नई दिल्ली: राजधानी के चुनावी माहौल में चुनाव प्रचार चरम पर पहुंच चुका है. इससे कई समुदाय के लोग नदारद हैं. राजनीतिक पार्टियों के जो प्रत्याशी चुनाव प्रचार कर रहे हैं, उनमें बंगाली, गुजराती और तमिल नेता नदारद हैं. जबकि दिल्ली की राजनीति में पहले यह सक्रिय भूमिका निभाते रहे.
राजनीतिक दल ने नहीं दी तवज्जो
दिल्ली के चुनावी मौसम में इस बार बंगाली, गुजराती, तमिल नेताओं का जिक्र भाषण में सुनाई नहीं दे रहा है. दरअसल तीनों ही राजनीतिक दल कांग्रेस, बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने टिकट वितरण में इन्हें दरकिनार किए जाने के बाद अब चुनाव प्रचार में भी इन समुदाय के लोगों को तवज्जो नहीं दी जा रही है. जबकि पिछले चुनाव में तीनों ही समुदाय के नेता सक्रिय थे.
टिकट नहीं मिलने से बनाई दूरी
पिछले चुनावों में बंगाली, गुजराती और तमिल समुदाय के प्रत्याशी मैदान में थे. लेकिन इस बार तीनों ही प्रमुख दलों से इन समुदाय के प्रत्याशियों को टिकट नहीं दिया है. हालांकि इन तीनों ही समुदाय के बड़ी आबादी राजधानी के विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में रह रही है.
पूर्व के चुनावों में प्रत्याशी जीतते भी रहे
यही नहीं पूर्व के चुनावों में इन समुदाय के लोग चुनाव जीतते भी रहे हैं. वर्ष 1951 में जब दिल्ली विधानसभा का पहला चुनाव हुआ था, उस समय रिंग रोड सीट से प्रफुल्ल रंजन चटर्जी, पटपड़गंज सीट से मीरा भारद्वाज ने जीत दर्ज की थी.
इन इलाकों में बहुतायत में रहते हैं लोग
दिल्ली में यदि बंगाली समुदाय की बात करें तो चितरंजन पार्क, मिंटो रोड, महावीर एनक्लेव, टैगोर पार्क क्षेत्रों में उनकी बड़ी आबादी है. वहीं रोहिणी, आर. के. पुरम, करोल बाग समेत अन्य इलाकों में तमिल समुदाय के लोग भी रहते हैं. इसके अलावा जनकपुरी, दिलशाद गार्डन, मयूर विहार में मलयालम समाज के लोगों की अधिक आबादी है. गुजराती समाज की बात करें तो पीतमपुरा, रघुबीर नगर, पूर्वी दिल्ली और सिविल लाइंस एरिया में इनकी आबादी अधिक है.
बता दें कि वर्ष 1953 और 1957 के लोकसभा चुनाव में मलयाली नेता सीके नायर बाहरी दिल्ली से सांसद रह चुके हैं. वहीं 1980-90 के बीच बीजेपी से सामने आए गुजराती नेता शांति देसाई बड़े नेताओं में शामिल थे. वर्ष 2000 में उन्होंने दिल्ली के महापौर की जिम्मेदारी भी संभाली थी. ऐसे में दिल्ली में बसते इन समुदाय के बड़े कुनबे से दिल्ली के सियासी दंगल में फर्क पड़ सकता है.