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Delhi High Court ने हत्या मामले में पुलिसकर्मी को किया बरी, आजीवन कारावास की सजा भी रद्द - etv bharat delhi

एक व्यक्ति की कथित हत्या के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने पुलिसकर्मी को बरी करते हुए उसे आजीवन कारावास की सुनाई गई सजा को रद्द कर दिया है. खंडपीछ द्वारा कहा गया कि अभियोजन पक्ष इस बात को साबित करने में सक्षम नहीं है कि अपीलकर्ता ने हत्या की.

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Published : Apr 12, 2023, 7:25 AM IST

नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति की कथित हत्या मामले में पुलिस अधिकारी को सुनाई गई सजा और आजीवन कारावास की सजा को रद्द कर दिया है. उच्च न्यायालय ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए पुलिस आयुक्त से थानों में असला रजिस्टर के रख-रखाव में हुई विसंगतियों पर गौर करने के लिए भी कहा. जस्टिस मुक्ता गुप्ता और पूनम ए बंबा की खंडपीठ ने कहा कि, स्पष्ट है कि अभियोजन पक्ष इस बात को साबित करने में सक्षम नहीं है कि अपीलकर्ता ने संदेह से परे व्यक्ति की हत्या की, इसलिए दोषसिद्ध और आदेश का फैसला सजा पर अलग रखा जाता है.

इसके अलावा अपीलकर्ता की ओर से अभियोजन पक्ष ने अपराध करने के लिए एक मकसद स्थापित करने की भी कोशिश की. यानी अपीलकर्ता और पीड़ित के बीच वित्तीय विवाद के मामले में गवाह और पीड़िता के पिता ने अभियोजन पक्ष का समर्थन नहीं किया है. कोर्ट ने अभियोजन पक्ष से कहा कि दोनों के बीच किसी भी वित्तीय विवाद को साबित करने के लिए रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं है, जो कथित अपराध करने का मकसद हो सकता है. अपीलकर्ता सुरेंद्र कुमार माथुर को यदि किसी अन्य मामले में आवश्यक न हो तो तत्काल रिहा करने का आदेश दिया जाता है.

2014 का है मामला: बता दें कि अपीलकर्ता ने पांच मार्च 2019 के फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें निचली अदालत ने अपीलकर्ता को एक व्यक्ति जय कुमार की हत्या के लिए दोषी ठहराया था. साथ ही 15 मार्च, 2019 की सजा पर दिए गए आदेश को भी चुनौती दी थी, जिसमें उन्हें आजीवन कारावास का आदेश दिया गया था. अपीलकर्ता को ट्रायल कोर्ट ने 2014 में इस मामले में दोषी ठहराया गया था.

मृतकों की पहचान नहीं की गई सत्यापित: दरअसल अभियोजन पक्ष के अनुसार वर्ष 2009 में रोहिणी के एक फ्लैट की रसोई में खून से लथपथ एक शव पड़ा हुआ था और शव पर गोली का घाव भी था. शव के पास हत्या में प्रयुक्त तीन चीजें सीसा और दो खाली कारतूस पड़े मिले. इसके बाद तीन दिसंबर, 2009 को बेगमपुर पुलिस स्टेशन में एक मामला दर्ज किया गया था. अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि कथित अपराध करने के लिए उनके मुवक्किल का कोई मकसद नहीं था, जैसा कि ट्रायल कोर्ट ने अपने फैसले में भी उल्लेख किया था और मृतकों की पहचान भी अभियोजन पक्ष द्वारा सत्यापित नहीं की गई थी.

यह भी पढ़ें-सीजेआई चंद्रचूड़ ने वकील को दी चेतावनी, कहा- 'मेरे अधिकार के साथ खिलवाड़ न करें'

वकील ने आगे बताया कि, डीएनए साक्ष्य से मृतकों की पहचान सत्यापित की जा सकती थी, लेकिन मृतकों के डीएनए प्राप्त करने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए. साथ ही रिकॉर्ड पर यह दिखाने के लिए कुछ नहीं था कि अपीलकर्ता मृतकों से परिचित था और अभियोजन पक्ष, प्रासंगिक समय पर अपीलकर्ता और अपराध में कथित तौर पर इस्तेमाल में लाई गई पिस्तौल को जोड़ने में विफल हुआ. वकील ने यह भी दावा किया कि, रजिस्टर में भी रोड सर्टिफिकेट के बारे में कुछ नहीं है, जिसके जरिए खाली कारतूस एफएसएल को भेजे गए थे, जो उक्त कारतूसों की हिरासत पर संदेह पैदा करता है. असला रजिस्टर के मुताबिक, अपीलकर्ता के पास 1-2 दिसंबर और 2-3 दिसंबर, 2009 की रात को कथित पिस्तौल थी ही नहीं और यह भी साबित नहीं किया जा सका कि बरामद किए गए कारतूसों को कथित पिस्टल से ही चलाया गया था.

