध्यापकों से प्रत्यक्ष रूप में मनोरंजक तरीकों से चीजें जानता, सीखता तथा लिखता था. लेकिन आज परिस्थितियां ऐसी हैं कि अध्यापक एक सीमित समय के लिए ऑनलाइन कक्षा तो लेते हैं, लेकिन समय के अभाव के चलते उस तरह से बच्चों को समझा नहीं पाते हैं, जैसे वे स्कूल में समझाते थे. ऐसे में टीचर्स की आधी जिम्मेदारी माता-पिता पर आ गई है.
डॉ. दवे कहती हैं कि वैसे ही बच्चे इस समय बहुत तनाव से गुजर रहें है. ऐसे में पढ़ाई में मदद करते समय माता-पिता को विशेष ध्यान देना होगा. उन्हें चाहिए की वह बच्चों के विषयपूरक डर को समझते हुए, खेल-खेल में, उदाहरण देकर एक हल्के-फुल्के माहौल में बच्चों को पढ़ाने और सिखाने का प्रयास करें.
गैजेट्स से कैसे बचाएं बच्चों को
पहले के समय में जहां लोग खाली समय में बोर्ड गेम जैसे कैरम, लूडो या सांप-सीढ़ी आदि खेल खेलते थे. आज बच्चे अपने मोबाइल पर ही यह खेल खेलते हैं. इसके अलावा वीडियो या मोबाइल गेम्स में बच्चों की दुनिया फंस सी गई है. पहले ही अपना काफी समय बच्चे मोबाइल या टीवी की स्क्रीन के सामने बिताते हैं. इसके अलावा भी कभी खेल और कभी अन्य कारणों से बच्चे अपने दिन का अधिकांश समय गैजेट्स के साथ ही बिताने लगे हैं. जिससे उनके सोचने समझने की क्षमता और दिमागी विकास पर फर्क पड़ता है.
इसके लिए बहुत जरूरी है कि माता-पिता बच्चों की रूचियों को समझें और उन्हें गैजेट्स से दूर करने का प्रयास करें और यदि वह ऐसा नहीं कर पा रहें हैं, तो उन्हें ऐसे वर्चुअल खेलों की तरफ मोड़ने का प्रयास करें जैसे सुडोकू, चेस, वोकेबलरी खेल आदि, जिनसे उनकी दिमागी कसरत हो. डॉ. दवे कहती हैं कि पढ़ाई और खेल के तरीकों में थोड़ा सा मनोरंजन जोड़ने से बच्चे न सिर्फ बेहतर ढंग से पढ़ पाएंगे, बल्कि बच्चों में थोड़ा उत्साह भी उत्पन्न कर पाएंगे.