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BBC documentary controversy: DU स्टूडेंट को दिल्ली हाईकोर्ट से राहत, प्रतिबंध रद्द

दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार को दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें उसने भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एनएसयूआई) के राष्ट्रीय सचिव लोकेश चुघ को बीबीसी डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग करने के लिए विश्वविद्यालय से प्रतिबंधित कर दिया था. न्यायमूर्ति पुरुषेंद्र कुमार कौरव ने आदेश को रद्द करते हुए चुघ का प्रवेश बहाल कर दिया.

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Published : Apr 27, 2023, 3:26 PM IST

नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कथित तौर पर बीबीसी डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग आयोजित करने के लिए एनएसयूआई के राष्ट्रीय सचिव लोकेश चुघ को दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रतिबंधित करने के आदेश को गुरुवार को रद्द कर दिया. साथ ही कोर्ट ने उनका प्रवेश बहाल कर दिया है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले हाई कोर्ट ने डीयू से लोकेश चुघ की याचिका पर तीन दिन के भीतर जवाब दाखिल करने के लिए कहा था. याचिका डीयू के उस आदेश के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि चुघ ने बीबीसी की गोधरा कांड से जुड़ी डॉक्यूमेंट्री 'इंडिया द मोदी क्वेश्चन' की स्क्रीनिंग का आयोजन किया था.

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बता दें कि डीयू के मानव विज्ञान विभाग से पीएचडी कर रहे लोकेश चुघ को विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक वर्ष की अवधि के लिए किसी भी विश्वविद्यालय, कॉलेज की विभागीय परीक्षा में बैठने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. आज याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति पुरुषेंद्र कुमार कौरव ने टिप्पणी की कि विश्वविद्यालय के आदेश में दिमाग का इस्तेमाल नहीं होता है. विश्वविद्यालय के आदेश में विचारों का स्वतंत्र उपयोग होना चाहिए जो आदेश में परिलक्षित नहीं होता है.

आदेश में तर्क को प्रतिबिंबित करना चाहिए. सुनवाई के दौरान डीयू की ओर से पेश हुए एडवोकेट मोहिंदर रूपल ने कहा कि वह कुछ दस्तावेज पेश करना चाहते हैं, जिसके कारण विश्वविद्यालय को यह फैसला करना पड़ा. चुघ के वकीलों नमन जोशी और रितिका वोहरा ने तर्क दिया कि उनकी पीएचडी थीसिस जमा करने की अंतिम तिथि 30 अप्रैल है. इसलिए इस मामले में तात्कालिकता है.

न्यायमूर्ति कौरव ने उत्तर दिया कि एक बार याचिकाकर्ता न्यायालय के समक्ष होगा, उसके अधिकारों की रक्षा की जाएगी. इस पर मोहिंदर रूपल ने जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए समय मांगा. इस पर कोर्ट ने तीन दिन के अंदर डीयू के वकील को हलफनामा दाखिल करने का समय दिया. साथ ही कहा कि इसके बाद याचिकाकर्ता भी दो दिनों में प्रत्युत्तर दाखिल करने के लिए स्वतंत्र है.

यह था पूरा मामलाः 27 जनवरी, 2023 को डीयू कैंपस में विरोध प्रदर्शन किया गया. विरोध के दौरान लोगों को दिखाने के लिए इंडिया: द मोदी क्वेश्चन शीर्षक वाली बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री भी दिखाई गई. इसके बाद, पुलिस ने कथित रूप से प्रतिबंधित स्क्रीनिंग के लिए कुछ छात्रों को हिरासत में लिया. बाद छात्रों ने पुलिस पर परेशान करने का आरोप लगाया था.

याचिका में खुद पर डीयू द्वारा लगाए गए प्रतिबंध पर लोकेश चुघ ने कहा था कि डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग के मामले में उन पर पुलिस द्वारा किसी भी प्रकार की उकसाने, शांति भंग या हिंसा करने का आरोप नहीं लगाया गया है और न ही उन्हें हिरासत में लिया गया था. इसके बावजूद डीयू प्रशासन ने उन्हें 16 फरवरी को कारण बताओ नोटिस जारी कर कहा था कि वह स्क्रीनिंग के दौरान विश्वविद्यालय में कानून व्यवस्था की स्थिति बिगाड़ने में शामिल थे.

नोटिस के बाद 10 मार्च को एक और नोटिस जारी कर विश्वविद्यालय में उनका प्रवेश वर्जित कर दिया गया. जबकि विरोध प्रदर्शन के समय वह मौके पर मौजूद नहीं थे बल्कि मीडिया से बातचीत कर रहे थे. चुघ की याचिका में यह भी तर्क दिया गया है कि विश्वविद्यालय ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करते हुए उनके खिलाफ आदेश पारित किया और उन्हें अनुशासनात्मक प्राधिकरण द्वारा उनके खिलाफ आरोपों और निष्कर्षों के बारे में सूचित भी नहीं किया गया.