यह भी पढ़ें-Noida Suicide Case: गौतम बुद्ध नगर में 24 घंटे में 4 लोगों ने किया सुसाइड, जानें वजह

नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति की कथित हत्या मामले में पुलिस अधिकारी को सुनाई गई सजा और आजीवन कारावास की सजा को रद्द कर दिया है. उच्च न्यायालय ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए पुलिस आयुक्त से थानों में असला रजिस्टर के रख-रखाव में हुई विसंगतियों पर गौर करने के लिए भी कहा. जस्टिस मुक्ता गुप्ता और पूनम ए बंबा की खंडपीठ ने कहा कि, स्पष्ट है कि अभियोजन पक्ष इस बात को साबित करने में सक्षम नहीं है कि अपीलकर्ता ने संदेह से परे व्यक्ति की हत्या की, इसलिए दोषसिद्ध और आदेश का फैसला सजा पर अलग रखा जाता है.

इसके अलावा अपीलकर्ता की ओर से अभियोजन पक्ष ने अपराध करने के लिए एक मकसद स्थापित करने की भी कोशिश की. यानी अपीलकर्ता और पीड़ित के बीच वित्तीय विवाद के मामले में गवाह और पीड़िता के पिता ने अभियोजन पक्ष का समर्थन नहीं किया है. कोर्ट ने अभियोजन पक्ष से कहा कि दोनों के बीच किसी भी वित्तीय विवाद को साबित करने के लिए रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं है, जो कथित अपराध करने का मकसद हो सकता है. अपीलकर्ता सुरेंद्र कुमार माथुर को यदि किसी अन्य मामले में आवश्यक न हो तो तत्काल रिहा करने का आदेश दिया जाता है.

2014 का है मामला: बता दें कि अपीलकर्ता ने पांच मार्च 2019 के फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें निचली अदालत ने अपीलकर्ता को एक व्यक्ति जय कुमार की हत्या के लिए दोषी ठहराया था. साथ ही 15 मार्च, 2019 की सजा पर दिए गए आदेश को भी चुनौती दी थी, जिसमें उन्हें आजीवन कारावास का आदेश दिया गया था. अपीलकर्ता को ट्रायल कोर्ट ने 2014 में इस मामले में दोषी ठहराया गया था.

मृतकों की पहचान नहीं की गई सत्यापित: दरअसल अभियोजन पक्ष के अनुसार वर्ष 2009 में रोहिणी के एक फ्लैट की रसोई में खून से लथपथ एक शव पड़ा हुआ था और शव पर गोली का घाव भी था. शव के पास हत्या में प्रयुक्त तीन चीजें सीसा और दो खाली कारतूस पड़े मिले. इसके बाद तीन दिसंबर, 2009 को बेगमपुर पुलिस स्टेशन में एक मामला दर्ज किया गया था. अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि कथित अपराध करने के लिए उनके मुवक्किल का कोई मकसद नहीं था, जैसा कि ट्रायल कोर्ट ने अपने फैसले में भी उल्लेख किया था और मृतकों की पहचान भी अभियोजन पक्ष द्वारा सत्यापित नहीं की गई थी.

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वकील ने आगे बताया कि, डीएनए साक्ष्य से मृतकों की पहचान सत्यापित की जा सकती थी, लेकिन मृतकों के डीएनए प्राप्त करने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए. साथ ही रिकॉर्ड पर यह दिखाने के लिए कुछ नहीं था कि अपीलकर्ता मृतकों से परिचित था और अभियोजन पक्ष, प्रासंगिक समय पर अपीलकर्ता और अपराध में कथित तौर पर इस्तेमाल में लाई गई पिस्तौल को जोड़ने में विफल हुआ. वकील ने यह भी दावा किया कि, रजिस्टर में भी रोड सर्टिफिकेट के बारे में कुछ नहीं है, जिसके जरिए खाली कारतूस एफएसएल को भेजे गए थे, जो उक्त कारतूसों की हिरासत पर संदेह पैदा करता है. असला रजिस्टर के मुताबिक, अपीलकर्ता के पास 1-2 दिसंबर और 2-3 दिसंबर, 2009 की रात को कथित पिस्तौल थी ही नहीं और यह भी साबित नहीं किया जा सका कि बरामद किए गए कारतूसों को कथित पिस्टल से ही चलाया गया था.

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