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दिल्ली हाई कोर्ट ने तेजाब हमले के आरोपी की जमानत खारिज की, कहा- पीड़िता के दर्द के प्रति आंखें नहीं बंद कर सकते - Delhi High Court

दिल्ली हाई कोर्ट ने तेजाब हमले के आरोपी को यह कहते हुए जमानत देने इनकार कर दिया कि ऐसे हमलों के शारीरिक घाव तो भर जाते हैं लेकिन भावनात्मक घाव नहीं. कोर्ट ने कहा कि हम पीड़िता के दर्द के प्रति आंखें नहीं बंद कर सकते.

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By ETV Bharat Delhi Team

Published : Sep 7, 2023, 12:06 PM IST

नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने एसिड अटैक के एक मामले में आरोपी को यह कहते हुए जमानत देने से इनकार कर दिया कि वह पीड़िता के अनदेखे दर्द के प्रति अपनी आँखें बंद नहीं कर सकता है. ऐसे अपराधों के लिए एक मजबूत निवारक स्थापित करना आवश्यक है. आरोपी ने याचिका दायर कर इस आधार पर अपनी रिहाई की मांग की थी कि अपराध के लिए न्यूनतम सजा 10 साल थी और वह पहले ही न्यायिक हिरासत में नौ साल बिता चुका है.

ये भी पढ़ें: अनुबंध पर काम करने वाली महिलाओं को भी मातृत्व अवकाश पाने का अधिकार: दिल्ली हाई कोर्ट

घटना वर्ष 2014 में पश्चिमी दिल्ली के राजौरी गार्डन इलाके में हुई थी. यहां एक सरकारी अस्पताल में सीनियर रेजिडेंट के रूप में काम करने वाली 30 वर्षीय महिला पर आरोपी ने कथित रूप से दिनदहाड़े तेजाब डाल दिया था.

न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि तेजाब हमला समाज में सबसे गंभीर अपराधों में से एक है. आरोपी की लंबी कारावास की पीड़ा को पीड़िता के न्याय के इंतजार के समान ही देखना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि इन हमलों के परिणामस्वरूप अक्सर जीवन बदल देने वाली चोटें आती हैं, जिससे न केवल शारीरिक दर्द होता है बल्कि भावनात्मक घाव भी होते हैं जो कभी ठीक नहीं होते. ऐसी स्थितियों में न्याय के संरक्षक के रूप में अदालत की भूमिका सामने आने की जरूरत है.

कोर्ट ने अपने आदेश में आगे कहा कि अदालत पीड़िता द्वारा सामना किए गए अनदेखे मनोवैज्ञानिक दर्द और जीवन भर जारी रहने वाले उसके परिणामों पर अपनी आँखें बंद नहीं कर सकती. और इस घटना ने समाज में कई लड़कियों में भय और असुरक्षा पैदा कर दी होगी. जबकि आरोपी मुकदमा जारी रहने तक अपनी लंबी कैद पर शोक मना सकता है. अदालत ने कहा कि वह इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकती कि पीड़िता को अपने जीवन के अधिकांश समय काला चश्मा पहनना पड़ता है.

हालांकि, हाई कोर्ट ने निचली अदालत को निर्देश दिया कि मामले को दैनिक आधार पर सुनवाई के बाद चार महीने के भीतर समाप्त किया जाए. न्यायमूर्ति शर्मा ने आगे कहा कि हिंसा के ये कृत्य न केवल पीड़ितों को शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आघात पहुँचाते हैं बल्कि समाज में भय और असुरक्षा के बीज भी बोते हैं. इसलिए, यह आवश्यक है कि अदालत ऐसे अपराधों के खिलाफ एक मजबूत निवारक स्थापित करे.

हाई कोर्ट के अनुसार, जबकि आरोपी लंबे समय तक जेल में रहा और उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कम हो गई, पीड़ित को दाहिनी आंख की लगभग 41 प्रतिशत विकलांगता के साथ-साथ अपरिहार्य भय, चिंता और मनोवैज्ञानिक पीड़ा का सामना करना पड़ा और वह घर में बंधक भी बनी रही. यह एक अनदेखा मनोवैज्ञानिक आघात है. आरोपी ने पीड़िता के भविष्य को बर्बाद करने के स्पष्ट इरादे से इस जघन्य वारदात को अंजाम देने की योजना सावधानीपूर्वक तैयार की थी और उसका पूर्वाभ्यास किया था.