ये भी पढ़ें: Delhi Liquor Scam में CBI की चार्जशीट के मायनेः आसान नहीं होगा आरोपों और सबूतों को झूठा साबित करना

नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कथित तौर पर बीबीसी डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग आयोजित करने के लिए एनएसयूआई के राष्ट्रीय सचिव लोकेश चुघ को दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रतिबंधित करने के आदेश को गुरुवार को रद्द कर दिया. साथ ही कोर्ट ने उनका प्रवेश बहाल कर दिया है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले हाई कोर्ट ने डीयू से लोकेश चुघ की याचिका पर तीन दिन के भीतर जवाब दाखिल करने के लिए कहा था. याचिका डीयू के उस आदेश के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि चुघ ने बीबीसी की गोधरा कांड से जुड़ी डॉक्यूमेंट्री 'इंडिया द मोदी क्वेश्चन' की स्क्रीनिंग का आयोजन किया था.

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बता दें कि डीयू के मानव विज्ञान विभाग से पीएचडी कर रहे लोकेश चुघ को विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक वर्ष की अवधि के लिए किसी भी विश्वविद्यालय, कॉलेज की विभागीय परीक्षा में बैठने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. आज याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति पुरुषेंद्र कुमार कौरव ने टिप्पणी की कि विश्वविद्यालय के आदेश में दिमाग का इस्तेमाल नहीं होता है. विश्वविद्यालय के आदेश में विचारों का स्वतंत्र उपयोग होना चाहिए जो आदेश में परिलक्षित नहीं होता है.

आदेश में तर्क को प्रतिबिंबित करना चाहिए. सुनवाई के दौरान डीयू की ओर से पेश हुए एडवोकेट मोहिंदर रूपल ने कहा कि वह कुछ दस्तावेज पेश करना चाहते हैं, जिसके कारण विश्वविद्यालय को यह फैसला करना पड़ा. चुघ के वकीलों नमन जोशी और रितिका वोहरा ने तर्क दिया कि उनकी पीएचडी थीसिस जमा करने की अंतिम तिथि 30 अप्रैल है. इसलिए इस मामले में तात्कालिकता है.

न्यायमूर्ति कौरव ने उत्तर दिया कि एक बार याचिकाकर्ता न्यायालय के समक्ष होगा, उसके अधिकारों की रक्षा की जाएगी. इस पर मोहिंदर रूपल ने जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए समय मांगा. इस पर कोर्ट ने तीन दिन के अंदर डीयू के वकील को हलफनामा दाखिल करने का समय दिया. साथ ही कहा कि इसके बाद याचिकाकर्ता भी दो दिनों में प्रत्युत्तर दाखिल करने के लिए स्वतंत्र है.

यह था पूरा मामलाः 27 जनवरी, 2023 को डीयू कैंपस में विरोध प्रदर्शन किया गया. विरोध के दौरान लोगों को दिखाने के लिए इंडिया: द मोदी क्वेश्चन शीर्षक वाली बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री भी दिखाई गई. इसके बाद, पुलिस ने कथित रूप से प्रतिबंधित स्क्रीनिंग के लिए कुछ छात्रों को हिरासत में लिया. बाद छात्रों ने पुलिस पर परेशान करने का आरोप लगाया था.

याचिका में खुद पर डीयू द्वारा लगाए गए प्रतिबंध पर लोकेश चुघ ने कहा था कि डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग के मामले में उन पर पुलिस द्वारा किसी भी प्रकार की उकसाने, शांति भंग या हिंसा करने का आरोप नहीं लगाया गया है और न ही उन्हें हिरासत में लिया गया था. इसके बावजूद डीयू प्रशासन ने उन्हें 16 फरवरी को कारण बताओ नोटिस जारी कर कहा था कि वह स्क्रीनिंग के दौरान विश्वविद्यालय में कानून व्यवस्था की स्थिति बिगाड़ने में शामिल थे.

नोटिस के बाद 10 मार्च को एक और नोटिस जारी कर विश्वविद्यालय में उनका प्रवेश वर्जित कर दिया गया. जबकि विरोध प्रदर्शन के समय वह मौके पर मौजूद नहीं थे बल्कि मीडिया से बातचीत कर रहे थे. चुघ की याचिका में यह भी तर्क दिया गया है कि विश्वविद्यालय ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करते हुए उनके खिलाफ आदेश पारित किया और उन्हें अनुशासनात्मक प्राधिकरण द्वारा उनके खिलाफ आरोपों और निष्कर्षों के बारे में सूचित भी नहीं किया गया.

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