ये भी पढ़ें: 15 वर्षीय पत्नी से बलात्कार का आरोपी पति बरी, दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी- इस शारीरिक संबंध को रेप नहीं कहा जा सकता

ये भी पढ़ें: रेप किसी महिला की आत्मा और शरीर के साथ किया गया सबसे बर्बर अपराध है : दिल्ली हाईकोर्ट

नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने एसिड अटैक के एक मामले में आरोपी को यह कहते हुए जमानत देने से इनकार कर दिया कि वह पीड़िता के अनदेखे दर्द के प्रति अपनी आँखें बंद नहीं कर सकता है. ऐसे अपराधों के लिए एक मजबूत निवारक स्थापित करना आवश्यक है. आरोपी ने याचिका दायर कर इस आधार पर अपनी रिहाई की मांग की थी कि अपराध के लिए न्यूनतम सजा 10 साल थी और वह पहले ही न्यायिक हिरासत में नौ साल बिता चुका है.

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घटना वर्ष 2014 में पश्चिमी दिल्ली के राजौरी गार्डन इलाके में हुई थी. यहां एक सरकारी अस्पताल में सीनियर रेजिडेंट के रूप में काम करने वाली 30 वर्षीय महिला पर आरोपी ने कथित रूप से दिनदहाड़े तेजाब डाल दिया था.

न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि तेजाब हमला समाज में सबसे गंभीर अपराधों में से एक है. आरोपी की लंबी कारावास की पीड़ा को पीड़िता के न्याय के इंतजार के समान ही देखना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि इन हमलों के परिणामस्वरूप अक्सर जीवन बदल देने वाली चोटें आती हैं, जिससे न केवल शारीरिक दर्द होता है बल्कि भावनात्मक घाव भी होते हैं जो कभी ठीक नहीं होते. ऐसी स्थितियों में न्याय के संरक्षक के रूप में अदालत की भूमिका सामने आने की जरूरत है.

कोर्ट ने अपने आदेश में आगे कहा कि अदालत पीड़िता द्वारा सामना किए गए अनदेखे मनोवैज्ञानिक दर्द और जीवन भर जारी रहने वाले उसके परिणामों पर अपनी आँखें बंद नहीं कर सकती. और इस घटना ने समाज में कई लड़कियों में भय और असुरक्षा पैदा कर दी होगी. जबकि आरोपी मुकदमा जारी रहने तक अपनी लंबी कैद पर शोक मना सकता है. अदालत ने कहा कि वह इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकती कि पीड़िता को अपने जीवन के अधिकांश समय काला चश्मा पहनना पड़ता है.

हालांकि, हाई कोर्ट ने निचली अदालत को निर्देश दिया कि मामले को दैनिक आधार पर सुनवाई के बाद चार महीने के भीतर समाप्त किया जाए. न्यायमूर्ति शर्मा ने आगे कहा कि हिंसा के ये कृत्य न केवल पीड़ितों को शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आघात पहुँचाते हैं बल्कि समाज में भय और असुरक्षा के बीज भी बोते हैं. इसलिए, यह आवश्यक है कि अदालत ऐसे अपराधों के खिलाफ एक मजबूत निवारक स्थापित करे.

हाई कोर्ट के अनुसार, जबकि आरोपी लंबे समय तक जेल में रहा और उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कम हो गई, पीड़ित को दाहिनी आंख की लगभग 41 प्रतिशत विकलांगता के साथ-साथ अपरिहार्य भय, चिंता और मनोवैज्ञानिक पीड़ा का सामना करना पड़ा और वह घर में बंधक भी बनी रही. यह एक अनदेखा मनोवैज्ञानिक आघात है. आरोपी ने पीड़िता के भविष्य को बर्बाद करने के स्पष्ट इरादे से इस जघन्य वारदात को अंजाम देने की योजना सावधानीपूर्वक तैयार की थी और उसका पूर्वाभ्यास किया था.

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